Friday, October 13, 2023

2024 की सर्पिल राहें और संभावनाओं की शतरंज

पिछले कुछ समय से टीवी चैनलों पर और सोशल मीडिया में कयास लगाए जा रहे हैं कि 2024 के परिणाम क्या होगे? इन कयासों की बुनियाद राष्ट्रीय स्तर पर बने दो गठबंधनों की हाल की गतिविधियों पर आधारित हैं। दो गठबंधन पहले से मौजूद हैं, पर कांग्रेस और दूसरे विरोधी दलों ने मिलकर इंडिया नाम से राष्ट्रीय गठबंधन बनाया है, जो संगठनात्मक शक्ल ले ही रहा है। इंडिया के प्रायोजकों को लगता है कि भाजपा का लगातार सत्ता पर बने रहना उनके अस्तित्व के लिए खतरा है। 2024 में कुछ नहीं हुआ, तो फिर कुछ नहीं हो पाएगा।

दूसरी तरफ बीजेपी के कर्णधारों को लगता है कि उनके खिलाफ विरोधी दलों का एकताबद्ध होना खतरनाक है। हाल में पंजाब, हिमाचल और कर्नाटक में बीजेपी को आशानुकूल सफलता नहीं मिली। इससे भी उन्हें चिंता है। एंटी इनकंबैंसी का अंदेशा भी है। उन्हें यह भी लगता है कि बीजेपी ने 2019 में ‘पीक’ हासिल कर लिया था। इसके बाद ढलान आएगा। उससे तभी बच सकते हैं, जब नए इलाकों में प्रभाव बढ़े। उनके एजेंडा को जल्द से जल्द लागू करने के लिए इसबार सरकार बननी ही चाहिए। यह एजेंडा एक तरफ हिंदुत्व और दूसरी तरफ भारत के महाशक्ति के रूप में उभरने से जुड़ा है। उन्हें यह भी दिखाई पड़ रहा है कि पार्टी की ताकत इस समय नरेंद्र मोदी हैं, पर उनके बाद क्या?

एनडीए बनाम इंडिया

इन दोनों गतिविधियों में बुनियादी फर्क है। एनडीए, के केंद्र में बीजेपी है। शेष दलों की अहमियत अपेक्षाकृत कम है। इंडिया के केंद्र में कांग्रेस है, पर उसमें परिधि के दलों की अहमियत एनडीए के सहयोगी दलों की तुलना में ज्यादा है। इसमें जेडीयू और तृणमूल जैसी पार्टियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। इन दो के अलावा समाजवादी पार्टी, डीएमके, वाममोर्चा और आम आदमी पार्टी जैसे दल हैं, जो इंडिया की रणनीति को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।  इसमें क्षेत्रीय-क्षत्रपों की भूमिका है, जो महत्वपूर्ण हैं, पर जिनके होने से फैसले करने में दिक्कतें भी हैं। 

2024 में त्रिशंकु-संसद की तीसरी संभावना भी है। दोनों गठबंधन 200 से 250 के बीच आकर रुक गए, तब क्या होगा?  तीन-चार क्षेत्रीय-दल पाले से बाहर किनारे बैठे हैं। उनकी सामर्थ्य 50 से 100 सीटें तक जीतने की है। परिस्थिति बनी, तो चुनाव-पूर्व के गठबंधन में टूटेंगे। सीताराम येचुरी जैसे नेता मानते हैं कि पोस्ट-पोल गठबंधन ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होंगे। नीतीश कुमार का दावा है कि हमारी राय मानी गई, तो बीजेपी को 100 के अंदर समेट देंगे। यह कुछ ज्यादा बड़ा दावा है। बीजेपी की सीटें कम होने पर हैरत नहीं होगी, पर वे कितनी कम होंगी, यह ज्यादा बड़ा सवाल है। 200 के ऊपर रहीं, तो उसे जरूरी सहयोगी मिल जाएंगे। 

बीजेपी का गणित

कल्पना करें कि बीजेपी की ताकत कम होने जा रही है, पर कितनी कम होगी? 2019 के चुनाव में बीजेपी को उत्तरी राज्यों में उत्तर प्रदेश (62), बिहार (17), मप्र (28), राजस्थान (24), हरियाणा (10), छत्तीसगढ़ (09), झारखंड (11) हिप्र (04), उत्तराखंड (05), दिल्ली (07), पंजाब (02) और जम्मू-कश्मीर (03), चंडीगढ़ (01) के 13 इलाकों और गुजरात (26) में कुल मिलाकर 209 सीटें मिली थीं। इनमें से मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में कमी आने की संभावना है। यह कमी एक तिहाई सीटों की कमी मान लें, तब भी करीब 150 सीटें उसे मिल जाएंगी। 

