भाई-भतीजावाद, दोस्त-यारवाद, वंशवाद, परिवारवाद वगैरह का मतलब होता है मेरिट यानी काबिलीयत की उपेक्षा। यानी जो होना चाहिए, उसका न होना। जीवन में काम बनाने के लिए भी हमें रिश्ते चाहिए। गाड़ी का चालान हो गया, फलां के अंकल दरोगा हैं। जुगाड़ का पूरा तंत्र है, जिसे ‘नेटवर्किंग’ कहते हैं। जब हमारा काम नहीं बनता तब हमें शिकायत होती है कि किसी दूसरे का काम ‘भाई-भतीजावाद’ की वजह से हो गया। तब हमारा मन उदास होता है। काबिलीयत के प्रमाणपत्र लेकर हम घर वापस लौट आते हैं।
यह अंतिम सत्य नहीं है। अंतिम सत्य है काबिलीयत। ज्यादा महत्वपूर्ण वह व्यवस्था है, जो काबिलीयत की कद्र करे। पर दुनिया की अच्छी से अच्छी व्यवस्था में भी खानदान का दबदबा है। ‘पेडिग्री’ सिर्फ पालतू जानवरों की नहीं होती। इन दिनों फिल्म जगत में कँगना रनौत ने इस प्रवृत्ति के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। खानदान के सहारे जो ऊपर पहुँच जाते हैं, वे मानते हैं कि भारत में ऐसा ही चलता है। किसी के पास प्रतिभा हो और सहारा भी मिले तो आगे बढ़ने में देर नहीं लगती। पर खच्चर को अरबी घोड़ा नहीं बनाया जा सकता। यह सामाजिक अन्याय भी है, पर है। यह भी सच है कि प्रतिभा, लगन और धैर्य का कोई विकल्प नहीं है।
अमिताभ के बेटे को उतनी सफलता नहीं मिली। सुनील गावसकर जैसा खेल उनके बेटे ने नहीं खेला। सचिन के नाम से उनका बेटा सितारा नहीं बनेगा। यह बात राजनीति पर भी लागू होती है। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी को निखरने का जो मौका मिला, वह विलक्षण संयोग था। पर ऐसा हमेशा नहीं होता। परिवार व्यक्ति को बेहतर अनुभव देता है। पर यह सफलता की गारंटी नहीं। उद्धव ठाकरे, सुखबीर बादल और अखिलेश यादव वैसे करिश्माई नहीं हैं, जैसे उनके पिता थे। पर नवीन पटनायक सफल भी हुए। पहली पीढ़ी वाला व्यक्ति उद्यमी होता है और अगली पीढ़ियाँ आलसी होती जाती हैं।
दिक्कत इस बात पर नहीं है कि राजनेता के बेटा राजनेता क्यों है। फौजी का बेटा फौजी, वकील का बेटा वकील, शिक्षक का बेटा शिक्षक और पहलवान का बेटा पहलवान बने तो विस्मय की बात नहीं। वैसे ही राजनेता का बेटा राजनीति में आए। पर यह लोकतंत्र है। यहाँ उसे कार्यकर्ता के रूप में प्रवेश करना चाहिए, बादशाह की तरह नहीं।
ये बातें कांग्रेस के संदर्भ में हैं, जिसकी परंपराएं सवा सौ साल पुरानी हैं। पर पार्टी की खानदानी परंपरा नई है। यह परंपरा 1969 के बाद पड़ी है। आज़ादी के बाद के 70 साल में कांग्रेस के 15 अध्यक्ष हुए हैं। इनमें से चार नेहरू-गांधी परिवार से हैं। नेहरू, इंदिरा, राजीव और सोनिया। ये चारों 37 साल अध्यक्ष रहे। बाकी 11 के लिए 33 साल। सोनिया गांधी पिछले 19 साल से अध्यक्ष हैं। बहरहाल इसका फैसला जनता को करना होगा।
बात वंशवाद की नहीं है। असल बात है मेरिट की उपेक्षा। भाई-भतीजावाद यानी यार-दोस्त वाद यानी क्रोनीज्म का मतलब है अन्याय। यह मसला केवल राजनीति का है भी नहीं। वैश्वीकरण की बुनियादी अवधारणा उदारवाद पर टिकी है। हमारी व्यवस्था पर क्रोनी दबाव है। तमाम तरह के माफिया उभर चुके हैं। कुछ लोग मानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था खुद में क्रोनी कैपिटलिज्म है। पर यह सच नहीं है। कारोबार की खुली व्यवस्था रचनाशील, नवोन्मेषी और प्रयोगधर्मी लोगों के लिए है। ऐसा नहीं हुआ तो व्यवस्था को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा।
