पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के कारण देश के उदारमना लोगों के मन में दहशत है। विचार अभिव्यक्ति के सामने खड़े खतरे नजर आने लगे हैं। पिछले तीन साल से चल रही असहिष्णु राजनीति की बहस ने फिर से जोर पकड़ लिया है। हत्या के फौरन बाद मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में खासतौर से दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार को कोसना शुरू कर दिया। दूसरी ओर कुछ लोग सोशल मीडिया पर अभद्र तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर कर रहे हैं।
हम
आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी बुनियाद में उदारता को होना चाहिए। कट्टरपंथी
समाज आधुनिक नहीं हो सकता। सवाल केवल गौरी लंकेश की हत्या का नहीं है। हमारे
बौद्धिक विमर्श की दिशा क्या है? इस हत्या के
बाद हमारी साख और घटी है। सवाल यह है कि क्या यह भारतीय जनता पार्टी और उसके
हिंदुत्व एजेंडा की देन है? क्या यह हत्या
कर्नाटक में कुछ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से जुड़ी तो नहीं है? कर्नाटक में कांग्रेस
पार्टी की सरकार है। वह इस हत्याकांड का पर्दाफाश क्यों नहीं करती?
सन 2014 में बीजेपी की सरकार आने के पहले से देशी-विदेशी पत्रकारों का एक तबका खुलेआम मोदी सरकार के खिलाफ खड़ा है। साप्ताहिक पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने साफ-साफ मोदी को हराने की अपील की थी। इसी तरह दैनिक अख़बार ‘गार्डियन’ ने कुछ लेखकों, विचारकों और अकादमीशियनों के पत्र और लेख छाप कर मोदी की जीत को हर कीमत पर रोकने की अपील की थी। मुम्बई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज के प्रधानाचार्य ने छात्रों को ई-मेल भेजकर ऐसी ही अपील जारी की। क्या यह सब सहज और स्वाभाविक था?
सन 2014 में मोदी सरकार को मिली विजय से भी कहानी खत्म
नहीं हुई। सरकार बनने के बाद से ही गोरक्षा और गोमांस को लेकर लगातार कोई न कोई
विवाद उठता रहता है। मोदी समर्थकों की जहरीली बातें आए दिन सुनाई पड़ती हैं। पर यह
एकतरफा नहीं है। उत्तर प्रदेश के दादरी में गोमांस को लेकर एक व्यक्ति की हत्या के
बाद पुरस्कार वापसी का एक अभियान शुरू हुआ। उस अभियान के स्वर राजनीतिक थे।
पुरस्कार वापसी को लेकर लेखकों के अलग-अलग संदर्भ थे, पर
इनका प्रस्थान बिन्दु नरेंद्र दाभोलकर, गोविन्द
पानसरे और प्रो कालबुर्गी की हत्याओं से जुड़ा था। गौरी लंकेश भी उस अभियान से
जुड़ी थीं। पर हत्याएं केवल चार नहीं हुईं। ये चार हत्याएं सूत्रबद्ध हैं। हमें
विचार और अभिव्यक्ति से जुड़ी सभी हत्याओं का विश्लेषण करना चाहिए। कहना मुश्किल
है कि पुरस्कार वापसी और उसका जवाबी अभियान चलाने वालों ने देश की जनता के मन को कितना
पढ़ा है। अभिव्यक्ति के खतरों से जनता वाकिफ है भी या नहीं। ज्यादातर लेखकों की
पहुँच उस जनता तक है भी या नहीं, जिसके पक्ष में वे खड़े नजर आते हैं। एक कट्टरता के जवाब में दूसरी कट्टरता खड़ी हो रही है। हर कट्टरता खुद को सही मानती है।
असहिष्णुता के हंगामे में अक्सर एक शब्द बार-बार उछलता
है। वह है ‘हिंदुत्व।’ हिंदू, हिंदुत्व और बीजेपी क्या समानार्थी
हैं? नहीं भी रहे होंगे, तो धीरे-धीरे होते जा
रहे हैं। जाने-अनजाने बीजेपी के राजनीतिक हिंदुत्व का विरोध करने वाली राजनीति
