तमिलनाडु, आंध्र और कर्नाटक में घरों में सीढ़ीनुमा स्टैंड पर गुड्डे-गुड़ियों जैसी छोटी-छोटी प्रतिमाएं सजाई जाती हैं। इन प्रतिमाओं में देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं के पात्रों, दशावतार के अलावा सामान्य स्त्री-पुरुषों, बच्चों, पालतू जानवरों और वन्य-प्राणियों की छोटी-छोटी मूर्तियाँ सजाई जाती हैं। इसके साथ ही देवी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की गुड़ियों के साथ मारापाची बोम्मई नामक लकड़ी की गुड़िया इस परंपरा का खास हिस्सा होती हैं। देश के संतों और नायकों की मूर्तियां स्थापित होती हैं। ऐसी उम्मीद की जाती है कि हर साल एक नई गुड़िया इसमें शामिल की जाएगी। यह संकलन पीढ़ी-दर-पीढ़ी समृद्ध होता जाता है। इस मौके पर लोग एक-दूसरे के घर में गोलू देखने जाते हैं। महिलाएं गीत गाती हैं। तमिल में गोलू या कोलू का मतलब है ‘दिव्य-उपस्थिति’, तेलुगु में बोम्माला कोलुवु का अर्थ है ‘खिलौनों का दरबार’, कन्नड़ में बॉम्बे हब्बा का अर्थ है ‘गुड़ियों का महोत्सव।’ अब इनमें नए-नए विषय जुड़ते जा रहे हैं। जैसे कि चंद्रयान, फिल्म अभिनेता पुनीत राजकुमार और सुपरस्टार रजनीकांत, कार्टून चरित्र डोरेमोन और नोबिता वगैरह-वगैरह।
उत्तर के टेसू
उत्तर भारत में और खासतौर से ब्रज के इलाके में शारदीय नवरात्र के दौरान शाम को टेसू और झाँझी गीत हवा में गूँजते हैं। लड़के टेसू लेकर घर-घर जाते हैं। बांस के स्टैण्ड पर मिट्टी की तीन पुतलियां फिट की जाती हैं। टेसू राजा, दासी और चौकीदार या टेसू राजा और दो दासियां। बीच में मोमबत्ती या दिया रखा जाता है। जनश्रुति के अनुसार टेसू प्राचीन वीर है। पूर्णिमा के दिन टेसू तथा झाँझी का विवाह भी रचाया जाता है। सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर अब तक भारत में उत्तर से दक्षिण तक मिट्टी और लकड़ी के खिलौने और बर्तन जीवन और संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनके समानांतर कारोबार चलता है, जो आमतौर पर गाँव और खेती से जुड़ा है। इसके पहले कि ये कलाएं पूरी तरह खत्म हो जाएं हमें उनके ने संरक्षकों को खोजना चाहे। देश और विदेश में मिट्टी के इन खिलौनों को संरक्षण देने वाले काफी लोग हैं। जरूरत है उन तक माल पहुँचाने की।
मिट्टी के खिलौने
प्रेमचंद की कहानी ईदगाह में आपने मिट्टी के
खिलौनों का जिक्र पढ़ा। मिट्टी और लकड़ी के खिलौने इन पर्वों से जुड़े हैं। छत्तीसगढ़
में खेती-किसानी से जुड़ा त्योहार है पोला। भाद्र पक्ष की अमावस्या को यह त्योहार
मनाया जाता है। पोला के कुछ ही दिनों के भीतर तीजा मनाया जाता है। विवाहित
स्त्रियाँ पोला त्योहार के मौके पर अपने मायके में आती हैं। हर घर में पकवान बनते
हैं। इन्हें मिट्टी के बर्तनों, खिलौनों भरते हैं ताकि बर्तन हमेशा
अन्न से भरा रहे। बच्चों को मिट्टी के बैल, मिट्टी
के खिलौने मिलते हैं। पुरुष अपने पशुधन को सजाते हैं, पूजा
करते हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं। मिट्टी के बैलों
को लेकर बच्चे घर-घर जाते हैं जहाँ उन्हें दक्षिणा मिलती है। ऐसे पर्वों को आप
किसी दूसरे रूप में किसी दूसरे इलाके में देख सकते हैं।
गणेश पूजा
गणेश चतुर्थी के मौके पर उत्तर भारत में भी
घरों में गणेश प्रतिमा स्थापित करने का चलन बढ़ रहा है। दिल्ली के महत्वपूर्ण
इलाकों, खासतौर से राजमार्गों के किनारे फुटपाथों पर
बिकने वाली गणेश प्रतिमाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। परंपरागत कुंभकारी को
आधुनिक प्लास्टर ऑफ पेरिस के साँचों और पेंट की मदद से नई परिभाषा देने का मौका
मिल रहा है। परंपरागत दस्तकारी पर्यावरण-मित्र थी, पर
उसके आधुनिक संस्करण के बारे में दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता। गणेशोत्सव और
नवरात्रि के बाद प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी प्रतिमाएँ नदियों में विसर्जन के काफी
समय बाद तक पानी में घुलती नहीं हैं। इन्हें आकर्षक बनाने के लिए लगे रासायनिक
रंगों के साथ भी यही बात है। इनका असर पानी के स्रोत और जीव–जंतुओं पर भी पड़ता है।
चीनी लड़ियाँ
जाने-अनजाने दीपावली की रात आप अपने घर में
एलईडी के जिन नन्हें बल्बों से रोशनी करने वाले हैं उनमें से ज्यादातर चीन में बने
होंगे। वैश्वीकरण की बेला में हमें इन बातों के निहितार्थ और अंतर्विरोधों को
समझना चाहिए। दीपावली के मौके पर बाजारों में भारतीय खिलौने कम होते जा रहे हैं।
उनकी जगह चीन में बने खिलौने ले रहे हैं। बात केवल खिलौनों तक सीमित नहीं है।
भारतीय बाजार की जरूरतों को समझ कर माल तैयार करना और उसे वाजिब कीमत पर उपलब्ध कराना
व्यावसायिक सफलता है। हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की परंपरागत
उद्यम-भावना कमजोर नहीं है। उसे उचित दिशा और थोड़ा सा सहारा चाहिए और जोखिमों से
निपटने वाली मशीनरी भी। गरीब उद्यमी को इंश्योरेंस का सहारा नहीं मिलता।
हिंदी ट्रिब्यून के 22 अक्तूबर, 2023
के रविवारीय परिशिष्ट लहरें में प्रकाशित
वाह सुन्दर |
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