Tuesday, October 10, 2023

फलस्तीन में हिंसा पर बदलता भारतीय-दृष्टिकोण


हमास के हमले को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान सोशल मीडिया पर जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि इसराइल में आतंकवादी हमलों की खबर से गहरा धक्का लगा है. हमारी संवेदनाएं और प्रार्थनाएं निर्दोष पीड़ितों और उनके परिवारों के साथ हैं. हम इस कठिन समय में इसराइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं. इस वक्तव्य के जवाब में भारत में इसराइल के राजदूत नाओर गिलोन ने भारत को धन्यवाद कहा है.

भारत की तुरत-प्रतिक्रिया और इसराइली जवाब दोनों बातों का प्रतीकात्मक महत्व है. आमतौर पर ऐसे मसलों पर भारत फौरन अपनी राय व्यक्त नहीं करता है. प्रधानमंत्री ने संभवतः यह बयान वक्त की नज़ाकत को देखते हुए जारी किया है. उनके बयान की दो बातें ध्यान खींचती हैं. एक आतंकवादी हमला और दूसरे इसराइल के साथ एकजुटता. इन दोनों बातों के राजनीतिक निहितार्थ हैं और इनसे बदलता भारतीय दृष्टिकोण भी व्यक्त होता है.

प्रधानमंत्री ने हमास का नाम नहीं लिया है, पर निर्दोष पीड़ितों और उनके परिवारों के प्रति हमदर्दी व्यक्त करके स्पष्ट कर दिया है कि वे इस हमले को अनुचित मानते हैं. इसराइल में भारतीय दूतावास ने अपने देश के नागरिकों के लिए सुरक्षा सम्बंधित एडवाइजरी जारी की है. जिसके तहत उनसे कहा गया है कि वे हमले की जगह से दूर सुरक्षा बंकरों में रहें. कोई भी भारतीय नागरिक घर से बाहर निकलकर यहाँ-वहाँ न घूमे, बल्कि सुरक्षा सुनिश्चित करने में रक्षा मंत्रालय का सहयोग करे.

इसराइल से रिश्ते

इस त्वरित प्रतिक्रिया के राजनीतिक निहितार्थ हैं. भारत आई2यू2 का सदस्य है और इसराइल तथा अरब देशों के रिश्तों में सुधार का पक्षधर है. इसके अलावा हाल में घोषित भारत-पश्चिम एशिया कॉरिडोर की सफलता भी अरब देशों और इसराइल के रिश्तों में सुधार पर टिकी है.

फिर भी ज्यादा गहराई से बात तब स्पष्ट होगी, जब विदेश मंत्रालय का आधिकारिक बयान सामने आएगा. विदेश मंत्रालय की ओर से अभी तक आधिकारिक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की गई है, जो काफी सोच-विचार के बाद जारी होगी.

अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के पहले भारत को मुस्लिम देशों के साथ अपने रिश्तों और भारतीय जन-मानस की प्रतिक्रिया को भी ध्यान में रखना होता है. यानी कुल मिलाकर हमारे राष्ट्रीय-हित सर्वोपरि होते हैं.

जनता की प्रतिक्रिया

भारतीय नागरिकों को उन तस्वीरों ने विचलित भी किया है, जो शुरू में आई हैं. खासतौर से इसराइली महिला सैनिक के नग्न-शरीर की तस्वीर को देखकर लोगों ने कड़ी-प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं.

जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी शाह फैज़ल के ट्वीट से भारतीय जन-मानस के विचार को समझा जा सकता है. उन्होंने लिखा है कि भारतीय मुसलमानों ने कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया है. मानवता मज़हब से ऊपर है और आतंकवाद ने कभी किसी की मदद नहीं की, इसलिए यह फलस्तीन की भी मदद नहीं करेगा.

भारत को इसराइल में रहने वाले अपने नागरिकों की चिंता भी है. वहाँ करीब 18 हजार भारतीय रहते हैं. वहाँ करीब 85 हजार भारतीय मूल के यहूदी भी रहते हैं, जो इसराइल बनने के बाद वहाँ गए हैं.

हमास और फतह

फलस्तीनियों के दो गुटों, अल-फतह और हमास में भी भारत फर्क करता है. हमारे रिश्ते महमूद अब्बास के अल-फतह गुट के साथ अच्छे हैं. पश्चिमी देश भी उन्हें ही मान्यता देते हैं.

मई 2021 में जब हमास ने इसराइल पर रॉकेटों से हमले किए थे और उसके जवाब में इसराइल ने कार्रवाई की थी, तब संयुक्त राष्ट्र में भारत के दूत टीएस तिरुमूर्ति ने कहा था कि भारत हर तरह की हिंसा की निंदा करता है.

उस वक्त इसराइली कार्रवाई और हमस के हमले दोनों को रोकने की अपील भारत ने की थी. अलबत्ता भारत ने गज़ा पट्टी से हो रहे रॉकेट हमलों की निंदा भी की थी. भारतीय दूत ने कहा था कि तत्काल तनाव घटाना समय की माँग है, ताकि स्थिति न बिगड़े और नियंत्रण से बाहर न हो जाए.