इसके बाद असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, कर्नाटक और पूर्वोत्तर के राज्यों में 60 से 100 के बीच सीटें मिलेंगी। खराब स्थिति में भी 230 से 250 तक सीटें बीजेपी को मिल सकती हैं। उपरोक्त सभी सीटें बीजेपी की हैं, सहयोगियों की नहीं। पिछले चुनाव में बीजेपी के सहयोगी दलों के पास 50 सीटें थीं। इनमें से अकाली, शिवसेना और अद्रमुक अब एनडीए के साथ नहीं हैं। पर कर्नाटक में जेडीएस ने बीजेपी का साथ पकड़ा है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में जेडीएस और कांग्रेस दोनों ने अलग-अलग लड़ते हुए भी बीजेपी को हराने पर जोर लगाया। बीजेपी तो हार गई, पर जेडीएस को भी भारी नुकसान हो गया। फायदा कांग्रेस का हुआ। जेडीएस अब उसकी कुछ भरपाई करना चाहती है।

संगठनात्मक-शक्ति

भारतीय जनता पार्टी ने 2024 के चुनाव के दो साल पहले से अपना काम शुरू कर दिया। लोकसभा प्रवास योजना के नाम से इस कार्यक्रम में केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों से लेकर बूथ-स्तर के कार्यकर्ताओं को शामिल किया गया है। गृहमंत्री अमित शाह मानते हैं कि चुनाव में विजय की पहली शर्त है, मजबूत-संगठन का होना। 2019 के चुनाव में पार्टी जिन क्षेत्रों में दूसरे या तीसरे स्थान पर रही थी, उनपर पार्टी अलग से ध्यान दे रही है।

इन्हें मुश्किल सीटें माना जाता है। ऐसे 160 क्षेत्रों पर पिछले वर्ष से ध्यान दिया जा रहा है। बाद में ऐसा भी कहा गया कि ऐसी सीटों की संख्या बढ़ाकर 200 कर दी जाएगी। इनमें ऐसी सीटें भी हैं, जिनपर पार्टी को मामूली अंतर से जीत मिली थी। इनमें से ज्यादातर सीटें पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल और ओडिशा में हैं। कुछ सीटें उत्तर प्रदेश और बिहार में भी हैं। महाराष्ट्र में पार्टी ने 16 सीटों पर खासतौर से ध्यान दिया है। इनमें शरद पवार की बारामती सीट भी है। उत्तर प्रदेश में रायबरेली, अमेठी, आंबेडकर नगर, श्रावस्ती, लालगंज, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा और मैनपुरी भी है। तेलंगाना के महबूब नगर, कुर्नूल और नलगोंडा ऐसी सीटें हैं, जहाँ पार्टी हार गई, पर उसे अच्छे वोट मिले थे।

मुसलमान

अभी तक बीजेपी मुसलमान वोटर की अनदेखी करती रही है। उसके पास न तो प्रभावशाली मुसलमान नेता हैं और न वोटर। पर लगता है कि पार्टी ने मुसलमानों के साथ जुड़ने की कोशिशें शुरू की हैं। इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता लिज़ मैथ्यूस ने कुछ समय पहले खबर दी थी कि पार्टी ने 60 ऐसी लोकसभा सीटों को छाँटा है, जहाँ 2024 के चुनाव में मुसलमान-प्रत्याशियों को आजमाया जा सकता है। ऐसी खबरें काफी पहले से हवा में हैं कि बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों को आकर्षित करने का फैसला किया है।

केवल पसमांदा ही नहीं मुसलमानों के कुछ दूसरे वर्गों को पार्टी ने अपने साथ जोड़ने का प्रयास शुरू किया है। पार्टी फिलहाल इसके सहारे बड़ी संख्या में वोट पाने या सफलता पाने की उम्मीद नहीं कर रही है, बल्कि यह मुसलमानों के बीच भरोसा पैदा करने और अपने हमदर्दों को तैयार करने का प्रयास है। नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कहा कि पार्टी के नेताओं को मुसलमानों के प्रति अभद्र टिप्पणी करने से बचना चाहिए। इसके पहले उन्होंने हैदराबाद कार्यकारिणी में भी कुछ इसी तरह की बात कही थी।