यह अंतिम सत्य नहीं है। अंतिम सत्य है काबिलीयत। ज्यादा महत्वपूर्ण वह व्यवस्था है, जो काबिलीयत की कद्र करे। पर दुनिया की अच्छी से अच्छी व्यवस्था में भी खानदान का दबदबा है। ‘पेडिग्री’ सिर्फ पालतू जानवरों की नहीं होती। इन दिनों फिल्म जगत में कँगना रनौत ने इस प्रवृत्ति के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। खानदान के सहारे जो ऊपर पहुँच जाते हैं, वे मानते हैं कि भारत में ऐसा ही चलता है। किसी के पास प्रतिभा हो और सहारा भी मिले तो आगे बढ़ने में देर नहीं लगती। पर खच्चर को अरबी घोड़ा नहीं बनाया जा सकता। यह सामाजिक अन्याय भी है, पर है। यह भी सच है कि प्रतिभा, लगन और धैर्य का कोई विकल्प नहीं है।
अमिताभ के बेटे को उतनी सफलता नहीं मिली। सुनील गावसकर जैसा खेल उनके बेटे ने नहीं खेला। सचिन के नाम से उनका बेटा सितारा नहीं बनेगा। यह बात राजनीति पर भी लागू होती है। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी को निखरने का जो मौका मिला, वह विलक्षण संयोग था। पर ऐसा हमेशा नहीं होता। परिवार व्यक्ति को बेहतर अनुभव देता है। पर यह सफलता की गारंटी नहीं। उद्धव ठाकरे, सुखबीर बादल और अखिलेश यादव वैसे करिश्माई नहीं हैं, जैसे उनके पिता थे। पर नवीन पटनायक सफल भी हुए। पहली पीढ़ी वाला व्यक्ति उद्यमी होता है और अगली पीढ़ियाँ आलसी होती जाती हैं।
दिक्कत इस बात पर नहीं है कि राजनेता के बेटा राजनेता क्यों है। फौजी का बेटा फौजी, वकील का बेटा वकील, शिक्षक का बेटा शिक्षक और पहलवान का बेटा पहलवान बने तो विस्मय की बात नहीं। वैसे ही राजनेता का बेटा राजनीति में आए। पर यह लोकतंत्र है। यहाँ उसे कार्यकर्ता के रूप में प्रवेश करना चाहिए, बादशाह की तरह नहीं।
ये बातें कांग्रेस के संदर्भ में हैं, जिसकी परंपराएं सवा सौ साल पुरानी हैं। पर पार्टी की खानदानी परंपरा नई है। यह परंपरा 1969 के बाद पड़ी है। आज़ादी के बाद के 70 साल में कांग्रेस के 15 अध्यक्ष हुए हैं। इनमें से चार नेहरू-गांधी परिवार से हैं। नेहरू, इंदिरा, राजीव और सोनिया। ये चारों 37 साल अध्यक्ष रहे। बाकी 11 के लिए 33 साल। सोनिया गांधी पिछले 19 साल से अध्यक्ष हैं। बहरहाल इसका फैसला जनता को करना होगा।
बात वंशवाद की नहीं है। असल बात है मेरिट की उपेक्षा। भाई-भतीजावाद यानी यार-दोस्त वाद यानी क्रोनीज्म का मतलब है अन्याय। यह मसला केवल राजनीति का है भी नहीं। वैश्वीकरण की बुनियादी अवधारणा उदारवाद पर टिकी है। हमारी व्यवस्था पर क्रोनी दबाव है। तमाम तरह के माफिया उभर चुके हैं। कुछ लोग मानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था खुद में क्रोनी कैपिटलिज्म है। पर यह सच नहीं है। कारोबार की खुली व्यवस्था रचनाशील, नवोन्मेषी और प्रयोगधर्मी लोगों के लिए है। ऐसा नहीं हुआ तो व्यवस्था को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा।
एक और मसला है राजनीतिक रेवड़ियों का। दुनिया में सबसे ज्यादा राजनीतिक नियुक्तियाँ अमेरिका में होती हैं। अमेरिका में 19वीं सदी में राजनीतिक विजय के बाद बख्शीश के तौर पर सरकारी पद देने की परंपरा शुरू हुई थी। राष्ट्रपति का चुनाव होने के बाद वहाँ होलसेल में नई नियुक्तियाँ होती हैं। इसे पैट्रनेज या स्पॉइल्स सिस्टम कहते हैं। अदालतों के जज तक राजनीतिक रास्ते से आते हैं, पर फैसले मेरिट से होते हैं। राज दरबारों से लेकर आधुनिक लोकतंत्र तक राज्याश्रय स्वीकृत परंपरा है। कलाकारों, रंगकर्मियों, लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों और विचारकों वगैरह के सम्मान की परंपरा है। अपनी रवायत पर नजर डालिए। क्या हम मेरिट-प्रेमी हैं?
राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित
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