अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में राहुल गांधी ने पार्टियों में वंशवाद से जुड़े एक सवाल पर कहा कि पूरा देश ही इस रास्ते पर चलता है। उन्होंने इसके लिए अखिलेश यादव, डीएमके नेता स्टालिन से लेकर अभिनेता अभिषेक बच्चन तक के नाम गिनाए। यानी भारत में ज्यादातर पार्टियाँ वंशवाद पर चलती हैं, इसलिए हमें ही दोष मत दीजिए। अंबानी अपना बिजनेस चला रहे हैं और इन्फोसिस में भी यही चल रहा है।
राहुल गांधी ने तमाम सवालों के जवाब दिए। पर उनका उद्देश्य बीजेपी पर प्रहार करना था। उन्होंने कहा, देश ने बीते 70 साल में जितनी तरक्की हासिल की है, उसे सिर उठा रहे ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति रोकने का काम कर रही है। उदार पत्रकारों की हत्या की जा रही है, दलितों को पीटा जा रहा है, मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। अहिंसा का विचार खतरे में है।
उनकी बर्कले वक्तृता उन्हें राजनीतिक मंच पर लाने की अबतक की सबसे बड़ी कोशिश है। शायद वे जल्द ही पार्टी अध्यक्ष पद भी संभालें। सन 2004 में यानी अब से 13 साल पहले जब उन्हें लांच करने का मौका आया था, तब उनकी उम्र 34 साल थी। तब शायद यह लगा होगा कि उनके लिए समय उपयुक्त नहीं है। पर उसके बाद जब भी उन्हें लांच करने का मौका आया, उन्होंने खुद हाथ खींच लिए।
राहुल की यह अमेरिका यात्रा इस मायने में काफी महत्वपूर्ण है। बर्कले के बाद वे सिलिकन वैली में उद्यमियों से बात करेंगे, कैलिफोर्निया में नागरिक समाज के लोगों से और थिंक टैंक विशेषज्ञों से भी बातें करेंगे। वे वॉशिंगटन डीसी भी जाएंगे। सबसे अंत में वे 20 सितंबर को न्यूयॉर्क के मैरियॉट होटल में भारतीय समुदाय के 2000 चुनींदा सदस्यों से मुलाकात करेंगे। उनके साथ शशि थरूर और मिलिंद देवड़ा भी गए हैं।
राहुल गांधी का उद्देश्य अमेरिका में रहने वाले भारतीयों से संपर्क करने के अलावा ग्लोबल मीडिया और लीडरशिप के साथ संपर्क बनाने का भी है। भारतीय राजनीति में बने रहने के लिए उनके पास यह आखिरी मौका है। सन 2019 के चुनाव के पहले का आखिरी साल आ रहा है और उसके पहले अगले 15 महीनों में छह महत्वपूर्ण विधानसभाओं के चुनाव होने जा रहे हैं। तय है कि कांग्रेस पार्टी न तो राहुल गांधी को छोड़ सकती है और न नेहरू परिवार को। उसके सारे हानि-लाभ अब राहुल से जुड़े हैं। राहुल को लामुहाला वंश परंपरा का समर्थन करना ही होगा।
अब यह सवाल करने का वक्त नहीं बचा कि देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल खुद को बनाए रखने के लिए परिवार का सहारा क्यों लेता है। वह सबसे बड़ा इसलिए है क्योंकि आज भी भारत के सबसे बड़े इलाके में इसके उपस्थिति है। बहरहाल राहुल को अध्यक्ष बनाने का फैसला पार्टी ही करेगी, पर उनके इशारे पर। उनके मुकाबले कोई खड़ा होना नहीं चाहेगा। राहुल गांधी चाहते तो 2009 के बाद कभी भी प्रधानमंत्री बन सकते थे। आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति के लिए यह पारिवारिक व्यवस्था अटपटी है। पर यह स्वतंत्रता से पहले वाली कांग्रेस नहीं है। यह 1969 के बाद की कांग्रेस है।
राहुल की यह बात सही है कि ज्यादातर पार्टियों में खानदानी शासन है। अलबत्ता कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र एक हद तक कायम है। नेता का बेटा नेता, वकील का बेटा वकील और डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बने तो यह अस्वाभाविक नहीं। अस्वाभाविक है खानदान के आधार पर नेता तय होना। जैसे राजा-महाराजा होते थे। वंशवाद वहाँ है, जहाँ नेतृत्वकारी भूमिका वंश के आधार पर तय हो रही हो।