मुसलमानों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार की इस नसीहत के पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि हिंदू समाज हजारों साल से गुलाम रहा है, अब उसमें जागृति आ रही है। इस वजह से कभी-कभी हिंदू समुदाय की ओर से आक्रामक व्यवहार दिखाई पड़ता है। उन्होंने इसे ठीक तो नहीं बताया, लेकिन परोक्ष रूप से इस बात का समर्थन किया कि हिंदू समुदाय का यह आक्रोश इतिहास को देखते हुए सही है। कुछ लोग इन दोनों बातों को एक-दूसरे के विपरीत मान रहे हैं।

60 सीटें

इन 60 में 13-13 सीटें उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में हैं। पाँच जम्मू-कश्मीर में, चार बिहार में, केरल और असम में छह-छह मध्य प्रदेश में तीन, तेलंगाना और हरियाणा में दो-दो और महाराष्ट्र तथा लक्षद्वीप में एक-एक हैं। पश्चिम बंगाल में बहरामपुर (64 फीसदी अल्पसंख्यक आबादी), जंगीपुर (60 प्रतिशत) मुर्शिदाबाद (59 प्रतिशत) और जयनगर (30 प्रतिशत), बिहार में किशनगंज (67 प्रतिशत), कटिहार (38 प्रतिशत), अररिया (32 प्रतिशत) और पूर्णिया (30 प्रतिशत) हैं। केरल में वायनाड (57 प्रतिशत), मलप्पुरम (69 प्रतिशत), पोन्नानी (64 प्रतिशत), कोझीकोड (37 प्रतिशत), वाडकरा (35 प्रतिशत) और कासरगोड (33 प्रतिशत) हैं।

उत्तर प्रदेश में बिजनौर (38.33 प्रतिशत), अमरोहा (37.5 प्रतिशत), कैराना (38.53 प्रतिशत) नगीना (42 प्रतिशत), संभल (46 प्रतिशत), मुजफ्फरनगर ( 37 प्रतिशत) और रामपुर (49.14 प्रतिशत) हैं। पार्टी ने हरियाणा में गुरुग्राम (38 प्रतिशत) और फरीदाबाद (30 प्रतिशत), तेलंगाना में हैदराबाद (41.17 प्रतिशत) और सिकंदराबाद (41.17 प्रतिशत) को इस सूची में रखा है।

इंडिया का गणित

इंडिया गठबंधन उस गणित पर विचार कर रहा है, जिसके सहारे बीजेपी के प्रत्याशियों के सामने विरोधी दलों का एक ही प्रत्याशी खड़ा हो। सभी दलों का समन्वित चुनाव अभियान छेड़ने का विचार भी है। चेन्नई, गुवाहाटी, दिल्ली, पटना और नागपुर में रैलियाँ करने का विचार है। उधर तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, राजद और आम आदमी पार्टी का आग्रह है कि सीटे शेयरिंग के फॉर्मूले को पहले निपटा लेना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ’ब्रायन ने पिछले दिनों एक अखबार में लिखा कि 2024 में बीजेपी को हराया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि लोकसभा चुनाव को अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों को रूप में जोड़ा जाए। जब भी किसी इलाके की मजबूत पार्टी से बीजेपी को सामना करना पड़ा, तो वह कमज़ोर साबित हुई है।

उन्होंने लिखा है कि मैं जानबूझकर क्षेत्रीय पार्टी (रीज़नल पार्टी) शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि बहुत सी पार्टियों को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता मिली हुई है। यदि आप हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश या तेलंगाना के चुनाव परिणामों को जोड़कर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित करें, तो पाएंगे कि बीजेपी को 240 तक पहुँचने में भी मुश्किल होगी। मोटे तौर पर यह वन-टु-वन का गणित है। यानी बीजेपी के प्रत्याशियों के सामने विपक्ष का एक प्रत्याशी।

गणित और रसायन

गणित की दृष्टि से देखें, तो राहुल का विचार सही है कि विरोधी एकता के सहारे बीजेपी को हराया जा सकता है। मान लिया कि बीजेपी को देशभर में 40 फीसदी तक वोट मिल जाएंगे, तो क्या मान लिया जाए कि शेष 60 प्रतिशत बीजेपी-विरोधी है? 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन इसी गणित के आधार पर हुआ था। परिणाम वैसा नहीं मिला, जिसकी इन दोनों दलों को उम्मीद थी। इस बात को नहीं भुलाना चाहिए कि क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं की कांग्रेस से प्रतिस्पर्धा भी है। इस विसंगति का तोड़ राहुल गांधी को ही खोजना है।