भारतीय रुख

उस समय भारत में काफी लोग बिन्यामिन नेतन्याहू के एक ट्वीट का हवाला दे रहे थे, जिसमें उन 25 देशों को धन्यवाद दिया गया था, जिन्होंने इसराइली रुख का समर्थन किया था.

नेतन्याहू ने अपने ट्वीट में सबसे पहले अमेरिका, फिर अल्बानिया, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, ब्राज़ील, कनाडा, कोलंबिया, साइप्रस, जॉर्जिया, जर्मनी, हंगरी, इटली, स्लोवेनिया और यूक्रेन समेत कुल 25 देशों का ज़िक्र किया. इन देशों में भारत का नाम नहीं था.

वस्तुतः भारत ने इसराइली कार्रवाई का समर्थन किया भी नहीं. भारत ने दोनों पक्षों से हिंसा रोकने की अपील की थी. साथ ही भारत ने यह भी कहा कि हम ‘टू-स्टेट समाधान’ के पक्ष में हैं.

भारतीय प्रतिनिधि ने हिंसा के पीछे यरूशलम के घटनाचक्र का जिक्र भी किया था. भारत मानता था कि हालात केवल 10 मई को हमस के रॉकेट-प्रहार से ही नहीं बिगड़े.

परिस्थितियों में अंतर

तब की परिस्थितियों में और इसबार के हालात में फर्क हैं. इसबार इसराइली कार्रवाई अकारण और एकतरफा नहीं है. यों भारत फलस्तीन का खुला समर्थन करता रहा है, जिसकी राजधानी पूर्वी यरूशलम होनी चाहिए. पर 2017 के बाद से इसराइल के साथ उसके रिश्तों में काफी सुधार आया है.

2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फलस्तीन प्राधिकरण के राष्ट्रपति महमूद अब्बास के साथ खड़े होकर कहा था कि हम स्वतंत्र और समृद्ध फलस्तीन की स्थापना के पक्ष में है, जिसका अस्तित्व इसराइल के साथ शांतिपूर्ण तरीके से बना रहे.

यहाँ पर ध्यान देने की जरूरत है कि यह बयान महमूद अब्बास के साथ बातचीत के बाद दिया गया था, पर इन दिनों इसराइल का टकराव हमास से है, जो राजनीतिक दृष्टि से महमूद अब्बास के ग्रुप अल-फतह का विरोधी है.

भारतीय संशय

इसराइल को लेकर भारतीय दृष्टि अंतर्विरोधों की शिकार रही है. इस बात को लेकर बहस है कि महात्मा गांधी ने इसराइल का समर्थन किया था या नहीं. सन 1938 के उनके इस लेख से इतना जरूर पता लगता है कि वे चाहते थे कि यहूदी लोग बंदूक के जोर पर इसराइल बनाने के बजाय अरबों की सहमति से अपने वतन वापस आएं.

व्यावहारिक सच यह भी है कि इस लेख के लिखे जाने के कुछ साल बाद वे धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान को रोक नहीं पाए. जिस आधार पर वे इसराइल बनने का विरोध कर रहे थे, उसी आधार पर 1947 में पाकिस्तान बना था.

14 मई 1948 को इसराइल ने अपनी स्थापना की घोषणा की थी. जब संयुक्त राष्ट्र संघ में इसराइल और फलस्तीन दो देश बनाने का प्रस्ताव पेश हुआ था, तो भारत ने इसके खिलाफ वोट दिया था. संयुक्त राष्ट्र में इस योजना के पक्ष में 33 वोट पड़े और विरोध में 13 जबकि 10 देश वोटिंग से गैरहाजिर रहे.

तब जवाहरलाल नेहरू फ़लस्तीन के बंटवारे के ख़िलाफ़ थे. नेहरू को प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने चार पेज का पत्र लिखकर नेहरू से समर्थन माँगा था और समर्थन में वोट देने की अपील की थी. आइंस्टाइन की बात को नेहरू ने स्वीकार नहीं किया था.

उस विरोध के बावजूद भारत ने 17 सितंबर, 1950 को इसराइल को संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता दी. ऐसा करने के बाद भी भारत और इसराइल के बीच राजनयिक संबंध लंबे समय तक नहीं रहे. भारत ने 1992 में राजनयिक स्थापित किए. यह तब हुआ जब भारत में पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने.

जनवरी 1992 में जब भारत ने तेल अवीव में अपना दूतावास स्थापित किया, दुनिया बदल रही थी. सोवियत संघ का विघटन हो चुका था और 1990 के खाड़ी युद्ध के बाद से पश्चिम एशिया में सत्ता संतुलन बदल रहा था. कुवैत पर इराकी कब्जे का समर्थन करके फलस्तीनी मुक्ति संगठन ने अरब देशों के साथ रिश्ते बिगाड़ लिए थे. 

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

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