एकसाथ आई दो खबरों से ऐसा लगने लगा है कि अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है और
विकास के मोर्चे पर सरकार फेल हो रही है। इस मामले के राजनीतिक निहितार्थ हैं,
इसलिए शोर कुछ ज्यादा है। इस शोर की वजह से हम मंदी की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था के
कारणों पर ध्यान देने के बजाय उसके राजनीतिक निहितार्थ पर ज्यादा ध्यान दे रहे
हैं। कांग्रेस समेत ज्यादातर विरोधी दल नोटबंदी के फैसले को निशाना बना रहे हैं। इस
मामले की राजनीति और अर्थनीति को अलग करके देखना मुश्किल है, पर उसे अलग-अलग करके
पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।
बुनियादी रूप से केंद्र सरकार ने कुछ फैसले करके जो जोखिम मोल लिया है,
उसका सामना भी उसे करना है। बल्कि अपने फैसलों को तार्किक परिणति तक पहुँचाना
होगा। अलबत्ता सरकार को शाब्दिक बाजीगरी के बजाय साफ और खरी बातें कहनी चाहिए। जिस
वक्त नोटबंदी हुई थी तभी सरकार ने माना था कि इस फैसले का असर अर्थव्यवस्था पर
पड़ेगा, पर यह छोटी अवधि का होगा। इन दिनों हम जीडीपी में गिरावट के जिन आँकड़ों
पर चर्चा कर रहे हैं, वे नोटबंदी के बाद की दूसरी तिहाई से वास्ता रखते हैं। हो
सकता है कि अगली तिहाई में भी गिरावट हो, पर यह ज्यादा लंबी नहीं चलेगी।
अर्थव्यवस्था की सुस्ती की वजह केवल नोटबंदी नहीं है। ज्यादा बड़ी वजह
जीएसटी का जुलाई से लागू होना है। जीएसटी के कारण भी कुछ समय अर्थव्यवस्था के
पैरों को भँवर लपेटे रहेंगे। अच्छी बात यह है कि देश के राजस्व की स्थिति काफी
सुधरी है, जिसके कारण सरकारी पूँजी निवेश पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। सरकार
चूंकि राजस्व घाटे को लेकर काफी संवेदनशील है, इसलिए वह निवेश से हाथ खींचकर रखती
है। संभव है कुछ समय के लिए सरकार राजस्व घाटे के लक्ष्य की अनदेखी करे।
देश का सकल पूँजी निर्माण (जीएफसीएफ) बेहतर हो रहा है, पर निजी पूँजी निवेश
नहीं हो रहा है। विनिर्माण के क्षेत्र में गतिविधियों की जरूरत है। कोर सेक्टर और
खेती में बेहतर आसार हैं। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने इस वित्तीय वर्ष की पहली
तिहाई में जीडीपी की संवृद्धि दर गिरकर 5.7 फीसदी पर आने की सूचना दी है। यह इस
साल की पहली तिहाई की दर है, जो अगली तीन तिमाहियों में बढ़ेगी। बावजूद इसके इस
साल संवृद्धि सात फीसदी के पार जाने की उम्मीद नहीं है।
विपक्ष के निशाने पर तीन बातें हैं। नोटबंदी के कारण करीब 15 लाख लोगों का
रोजगार गया, लाइनों में लगे करीब दो सौ लोगों की मौत हुई और अर्थव्यवस्था में
गिरावट आने लगी। तीनों बातें आंशिक रूप से सही हैं, पर इसे पूरे देश ने देखा और
उसके आधार पर वह भविष्य में राजनीतिक फैसले करेगा। इन बातों के भावनात्मक
निहितार्थ भी हैं, जैसे दो सौ लोगों की मौतें। मौत तो एक भी हो, वह दुखदायी है।
पिछले साल नोटबंदी के समांतर तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता के स्वास्थ्य को
लेकर खबरें आ रही थी। उसी दौरान उनका निधन हो गया। जयललिता के निधन के कारण मरने
वालों की संख्या नोटबंदी की मौतों से कहीं ज्यादा थी। क्या आपने ध्यान दिया?