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठजोड़ के पहले 2017 में सपा-कांग्रेस गठजोड़ भी विफल रहा था। पर 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा, रालोद, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), महान दल और जनवादी पार्टी (समाजवादी) का गठबंधन एक हद तक सफल भी हुआ। उस चुनाव में बीजेपी+की सीटें 2017 की 322 से घटकर 273 हो गईं। 2017 में सपा का वोट शेयर 21.8 फीसदी से बढ़कर 2022 में 32.06 प्रतिशत और गठबंधन का 36.1 हो गया। इस परिणाम के आधार पर लोकसभा सीटों की गणना करें, तो 80 में से 24 सीटें इस गठबंधन के खाते में जा सकती थीं, जबकि 2019 में सपा और बसपा के गठबंधन को केवल 15 सीटें मिली थीं।

गठबंधनों की बुनियाद

2019 के चुनाव में यूपी से एनडीए को 49.51 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2022 में 45 प्रतिशत रह गए। चूंकि 2024 में सपा का कांग्रेस से गठबंधन होगा, इसलिए देखना होगा कि इसका प्रभाव वोटर पर किस प्रकार पड़ेगा। साथ ही देखना यह भी होगा कि बसपा की भूमिका इस चुनाव में क्या होगी। प्रत्यक्षतः बातें विचारधारा और मूल्यों की होती हैं, पर राजनीति में संगठन और नेताओं के निजी हित सर्वोपरि होते हैं। मसलन सुभासपा का पाला बदलना।

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में कुल 42.3 प्रश वोट मिले थे, जिनके सहारे उसे 73 सीटें मिलीं। कांग्रेस, सपा और बसपा को मिले वोटों को जोड़ा जाए तो 49.3 फीसदी होते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के वोट 39.7 फीसदी रह गए, जबकि सपा, बसपा और कांग्रेस के सकल वोट 50.2 फीसदी हो गए। इस दृष्टि से 2019 में यूपी बीजेपी की सीटें काफी कम हो जानी चाहिए थीं, पर ऐसा हुआ नहीं। वस्तुतः जो वोट कांग्रेस को मिले, उनमें कुछ वोट सपा और बसपा के विरोधी वोट भी थे। इसी तरह बसपा को मिले वोटों में कांग्रेस विरोधी वोट भी थे। अभी 2024 में यूपी का गठबंधन गणित सामने नहीं है, पर उसे समझने के लिए यूपी की केमिस्ट्री को समझने की जरूरत भी होगी।

इस सोशल इंजीनियरी में काफी छोटे कारक भी महत्वपूर्ण होंगे। मसलन अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में कुछ छोटे जातीय समूह होते हैं, जो हार-जीत में अंतर पैदा करते हैं। गठबंधन राजनीति में ऐसे समूहों का महत्व भी होता है। बीजेपी के खिलाफ पार्टियों के एकसाथ आने पर उनके कुछ समर्थक साथ भी छोड़ेंगे। पार्टियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता भी है। सपा और बसपा के वोटर ऐसे भी हैं, जिनकी एक-दूसरे से नाराजगी है। इन दोनों पार्टियों का काफी वोटर कांग्रेस को भी नापसंद करता है। ऐसा कोई सीधा गणित नहीं है कि पार्टियों की दोस्ती हुई, तो वोटरों की भी हो जाएगी।

कांग्रेसी धुरी

प्रत्यक्षतः राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी इंडिया गठबंधन की धुरी है, और धुरी बने रहने की कोशिश में वह ऐसी गतिविधियों से बच रही है, जिससे ऐसा न लगे कि वह बड़े भाई की भूमिका में है। कहा यह भी जा रहा है कि कांग्रेस को मजबूत बनाए बगैर बीजेपी को हटाना संभव नहीं होगा। विडंबना है कि 1991 के बाद से कांग्रेस केवल 2009 में 200 की संख्या पार कर पाई है। अब तो उसके सामने 100 पार करने की चुनौती है।