सामान्य हिंदू को दुश्मन बना रही है। बीजेपी के बढ़ते विस्तार के पीछे के कारणों को समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। हाल में हमने तीन तलाक पर बहस देखी। अब म्यांमार
के रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर जो बहस है, वह भी हिंदुत्व की बहस में बदलेगी, जबकि उसका इससे कोई रिश्ता नहीं है। सारी
बहसें ऑब्जेक्टिविटी खो रही हैं।
लेखकों के पुरस्कार वापसी अभियान से सामाजिक माहौल में
किसी किस्म का सुधार नहीं हुआ, बल्कि बिगड़ा और बीजेपी ने फायदा उठाया। इसमें देश
की समूची चुनावी-राजनीति का योगदान है। यह राजनीति हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों को
कुरेद-कुरेद कर बढ़ा रही है। बीजेपी को काउंटर करने के लिए विरोधी दलों ने हिंदू
जातीय अंतर्विरोधों का फायदा उठाने की कोशिश की। इसपर बीजेपी ने जातियों के भीतर
के अंतर्विरोधों को खोज लिया है।
लगता यह है कि सन 2019 के चुनाव तक यह चलेगा और शायद
उसके बाद भी। दुनियाभर में लेखक सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं। हमारे यहाँ
भी उन्हें आगे आना चाहिए, पर उनके पास क्या संदेश है? कौन सा लेखक ऐसा है, जिसकी आवाज जनता सुने? गौरी लंकेश की हत्या का समर्थन कौन कर सकता
है? जो उनकी हत्या का जश्न मना रहे हैं, वे गलत
हैं।
कर्नाटक सरकार को जल्द से जल्द हत्यारों का पता लगाना
चाहिए। पुलिस सूत्रों ने खबर उड़ाई कि इस हत्या में भी ऐसे ही हथियार का इस्तेमाल किया गया, जिनसे गोविंद पानसरे, एमएम कालबुर्गी और नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की
गई थी। यह लीक राजनीतिक है। उनकी हत्या 7.65 बोर के देसी कट्टे से की गई है, जो
आमतौर पर हत्याओं में इस्तेमाल होता है।
कर्नाटक में अगले कुछ महीनों बाद विधानसभा चुनाव होने
वाले हैं। पिछले कुछ समय से वहाँ कन्नड़ को बढ़ावा देने के बहाने हिंदी-विरोधी
आंदोलन चलाया जा रहा है। इसके साथ लिंगायत को अलग धर्म बनाने का आंदोलन भी है।
चुनाव के पहले की भावना-भड़काऊ राजनीति का दौर चल रहा है। सच है कि गौरी लंकेश की आलोचना के घेरे में केंद्र सरकार और
भाजपा की नीतियां थीं, पर इस हत्या से बीजेपी को क्या फायदा होगा? फौरी निष्कर्ष निकालने के बजाय साक्ष्यों पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
गौरी
लंकेश की विचार-दृष्टि नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद
पानसरे और एमएम कालबुर्गी जैसी थी। इन सभी हत्याओं में मकसद एक हो सकता है,
हत्यारे भी एक हो सकते हैं। पर यह अनुमान है, अंतिम निष्कर्ष नहीं। गौरी लंकेश को
किन समूहों की धमकियाँ मिल रहीं थीं, इसका पता तो आसानी से लग सकता है। धमकियाँ
मुँह जुबानी थीं, लिखित थीं या एसएमएस के रूप में थीं? जरूर
उनके दस्तावेजों, दोस्तों, संबंधियों वगैरह से जानकारी हासिल की जा रही होगी। इस
जाँच को जल्द होना चाहिए। हत्या क्यों की गई? सिर्फ इसलिए कि वे नापसंद थीं? या उनके सामाजिक प्रभाव को मिटाने के लिए उन्हें खत्म
किया गया? यह स्वतंत्र
पत्रकारिता के लिए घातक संदेश है या क्या है? कट्टरता है तो उसका उद्गम बिंदु क्या है?
8 सितंबर 2017 के राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पेज पर प्रकाशित
विचारणीय प्रश्न लेकिन उत्तर देगा कौन? फेसबुक की ही तरह समाज भी अपने अपने तर्कों के साथ बंटा हुआ है। कट्टरता दोनों तरफ है।
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