कैश की कमी से पहले तीन-चार महीने काफी लोगों का रोजगार गया। कितने लोगों
का गया, इसे लेकर अनुमान ही हैं, पर कैश की वापसी के बाद रोजगार वापस भी हुआ।
किसानों को बीज और खाद की किल्लत हुई। इन परेशानियों के कारण सरकार ने जो
अलोकप्रियता अर्जित की, वह राजनीति में ज्यादा बदल नहीं पाई। अन्यथा उत्तर प्रदेश
के चुनाव परिणाम ऐसे नहीं होते। विडंबना है कि हमारे पास ऐसे पैमाने नहीं हैं, जो
बताएं कि किस फैसले का क्या असर हुआ। ऐसा डेटा अब भी नहीं है, जो निर्णायक रूप से
नोटबंदी के लाभ-हानि को साबित कर सके। जो डेटा है, वह यह कि 99 फीसदी से ज्यादा
नोट वापस आए। दूसरा यह कि नोटबंदी के बाद पहली दो तिमाहियों में अर्थव्यवस्था के
विस्तार की गति धीमी हुई है।
संयोग है कि रिजर्व बैंक ने जिस वक्त नोटों की गिनती के बारे में बताया तभी
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने यह जानकारी दी कि इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही
में जीडीपी की संवृद्धि घटकर 5.7 फीसदी रह गई है, जो इससे पिछली तिमाही में 6.1
फीसदी थी और पिछले साल की इसी तिमाही में 7.9 फीसदी। पहली नजर में लगता है कि जीडीपी
में गिरावट नोटबंदी का परिणाम है, पर केवल नोटबंदी का परिणाम नहीं है। इसके समांतर
दो गतिविधियों पर और नजर रखने की जरूरत है।
विनिर्माण के जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडीशन) में गिरावट नोटबंदी की दो तिहाई
पहले से आ रही थी। दूसरे इस साल जुलाई से हमने जीएसटी लागू किया है, जिसके कारण
निर्माताओं ने पहले से अपना उत्पादन कम कर दिया था या रोक दिया था। वे जुलाई के
पहले अपने पुराने माल को बाजार में निकाल देना चाहते थे। इसके समांतर तीसरी
गतिविधि थोक मूल्य सूचकांक में लगातार आ रही गिरावट की है, जो जीडीपी में भी नजर
आती है।
पिछले साल हुई नोटबंदी के बाद तकरीबन 99 फीसदी प्रचलित नोट बैंक के पास
वापस आ गए हैं। जिनके पास काला धन था, उन्हें अपने नोट बदलने में सफलता मिली। यानी
कि नोटों को बदलने वाली मशीनरी सरकारी मशीनरी से ज्यादा तेज है। एक सच यह भी है कि
बड़ी संख्या में काला धन राजनीतिक दलों के पास था और अब भी है। जाहिर है कि वह अब
नए नोटों की शक्ल में होगा। नवंबर 2016 में ही नजर आने लगा था कि बैंक अफसरों,
वकीलों, चार्टर अकाउंटेंटों, सराफा व्यापारियों, हवाला कारोबारियों और मनी चेंजरों
का जबर्दस्त नेटवर्क देश में है। अर्थव्यवस्था तो इनसे ही चलती है। यह नेटवर्क
आजकल में नहीं बना है। बैंकों की कतारों में छोटे बच्चों को खड़ा करके नोट बदलवाने
की कला का विकास एक-दो रोज में नहीं हुआ है।
सरकार ने शुरू में कहा था कि ढाई से तीन लाख करोड़ रुपये तक के नोट शायद
वापस न आएं। इस तरह से रिजर्व बैंक सरकार को इतनी बड़ी रकम देती। पर हुआ इसका
उल्टा है। रिजर्व बैंक का लाभ कम हुआ है, क्योंकि नोट बदलने पर भी काफी राशि खर्च
हुई है। हालांकि सरकार कह रही है कि केवल काला धन जब्त करना हमारा उद्देश्य नहीं
था। इसके कारण बैंकिंग व्यवस्था में बदलाव, डिजिटल ट्रांजैक्शन का चलन और टैक्स
प्रणाली भी सुधरेगी। कैशलेस काम करने वालों को विशेष प्रोत्साहन मिलना चाहिए था,
जो मिला नहीं। बहरहाल इसके साथ ही जीएसटी लागू होने से टैक्स प्रणाली ढर्रे पर
आएगी।
ऐसा नहीं कि जिन लोगों ने नोट बदले, उन्होंने आसानी से यह काम कर लिया।
उनके सिस्टम में भी दरार आई है। बड़ी मात्रा में काला धन सरकारी रेडार में आया है।
मनी लाउंडरिंग से जुड़े कितने लोगों पर कार्रवाई होगी, इसका पता लगने में समय
लगेगा, क्योंकि सिस्टम के काम करने की भी एक स्पीड है। सरकारी प्रयासों के कारण
टैक्स से बचने की प्रवृत्ति में कमी आई है। प्रत्यक्ष कर संग्रह भी बढ़ा है। सवाल है कि नोटबंदी के
बगैर भी क्या यह काम नहीं हो सकता था? सरकार ने यह काम अच्छी तरह विचारकर किया
होता तो बेहतर परिणाम मिलते।
http://www.jansatta.com/sunday-column/dusri-nazar-p-chidambaram-article-about-demonetization-2/420448/
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