2019 के चुनाव में कांग्रेस को 52 सीटों पर जीत मिली थी। 210 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही थी। यानी कि 262 सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी में सीधा मुकाबला हो सकता है। कांग्रेस 10 राज्यों में मुख्य विरोधी दल है। ये राज्य हैं पंजाब, असम, केरल, हरियाणा, महाराष्ट्र, गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड। इसका जिन सात राज्यों में बीजेपी से सीधा मुकाबला है, उनके नाम हैं-अरुणाचल, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड।

कांग्रेस मानती है कि यदि विरोधी दल उसकी सहायता करें, तो वह बीजेपी से बड़ी संख्या में सीटें जीत सकती है। लोकसभा की 274 सीटें गैर-बीजेपी शासित राज्यों में है। वहां बीजेपी की मुख्य लड़ाई क्षेत्रीय दलों से ही होगी। विपक्ष के एकजुट न होने और अलग-अलग चुनाव लड़ने से वोटों का जो बँटवारा हुआ, उसका लाभ बीजेपी को पिछले दोनों लोकसभा चुनाव में मिला। सवाल है कि क्या विरोधी दल इन 274 सीटों पर बीजेपी के खिलाफ एक प्रत्याशी खड़ा करने में सफल होंगे? क्या इस रणनीति का लाभ विरोधी दलों को मिलेगा?

क्षेत्रीय-क्षत्रप

कांग्रेस की दिक्कत यह है कि वह जैसे ही अपना वर्चस्व स्थापित करने की कशिश करेगी, सहयोगी दलों के क्षेत्रीय क्षत्रप प्रतिस्पर्धा में आ जाएंगे। क्षेत्रीय दलों के ताकतवर नेताओं के कारण गठबंधन की बातें एक स्वर से कहना मुश्किल काम है। विरोधी दलों के पास संसाधन भी सत्तारूढ़ दल की तुलना में कम हैं। बेशक जब हालात अनुकूल हों और जनता के बीच किसी बात की लहर हो, तब संसाधनों की कमी कोई मायने नहीं रखती। पर क्या इस समय ऐसा है?  मतदाता क्या महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मसलों को लेकर सरकार से इतना नाराज है कि उसे हरा दे?

विरोधी दल काफी हद तक 2004 के हालात जैसी उम्मीद कर रहे हैं, जब देश में राजनीतिक बदलाव की स्थितियाँ पैदा हो गई थीं। बीजेपी से हमदर्दी रखने वालों को अंदेशा है कि जब देश की आर्थिक स्थितियाँ बेहतरी की तरफ बढ़ रही हैं, तब कांग्रेस पार्टी फिर से सत्ता में आकर उसी तरह फिर से उसका श्रेय लेने का प्रयास करेगी, जैसा उसने 2004 के बाद किया था। उनकी चिंता का एक कारण यह भी है कि केवल मोदी-मैजिक के सहारे अगला चुनाव जीत भी लें, पर उससे आगे के लिए मजबूत आधार बनाने की जरूरत है। 

मोटा अनुमान

राजनीतिक कयासों का आधार पुराने चुनाव परिणाम भी होते हैं। 2024 के कयास काफी कुछ 2014 और बाद के चुनावों पर भी आधारित हैं। हमारे मीडिया-सर्वेक्षणों का वैज्ञानिक आधार अपेक्षाकृत कमज़ोर होता है। कुछ सायास और कुछ अनायास। इसकी एक बड़ी वजह भारतीय समाज की संरचना है, जिसमें राजनीतिक-दृष्टिकोणों का निर्धारण करने वाली प्रक्रिया अनके परतों में छिपी है। अक्सर लोग मीडिया से बातें करते समय अपने मंतव्य को प्रकट नहीं करते। मीडिया के कयास सरलीकरण पर आधारित होते हैं। 

सन 2014 के चुनाव में 6 राष्ट्रीय, 45 प्रादेशिक और 419 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ उतरी थीं। तब बीजेपी को 31.3 फीसदी और कांग्रेस को 19.3 फीसदी वोट मिले थे। इनके अलावा बीएसपी (4.2), तृणमूल (3.8), अद्रमुक (3.3), सपा (3.2), सीपीएम (3.2), तेदेपा (2.5), शिवसेना (1.9), द्रमुक (1.8) और बीजद (1.7) इन नौ दलों को 25.6 फीसदी वोट मिले थे।

