करीब आठ महीने पहले सुरेश पंत की पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ’ का आगमन हुआ था, जिसने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। उस किताब के दूसरे, तीसरे और चौथे भाग की जरूरत बनी रहेगी। शब्द-सागर की गहराई अथाह है और उसमें गोता लगाने का आनंद अलग है। शब्दों के करीब जाने पर तमाम रोचक बातें जानकारी में आती हैं। उन्होंने अपनी नवीनतम पुस्तक ‘भाषा के बहाने’ में शब्दों से कुछ आगे बढ़कर भाषा से जुड़े दूसरे मसलों को भी उठाया है। इस अर्थ में यह किताब पाठक को शब्दों के दायरे से बाहर निकाल कर भाषा-संस्कृति के व्यापक दायरे में ले जाती है।
संस्कृति, सभ्यता और
समाज के विकास की धुरी भाषा है। हालांकि जानवरों और पक्षियों की भाषाएं भी होती
हैं, पर मनुष्यों की भाषाओं की बराबरी कोई दूसरा प्राकृतिक संवाद-तंत्र नहीं कर
सकता। अमेरिकी भाषा-शास्त्री रे जैकेनडॉफ (Ray Jackendoff) के अनुसार हमारी भाषाएं अनगिनत विषयों, जैसे मौसम, युद्ध, अतीत, भविष्य, गणित, विज्ञान, गप्प वगैरह, से जुड़ी हैं। इसका सूचना और ज्ञान
के प्रसार, संग्रह, मंतव्यों के प्रकटीकरण, प्रश्न करने
और आदेश देने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
इंसानी भाषाओं में चंद
दर्जन वाक् ध्वनियों से लाखों शब्द बनते हैं। इन शब्दों की मदद से वाक्यांश
और वाक्य गढ़े जाते हैं। विलक्षण बात यह है कि सामान्य बच्चा भी बातें सुनकर भाषा
के समूचे तंत्र को सीख जाता है। भाषा या संवाद सांस्कृतिक और राजनीतिक-पृष्ठभूमि को
भी व्यक्त करते हैं। दूसरी तरफ जानवरों के संवाद तंत्र में मात्र कुछ दर्जन
अलग-अलग ध्वनियां होती हैं। इन ध्वनियों को वे केवल भोजन, धमकी, खतरा या समझौते जैसे फौरी मुद्दों को प्रकट करने के लिए
कर सकते हैं। इस लिहाज से मनुष्यों की भाषा की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक-भूमिकाओं
का आकाश बहुत विस्तृत है।
इस पुस्तक में पंत जी ने ‘भाषा के बहाने’ कई प्रकार के विषयों को उठाया है। सभी विषय भाषा से सीधे नहीं भी जुड़े हैं, तो उन्हें जोड़ा जा सकता है। उन्होंने किताब की प्रस्तावना में लिखा है, ‘भाषा के बहाने उठाए गए विषयों का काल-क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत है। समय-समय पर लिखे गए कुछ लेख भी इस पुस्तक में स्थान पा गए हैं।…हिंदी के बहुत से रोचक पहलुओं पर भी कलम चली है-गाली से लेकर आशीर्वाद तक, ठग से ठुल्ला तक, शिक्षण से पत्रकारिता तक, किसान से राष्ट्रपति तक, गू से गुएँन तक, केदारनाथ से एवरेस्ट तक अनेक विषयों पर चर्चाएं इस पुस्तक में मिल जाएँगी। कुछ कहावतें, कुछ विश्वास, कुछ मसले, कुछ चिंताएँ और कुछ दिशाएँ।’ इस लिहाज से कुछ अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई सामग्री भी है, जिसे सधे हाथों से तरतीब दी गई है। पुस्तक में 80 छोटे-छोटे अध्यायों के अलावा दो परिशिष्ट हैं। एक में कुछ परिभाषाएं हैं और दूसरे में संदर्भ पुस्तकों की सूची।
शब्दों या गद्यांश के प्रयोग
की दृष्टि किताब में तीन चौथाई से ज्यादा सामग्री रोचक विषयों से जुड़ी है। पहला
आलेख है दक्षिण भारत में चलने वाले ‘अइयो’ से। लेखक के
अनुसार आप चाहें तो संपूर्ण दक्षिण भारत और श्रीलंका को ‘अइयो क्षेत्र’ कह सकते हैं। किसी भी वार्तालाप में कई बार ‘अइयो’ शब्द सुनाई पड़ेगा।
इस आश्चर्य बोधक शब्द का इस्तेमाल कई प्रकार के तात्कालिक भावनात्मक उद्वेगों में
होता है। इसके साथ जुड़ी कथाएं हैं, सो अलग। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उससे
जुड़े हरियाणा के इलाकों में व्यवहृत कंगे/किंगे (किधर, कहाँ), उंगे (उधर, वहाँ),
इंगे (इधर, यहाँ) शब्द तमिळ के एंगे, इंगे, उंगे के समान ही लगते हैं, रचना और
अर्थ दोनों में। इसके साथ ही किताब में हिंदी कुछ अन्य बोलियों और भाषाओं में स्थानवाची
क्रियाविशेषणों के लिए चलने वाले शब्दों को गिनाया गया है, जिनका भाषा-शास्त्रीय
अध्ययन भी होना चाहिए। कुछ ऐसा ही इन्होंने और उन्होंने के स्थान पर इनने, उनने के
इस्तेमाल के साथ है।
अंग्रेजी में स्लैंग या लिंगो से जुड़े अनेक शब्दकोश
हैं, पर हिंदी में गाली या अपशब्दों का विवेचन करने से हम झिझकते हैं। पंत जी ने
अपनी पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ’ में कुछ टैबू