राहुल गांधी का बर्कले बयान वंश परंपरा से ज्यादा इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह राहुल गांधी के आगमन की तरफ इशारा कर रहा है। कांग्रेसी तुरुप का आखिरी पत्ता फेंका जा रहा है। राहुल ने बर्कले में कहा, मैं 2019 के आम चुनावों में पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ। पहली बार राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से ऐसी बात कही है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मेरी तरफ से इसे सार्वजनिक करना उचित नहीं है, क्योंकि पहले पार्टी को इसे मंजूर करना है। पर यह औपचारिकता है। वे अब उस द्वंद्व से बाहर निकल आए हैं, जो उन्हें रोक रहा था।
चुनाव आयोग के लगातार दबाव के बावजूद पार्टी के आंतरिक चुनाव टलते गए। अब पार्टी अध्यक्ष का चुनाव 15 अक्टूबर तक होना है। अब राहुल के अध्यक्ष बनने का इंतजार करना चाहिए। यों सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते उनका उपाध्यक्ष पद भी पार्टी प्रमुख का ही पद है, पर औपचारिकता के भी मायने होते हैं। पार्टी कार्यसमिति ने नवंबर 2016 की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर उनसे पार्टी की कमान संभालने का अनुरोध किया था। उस समय वरिष्ठ पार्टी नेता एके एंटनी ने कहा था कि राहुल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का यह सही समय है।
ऐसा नहीं कि यूपीए शासन के दौरान राहुल प्रशासनिक ताकत का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। कोई ताकत थी तभी तो उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के अध्यादेश को पत्रकारों के सामने फाड़कर फेंक दिया था। राहुल ने बर्कले में कश्मीर के संदर्भ में एक बात कही, जिसका वास्ता उनकी राजनीतिक-प्रशासनिक दृष्टि से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि मैंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और जयराम रमेश के साथ मिलकर नौ साल तक जम्मू-कश्मीर में शांति स्थापना पर काम किया। यानी सन 2004 से प्रशासन में वे सक्रिय थे।
राहुल मानते हैं कि सन 2012 के आसपास पार्टी में अहंकार आ गया। संवाद और विचार-विमर्श के जरिए फैसले करने की परंपरा खत्म होने लगी। राहुल गांधी का यह तंज सोनिया गांधी पर नहीं, बल्कि दूसरे बड़े नेताओं पर है। पूछा जा सकता है कि ऐसे में उन्होंने अपनी भूमिका को क्यों नहीं निभाया?
सन 2011 में जब देश में अन्ना हजारे का आंदोलन शुरू हो रहा था और सोनिया गांधी इलाज के लिए बाहर जा रहीं थीं, तब एक संभावना थी कि वे आगे बढ़कर नेतृत्व संभालते। वे आगे नहीं आए, केवल पीछे से काम करते रहे। सन 2013 में जब वे उपाध्यक्ष बनाए गए तब उन्होंने जयपुर के चिंतन शिविर में कहा, ‘बीती रात मेरी मां सोनिया गांधी मेरे पास आईं और कहा कि सत्ता जहर के समान है जो ताकत के साथ खतरे भी लाती है।’ यह उनका असमंजस बोल रहा था।
पिछले चार महीनों में पार्टी और अनुषंगी संगठनों के महत्वपूर्ण पदों पर राहुल गांधी के विश्वस्त लोग आ रहे हैं। हाल में कांग्रेस महासचिव (मध्य प्रदेश प्रभार) पद पर दीपक बाबरिया की नियुक्ति हुई। उन्हें राज्य में होने वाले चुनाव के पहले यह जिम्मेदारी देकर पार्टी ने स्पष्ट किया है कि वह पुराने नेतृत्व की जगह नए नेतृत्व को कमान देना चाहती है।
इस साल मई में कर्नाटक का प्रभार दिग्विजय सिंह से लेकर अपेक्षाकृत जूनियर केसी वेणुगोपाल को सौंपा गया। पिछले दिनों अविनाश पांडे को राजस्थान का, आरपीएन सिंह को झारखंड का और पीएल पुनिया को छत्तीसगढ़ का इंचार्ज बनाया गया है। ज्यादातर जगहों पर पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को किनारे किया जा रहा है। ये सब राहुल के आगमन के संकेत हैं।
