अन्ना
हजारे ने लोकपाल, लोकायुक्त और किसानों के मुद्दे को लेकर मोदी
सरकार को जो चेतावनी दी है, उसे संजीदगी से देखने की जरूरत है। इसलिए नहीं कि
अन्ना हजारे सन 2011 जैसा ही आंदोलन छेड़ देंगे, बल्कि इसलिए लोकपाल की नियुक्ति
में हो रही देरी सिर्फ एक उदाहरण है। दरअसल जनता की उम्मीदों पर पानी फिरता जा रहा
है। जनता के मन में राजनीति के प्रति वितृष्णा जन्म ले रही है।
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित
अन्ना
ने मोदी सरकार को चार पेज का जो अल्टीमेटम दिया है, उसमें कहा गया है कि लोकपाल
विधेयक पास होने के चार साल होने को हैं और सरकार कोई न कोई बहाना बनाकर उसकी
नियुक्ति को टाल रही है, जबकि कानून बनाने की माँग करने वालों में बीजेपी भी आगे
थी। लगता यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भ्रष्टाचार और काला धन एकबार फिर
से महत्वपूर्ण मुद्दा बनेगा।
अन्ना
ने पत्र में लिखा है कि ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ के बड़े-बड़े विज्ञापनों के माध्यम से
आप जनता को संदेश दे रहे हैं, पर
सच यह है, देश में बिना रिश्वत जनता का काम नहीं
होता। लोकपाल और लोकायुक्त कानून के अमल से 50 से 60 फीसदी भ्रष्टाचार पर रोकथाम
लग सकती है, फिर भी आप इस कानून पर अमल नहीं कर रहे
हैं। सरकार ने इस कानून के अमल को एक मामूली सी तकनीकी वजह से रोक रखा है।
यह
मामला जब सुप्रीम कोर्ट में गया तब केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल
मुकुल रोहतगी ने कहा कि लोकपाल और लोकायुक्त कानून, 2013 के अनुसार लोकपाल की नियुक्ति के लिए नेता विपक्ष का होना जरूरी
है और अभी लोकसभा में कोई नेता विपक्ष ही नहीं है। एनजीओ कॉमन कॉज की याचिका पर फैसला
करते हुए इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लोकपाल की नियुक्ति में
फिर भी कोई अड़चन नहीं है। नेता विपक्ष के बिना भी नियुक्ति की जा सकती है। इसे
बिना विपक्ष के नेता के आगे बढ़ाया जाए।
अन्ना हजारे की चिट्ठी
से हटकर भी सोचें तो राजनीतिक दलों के पास जमा काले धन के सवाल को गोल-मोल बातों
से छिपाया नहीं जा सकता। संयोग से इस मामले में सारे दल एक साथ हैं। अन्ना ने पत्र में राजनीतिक दलों को सूचना के
अधिकार के दायरे में लाने,
किसानों को फसल का सही दाम देने के लिए
स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू करने, जल
जंगल जमीन का अधिकार ग्राम सभा को देने का कानून बनाने की बात भी कही है। इन
माँगों का दायरा व्यापक है। पर केवल काले धन और राजनीति के रिश्तों पर ध्यान
केंद्रित करें तो समूची राजनीति घिरती नजर आएगी।
सन
2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश
जारी किए थे। सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया। उसे निष्प्रभावी करने
के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया। यह
मामला अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है, पर
पार्टियाँ इसे मानने को तैयार नहीं हैं।
बीजेपी
और कांग्रेस तमाम मुद्दों पर एक दूसरे के विरोधी हैं, पर चंदे को लेकर एक दूसरे से सहमत हैं। ये
दोनों पार्टियाँ विदेशी चंदा लेती हैं, जिसके लिए नियमों
में बदलाव कर लिया गया है। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने
के मामले में भी दोनों दल एकसाथ हैं। देश में राजनीतिक दलों को इनकम टैक्स से पूरी
तरह छूट है। उन्हें केवल चंदे की कुछ जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है।
कम्पनियाँ पार्टियों को सीधे चुनावी चंदा न दें, इसके लिए चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था शुरू की गई है, पर यह पारदर्शी
व्यवस्था नहीं है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने इस बात को
रेखांकित किया है कि समझ में नहीं आता कि ये चुनावी ट्रस्ट टैक्स-माफ़ी के लिए
बनाए गए हैं या काले धन को सफेद धन में बदलने के लिए?
राजनीतिक
दल चाहें तो आसानी से चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने का कानून बना सकते हैं।
पर ज्यादातर दलों की दिलचस्पी इस बात में होती है कि चंदा देने वाले का नाम छिपाया
जाए। हाल में दिल्ली में हुई एक गोष्ठी में मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा कि
हमारी राजनीतिक नैतिकता में नई बातें शामिल होती जा रहीं हैं। हम किसी भी कीमत पर
जीतने को सामान्य बात मानकर चलने लगे हैं। तमाम सवाल हैं, जिनपर देश फिर से सोचने
लगा है।
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित
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