2019 में 650 से ज्यादा पार्टियाँ मैदान में उतरी थीं, जिनमें 7 राष्ट्रीय दल थे। इस चुनाव में बीजेपी (437) ने पहली बार कांग्रेस (421) से ज्यादा प्रत्याशी मैदान में उतारे। उस चुनाव में बीजेपी क 37.3 फीसदी वोट और 303 सीटें, कांग्रेस को 19.5 फीसदी वोट और 52 सीटें मिलीं। प्रभावशाली क्षेत्रीय दलों को वोट प्रतिशत की तुलना में बेहतर सीटें मिली थीं। मसलन तृणमूल कांग्रेस को 4.06 प्रतिशत वोट और 22 सीटें, डीएमके को 2.34 प्रतिशत वोट और 24 सीटें, वाईएसआर कांग्रेस को 2.53 प्रतिशत वोट और 22 सीटें, बीजद को 1.66 प्रतिशत वोट और 16 सीटें, शिवसेना को 2.09 प्रतिशत वोट और 18 सीटें मिलीं।

इनकी तुलना में यूपी में बसपा (3.62 प्रश और 10 सीटें) और सपा (2.55 प्रश, 5 सीटें) का गठबंधन कुल 6.17 प्रश वोट पाकर भी कुल 15 सीटें जीत पाया। इसका मतलब है कि गठबंधन के पीछे केवल गणित ही नहीं, केमिस्ट्री को समझना भी जरूरी है। 2024 की तुलना 1971, 1977 और 1989 के चुनावों से की जा सकती है, जब विरोधी दलों ने किसी न किसी रूप में गठबंधन किए थे। 1971 में विपक्षी गठबंधन ने एक मजबूत प्रधानमंत्री को हराने की कोशिश की थी, पर हरा नहीं पाया।

मोदी हटाओ

1977 और 1989 में उसने जीत हासिल की, पर वह ज्यादा समय तक टिका नहीं। क्यों नहीं टिका और आज की परिस्थितियाँ क्या उपरोक्त तीनों अवसरों से अलग हैं, इन बातों पर भी विचार करना चाहिए। 1971 में विरोधी दलों का नारा था: इंदिरा हटाओ। इंदिरा गांधी ने इसके मुकाबले में गरीबी हटाओ का नारा दिया था। वह नारा ज्यादा आकर्षक साबित हुआ।

इस समय विरोधी दल क्या मोदी हटाओ नारे के साथ चुनाव में उतरेंगे या किसी सकारात्मक कार्यक्रम को लेकर आएंगे। मोदी हटाओ का एक अर्थ यह भी है कि देश को अब भावी नेता चाहिए। सच है कि मोदी की उम्र भी हो चली है। आज नहीं तो कल देश को नए नेता की जरूरत होगी। बीजेपी और विरोधी दलों के भीतर से वैकल्पिक नेता उभरते हुए दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। पर विकल्प तभी सामने आता है, जब जरूरत पड़ती है। लाल बहादुर शास्त्री को कितने लोगों ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा था? इंदिरा गांधी को कितने लोगों ने नेहरू का उत्तराधिकारी माना था? उन दिनों सबसे बड़ा सवाल ही यही होता था कि आफ्टर नेहरू हू?

चुनाव के मुद्दे

अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। अलबत्ता विरोधी दलों ने सांप्रदायिकता, नेतृत्व की निरंकुशता, अहंकार और संस्थाओं के दुरुपयोग जैसी कुछ बुनियादी बातों की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है। उन्हें बताना होगा कि मोदी को हटाने की उनकी बात पर मतदाता यकीन क्यों करें और इस गठबंधन के एक बने रहने की गारंटी क्या है। यह गठबंधन निजी आरोपों को महत्व देगा या वैचारिक आधार पर चुनाव में उतरेगा? ऐसा है, तो वह वैचारिक आधार क्या है? उसका आर्थिक-दर्शन क्या है? ‘इंडिया गठबंधन ने उत्तर भारत में ओबीसी और दक्षिण में क्षेत्रीय-स्वायत्तता को मुद्दा बनाने का निश्चय किया है।

उन्हें यह भी देखना होगा कि मतदाताओं का कौन सा वर्ग मोदी या बीजेपी का समर्थक है और कौन सा वर्ग ऐसा है, जो अपेक्षाकृत खामोश है और जिसे अपनी तरफ खींचा जा सकता है। विरोधी दल जीत की उम्मीद कर रहे हैं, तो उन्हें केवल सरकार की आलोचना से आगे बढ़ना होगा और एक बेहतर विकल्प के रूप में खुद को पेश करना होगा। यह काम आसान नहीं है। सायास या अनायास वे मोदी के खिलाफ किसी एक चेहरे को उतारने की स्थिति में नहीं हैं। फिर भी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कहना शुरू कर दिया है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना चाहिए।