राहुल गांधी ने तमाम सवालों के जवाब दिए। पर उनका उद्देश्य बीजेपी पर प्रहार करना था। उन्होंने कहा, देश ने बीते 70 साल में जितनी तरक्की हासिल की है, उसे सिर उठा रहे ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति रोकने का काम कर रही है। उदार पत्रकारों की हत्या की जा रही है, दलितों को पीटा जा रहा है, मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। अहिंसा का विचार खतरे में है।
उनकी बर्कले वक्तृता उन्हें राजनीतिक मंच पर लाने की अबतक की सबसे बड़ी कोशिश है। शायद वे जल्द ही पार्टी अध्यक्ष पद भी संभालें। सन 2004 में यानी अब से 13 साल पहले जब उन्हें लांच करने का मौका आया था, तब उनकी उम्र 34 साल थी। तब शायद यह लगा होगा कि उनके लिए समय उपयुक्त नहीं है। पर उसके बाद जब भी उन्हें लांच करने का मौका आया, उन्होंने खुद हाथ खींच लिए।
राहुल की यह अमेरिका यात्रा इस मायने में काफी महत्वपूर्ण है। बर्कले के बाद वे सिलिकन वैली में उद्यमियों से बात करेंगे, कैलिफोर्निया में नागरिक समाज के लोगों से और थिंक टैंक विशेषज्ञों से भी बातें करेंगे। वे वॉशिंगटन डीसी भी जाएंगे। सबसे अंत में वे 20 सितंबर को न्यूयॉर्क के मैरियॉट होटल में भारतीय समुदाय के 2000 चुनींदा सदस्यों से मुलाकात करेंगे। उनके साथ शशि थरूर और मिलिंद देवड़ा भी गए हैं।
राहुल गांधी का उद्देश्य अमेरिका में रहने वाले भारतीयों से संपर्क करने के अलावा ग्लोबल मीडिया और लीडरशिप के साथ संपर्क बनाने का भी है। भारतीय राजनीति में बने रहने के लिए उनके पास यह आखिरी मौका है। सन 2019 के चुनाव के पहले का आखिरी साल आ रहा है और उसके पहले अगले 15 महीनों में छह महत्वपूर्ण विधानसभाओं के चुनाव होने जा रहे हैं। तय है कि कांग्रेस पार्टी न तो राहुल गांधी को छोड़ सकती है और न नेहरू परिवार को। उसके सारे हानि-लाभ अब राहुल से जुड़े हैं। राहुल को लामुहाला वंश परंपरा का समर्थन करना ही होगा।
अब यह सवाल करने का वक्त नहीं बचा कि देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल खुद को बनाए रखने के लिए परिवार का सहारा क्यों लेता है। वह सबसे बड़ा इसलिए है क्योंकि आज भी भारत के सबसे बड़े इलाके में इसके उपस्थिति है। बहरहाल राहुल को अध्यक्ष बनाने का फैसला पार्टी ही करेगी, पर उनके इशारे पर। उनके मुकाबले कोई खड़ा होना नहीं चाहेगा। राहुल गांधी चाहते तो 2009 के बाद कभी भी प्रधानमंत्री बन सकते थे। आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति के लिए यह पारिवारिक व्यवस्था अटपटी है। पर यह स्वतंत्रता से पहले वाली कांग्रेस नहीं है। यह 1969 के बाद की कांग्रेस है।
राहुल की यह बात सही है कि ज्यादातर पार्टियों में खानदानी शासन है। अलबत्ता कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र एक हद तक कायम है। नेता का बेटा नेता, वकील का बेटा वकील और डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बने तो यह अस्वाभाविक नहीं। अस्वाभाविक है खानदान के आधार पर नेता तय होना। जैसे राजा-महाराजा होते थे। वंशवाद वहाँ है, जहाँ नेतृत्वकारी भूमिका वंश के आधार पर तय हो रही हो।