शब्दों का ज़िक्र किया था। ऐसे शब्द, जो पूरे देश में टैबू
माने जाते हैं। कुछ ऐसे शब्द हैं, जो किसी इलाके में
टैबू या अटपटे हैं और दूसरे इलाके में स्वीकार्य। ‘भाषा के बहाने’ में भी उन्होंने ‘अपशब्द और
जातीय गालियाँ’ तथा ‘गाली चर्चा’ शीर्षकों से
कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं। समाजशास्त्र और मनोभाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह विषय
गंभीर चर्चा माँगता है। स्त्रियों पर केंद्रित गालियों को लेकर हाल के वर्षों में
गंभीर साहित्य लिखा भी गया है।
‘उल्लू सीधा करना’ और ‘कुछ कहावत
कथाएं’ शीर्षक से दो लेख मुहावरों और लोकोक्तियों
के पीछे की कहानियों पर रोशनी डालते हैं। ये विषय अपने आप में व्यापक अध्ययन
माँगते हैं और इन कथाओं के कोश किसी को तैयार करने चाहिए। जैसाकि पंत जी ने
प्रस्तावना में खुद लिखा है कि विविध विषयों-उपविषयों और अवसरों पर उन्होंने जो
कुछ लिखा वह बिखरा पड़ा है। इनके प्रकाशन की कोई योजना नहीं बनाई।
अलबत्ता इस पुस्तक में
कुछ ऐसे लेख हैं, जो बड़े प्रबंध या पुस्तक का विषय हैं। मसलन ‘उत्तराखंड की भाषाएं और उनका मानकीकरण’ इसी से मिलता-जुलता एक और आलेख है, ‘कुमाउँनी में वर्षा से संबंधित अभिव्यक्तियाँ’, एक और आलेख, ‘लोकभाषाओं में
वैज्ञानिक संकल्पनाएं।’ इनकी सामग्री इस बात की ओर इशारा करती है
कि पंत जी उत्तराखंड की भाषाओं पर अलग से पुस्तक लिख सकते हैं। वे नेपाली के
जानकार भी हैं, इसलिए वे उपयोगी पुस्तक लिख सकते हैं, बहरहाल।
इन सबके बीच कुछ आलेख कुछ
अलग, पर पठनीय हैं। ‘काश केदारनाथ’, ‘किसान आंदोलन
के शब्द’, ‘तमिलनाडु में
हिंदी विरोध’, ‘देसी शब्दों
को लीलती अंग्रेजी’, ‘मीडिया: आलोचना और आत्मावलोकन’, ‘मीडिया की
भाषा’, ‘रोजगारपरक
शिक्षा का माध्यम हिंदी’, ‘उर्दू और हिंदी-अद्वैत में द्वैत’ और
‘हिंदी-विरोध की रस्म’ ऐसे कुछ अध्याय हैं, जिनकी
प्रकृति कुछ फर्क है, पर वे पठनीय और विचारणीय हैं। दो और अध्यायों का उल्लेख करना
समीचीन होगा। एक है, ‘मोदी जी का भाषा को योगदान’ और
‘क्या हम नकसुरे हो रहे हैं।’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
ने राजभाषा हिंदी को बढ़ावा देने का काम किया है और देश-विदेश में वे प्रायः हिंदी
में ही बोलते हैं। पर उनके नए कार्यक्रमों में अंग्रेजी का इस्तेमाल विसंगति भी पैदा
करता है, पर वह रोचक भी है। मसलन मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप
इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, वोकल फॉर लोकल वगैरह। ब्रेन ड्रेन के जवाब में उन्होंने
ब्रेन गेन शब्द दिया। मोदी जी गुजराती भाषी हैं, उनके उच्चारण में उनकी मातृभाषा का
प्रभाव है। व को ब या ह्रस्व इकार और उकार की जगह दीर्घ का इस्तेमाल। यह सहज है।
संबोधन में मित्रों और भाइयों-बहनों कहना वगैरह। संबोधन में अनुस्वार का इस्तेमाल
हिंदी भाषी भी कर रहे हैं। इसी पर उन्होंने लिखा है, ‘क्या हम नकसुरे
हो रहे हैं।’
पंत जी से मेरा परिचय सोशल मीडिया के मार्फत हुआ है। शब्दों और भाषा (या भाषाओं) के प्रति उनका अनुराग जबर्दस्त है। भाषा के बहाने नाम से वे एक ब्लॉग भी लिखते हैं। सोशल मीडिया पर अपने पाठकों की जिज्ञासा को जिस रोचक तरीके से वे शांत करते हैं, उसे देखकर खुशी होती है। विषय के निर्वहन में उनकी सरलता, उनके व्यक्तित्व की सरलता को भी व्यक्त करती है। उनके ज्यादातर आलेख उन रम्य-रचनाओं की याद दिलाता है, जिनकी परिकल्पना कभी अखबारों के मिडिल (अधबीच) के रूप में की गई थी। हिंदी अखबारों ने ‘मिडिल’ को गंभीरता से नहीं लिया और उन्हें हास्य-व्यंग्य के कॉलम के रूप में छापते रहे। पंत जी ने छोटे-छोटे आलेख लिखे हैं, जो अपने आकार के कारण भले ही छिपे रहे हों, पर प्रभाव में काफी ताकतवर हैं। पुस्तक न केवल नई, बल्कि हरेक पीढ़ी के लिए पठनीय और संग्रहणीय है। छपाई और रूपांकन के लिहाज से पुस्तक सुंदर है और मुद्रण-दोषों से मुक्त भी।
भाषा के बहाने
लेखक: सुरेश पंत
प्रकाशक: नवारुण, सी-303, जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर-9, वसुंधरा,
ग़ज़ियाबाद-201012 (उत्तर प्रदेश)
पृष्ठ: 194,
मूल्य: 290 रुपये
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