भाजपा के मुद्दे

भारतीय जनता पार्टी राम-मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता, ट्रिपल तलाक और अब महिला आरक्षण जैसे मसलों के अलावा गरीबों को मुफ्त अनाज, उज्ज्वला, जनधन, नल से जल, स्वच्छ भारत और वैश्विक स्तर पर भारत का कद बढ़ने से लेकर चंद्रयान और गगनयान के मुद्दों पर चुनाव लड़ेगी। डिजिटल अर्थव्यवस्था, वंदे भारत, बुलेट ट्रेन, राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत को दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प वोटर को लुभाएगा या नहीं?

इन बातों का जवाब कांग्रेस पार्टी ने पिछले दिनों कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनाव में दिया है। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और पंजाब में वैकल्पिक लोक-लुभावन कार्यक्रम दिए हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनाव में ऐसे कार्यक्रमों की झड़ी लगेगी। देखना है कि गठबंधन इंडिया किस प्रकार के वायदे लेकर आएगा। बहरहाल गठबंधन इंडिया की बैठक में खुले तौर पर इन विषयों पर बातें भले ही नहीं हो, पर भीतरी तौर पर जरूर हो रही होंगी। और नहीं हो रही हैं, तो होनी चाहिए।

 पार्टियों के वर्तमान गठजोड़

एनडीए

1.भाजपा, 2.शिवसेना (शिंदे), 3.राकांपा (अजित), 4.जेडीएस, 5.रालोजपा, 6.अपना दल (सोनेलाल), 7.नेशनल पीपुल्स पार्टी, 8.एनडीपीपी, 9.आजसी, 10.सिक्कम क्रांतिकारी मोर्चा, 11.मिजो नेशनल फ्रंट, 12.लोजपा (रामविलास), 13.नगा पीपुल्स फ्रंट, 14.रिपब्लिकन (आठवले), 15.असम गण परिषद, 16.तमिल मानीला, 17.युनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल, 18जनसेना पार्टी, 19.रालोजद, 20.सुभासपा, 21.शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त), 22.महा. गोमांतक, 23.जननायक जनता, 24.ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस, 25.हिंदुस्तान अवामी मोर्चा, 26.भारत धर्म जनसेना, 27.आईपीएफ त्रिपुरा, 28.प्रहार जनशक्ति, 29.राष्ट्रीय समाज पक्ष, 30.युनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी, 31.हरियाणा लोकहित पार्टी, 32.हिल स्टेट पीपुल्स, 33.केरल कामराज कांग्रेस, 34.गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट, 35.पुतिया तमिषगम, 36.जन सुराज्य पार्टी।

 

इनमें करीब 20 ऐसी पार्टियाँ हैं, जिनका संसद में शून्य प्रतिनिधित्व है। पर स्थानीय स्तर पर इनका मतदाताओं के एक वर्ग पर प्रभाव है।

 

इंडिया

1.कांग्रेस, 2.शिवसेना (उद्धव), 3.तृणमूल, 4.जेडीयू, 5.राकांपा, 6.डीएमके, 7.माकपा, 8.भाकपा, 9.सपा, 10.भायू मुस्लिम लीग, 11.आआप, 12.नेशनल कांफ्रेंस, 13.पीडीपी, 14.झामुमो, 15.केरल कांग्रेस (मणि), 16.केरल कांग्रेस, 17.वीसीके, 18.रालोद, 19,राजद, 20.आरएसपी, 21,भाकपा (माले), 22.अपना दल (क), 23.फॉरवर्ड ब्लॉक, 24,एमएमके, 25.केएमडीके, 26.एमडीएमके, 27.शेतकरी कामगार पक्ष।

अकाली दल भी बैठकों में शामिल हो रहा है, पर उसके औपचारिक रूप से शामिल होने की सूचना नहीं है। बीआरएस इसमें नहीं है। तेलंगाना में उसका कांग्रेस से मुकाबला है और भूमिका रहस्य के घेरे में। 

  

गुट-निरपेक्ष

1.बीजू जनता दल, 2.वाईएसआर कांग्रेस, 3.बसपा, 4.अद्रमुक, 5.तेदेपा



 विश्ववार्ता में प्रकाशित

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