राहुल गांधी का बर्कले बयान वंश परंपरा से ज्यादा इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह राहुल गांधी के आगमन की तरफ इशारा कर रहा है। कांग्रेसी तुरुप का आखिरी पत्ता फेंका जा रहा है। राहुल ने बर्कले में कहा, मैं 2019 के आम चुनावों में पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ। पहली बार राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से ऐसी बात कही है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मेरी तरफ से इसे सार्वजनिक करना उचित नहीं है, क्योंकि पहले पार्टी को इसे मंजूर करना है। पर यह औपचारिकता है। वे अब उस द्वंद्व से बाहर निकल आए हैं, जो उन्हें रोक रहा था।
चुनाव आयोग के लगातार दबाव के बावजूद पार्टी के आंतरिक चुनाव टलते गए। अब पार्टी अध्यक्ष का चुनाव 15 अक्टूबर तक होना है। अब राहुल के अध्यक्ष बनने का इंतजार करना चाहिए। यों सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते उनका उपाध्यक्ष पद भी पार्टी प्रमुख का ही पद है, पर औपचारिकता के भी मायने होते हैं। पार्टी कार्यसमिति ने नवंबर 2016 की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर उनसे पार्टी की कमान संभालने का अनुरोध किया था। उस समय वरिष्ठ पार्टी नेता एके एंटनी ने कहा था कि राहुल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का यह सही समय है।
ऐसा नहीं कि यूपीए शासन के दौरान राहुल प्रशासनिक ताकत का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। कोई ताकत थी तभी तो उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के अध्यादेश को पत्रकारों के सामने फाड़कर फेंक दिया था। राहुल ने बर्कले में कश्मीर के संदर्भ में एक बात कही, जिसका वास्ता उनकी राजनीतिक-प्रशासनिक दृष्टि से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि मैंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और जयराम रमेश के साथ मिलकर नौ साल तक जम्मू-कश्मीर में शांति स्थापना पर काम किया। यानी सन 2004 से प्रशासन में वे सक्रिय थे।
राहुल मानते हैं कि सन 2012 के आसपास पार्टी में अहंकार आ गया। संवाद और विचार-विमर्श के जरिए फैसले करने की परंपरा खत्म होने लगी। राहुल गांधी का यह तंज सोनिया गांधी पर नहीं, बल्कि दूसरे बड़े नेताओं पर है। पूछा जा सकता है कि ऐसे में उन्होंने अपनी भूमिका को क्यों नहीं निभाया?
सन 2011 में जब देश में अन्ना हजारे का आंदोलन शुरू हो रहा था और सोनिया गांधी इलाज के लिए बाहर जा रहीं थीं, तब एक संभावना थी कि वे आगे बढ़कर नेतृत्व संभालते। वे आगे नहीं आए, केवल पीछे से काम करते रहे। सन 2013 में जब वे उपाध्यक्ष बनाए गए तब उन्होंने जयपुर के चिंतन शिविर में कहा, ‘बीती रात मेरी मां सोनिया गांधी मेरे पास आईं और कहा कि सत्ता जहर के समान है जो ताकत के साथ खतरे भी लाती है।’ यह उनका असमंजस बोल रहा था।
पिछले चार महीनों में पार्टी और अनुषंगी संगठनों के महत्वपूर्ण पदों पर राहुल गांधी के विश्वस्त लोग आ रहे हैं। हाल में कांग्रेस महासचिव (मध्य प्रदेश प्रभार) पद पर दीपक बाबरिया की नियुक्ति हुई। उन्हें राज्य में होने वाले चुनाव के पहले यह जिम्मेदारी देकर पार्टी ने स्पष्ट किया है कि वह पुराने नेतृत्व की जगह नए नेतृत्व को कमान देना चाहती है।
इस साल मई में कर्नाटक का प्रभार दिग्विजय सिंह से लेकर अपेक्षाकृत जूनियर केसी वेणुगोपाल को सौंपा गया। पिछले दिनों अविनाश पांडे को राजस्थान का, आरपीएन सिंह को झारखंड का और पीएल पुनिया को छत्तीसगढ़ का इंचार्ज बनाया गया है। ज्यादातर जगहों पर पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को किनारे किया जा रहा है। ये सब राहुल के आगमन के संकेत हैं।
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