Friday, August 26, 2011

अब अनशन की ज़रूरत नहीं


सर्वदलीय बैठक के अगले दिन लोकसभा में प्रधानमंत्री, विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के वचन देने के बाद अन्ना हजारे के आंदोलन का एक चरण पूरा हो गया है। उनका अनशन सफल हुआ है, विफल नहीं। अब उसे जारी रखने की ज़रूरत नहीं। पहली बार देश की संसद ने इस प्रकार का आश्वासन दिया है। अन्ना को श्रेय जाता है कि उन्होंने जनता की नाराज़गी को इस ऊँचाई तक पहुँचाया। अब संसद को फैसला करना चाहिए। बेशक जनता की भागीदारी के मौके कभी-कभार आते हैं, पर जनता का दबाव खत्म हो जाएगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए। एक अर्थ में एक नए किस्म का आंदोलन देश में अब शुरू हो रहा है। खत्म नहीं। राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के तमाम पहलुओं पर अभी विचार होना है। अन्ना चाहते हैं कि उनके जन-लोकपाल बिल पर संसद विचार करे। वह अब होगा। कम से कम उसपर बहस जनता के सामने होगी। इसके बाद जो कानून बनकर आएगा वह सम्भव है जन-लोकपाल विधेयक से ज्यादा प्रभावशाली हो।

Wednesday, August 24, 2011

मीडिया असंतुलित है, अपराधी नहीं

अन्ना हजारे के आंदोलन के उद्देश्य और लक्ष्य के अलावा दो-तीन बातों ने ध्यान खींचा है। ये बातें सार्वजनिक विमर्श से जुड़ी हैं, जो अंततः लोकमत को व्यक्त करता है और उसे बनाता भी है। इस आंदोलन का जितना भी शोर सुनाई पड़ा हो, देश के बौद्धिक-वर्ग की प्रतिक्रिया भ्रामक रही। एक बड़े वर्ग ने इसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रवर्तित माना। संघ के साथ इसे सवर्ण जातियों का आंदोलन भी माना गया। सिविल सोसायटी और मध्यवर्ग इनकी आलोचना के केन्द्र में रहे।

आंदोलन के विरोधी लोग इसे अल्पजनसंख्या का प्रभावहीन आंदोलन तो कह रहे हैं, पर लगभग नियमित रूप से  इसकी आलोचना कर रहे हैं। यदि यह प्रभावहीन और जन-प्रतिनिधित्वविहीन है तो इसकी इतनी परवाह क्यों है? हालांकि फेसबुक और ट्विटर विमर्श का पैमाना नहीं है, पर सुबह से शाम तक कई-कई बार वॉल पर लिखने से इतना तो पता लगता है कि आप इसे महत्व दे रहे हैं। एक वाजिब कारण यह समझ में आता है कि मीडिया ने इस आंदोलन को बड़ी तवज्जो दी, जो इस वर्ग के विचार से गलत था। इनके अनुसार इस आंदोलन को मीडिया ने ही खड़ा किया।  चूंकि इस आंदोलन के मंच पर कुछ जाने-पहचाने नेता नहीं थे, इसलिए इसे प्रगतिशील आंदोलन मानने में हिचक है।

Tuesday, August 23, 2011

आंदोलन सफल हो या विफल सकारात्मक बदलाव होगा




नंदन नीलेकनी ने हाल में एक टीवी चैनल पर कहा कि भ्रष्टाचार किसी एक कानून के बन जाने से खत्म नहीं हो जाएगा। मैं इस आंदोलन में शामिल लोगों की फिक्र से सहमत हूँ, पर यह नहीं मानता कि कोई जादू की गोली इसका इलाज है। संयोग से नंदन नीलेकनी के इनफोसिस के पुराने मित्र मोहनदास पै एक और चैनल पर इस आंदोलन को जनांदोलन बता रहे थे और इसे दबाने की सरकारी कोशिशों का विरोध कर रहे थे। जिन दो मित्रों के बीच एक कम्पनी और कार्य-संस्कृति का विज़न एक सा था, वे इस मामले में एक तरह से क्यों नहीं सोच पा रहे हैं? शायद नीलेकनी का पद आड़े आता है। या वे वास्तव में इस मसले की तह तक जाकर सोचते हैं और हम बेवजह उनके सरकारी पद को इस मसले से जोड़कर देख रहे हैं। यह सिर्फ नीलेकनी और पै का मामला नहीं है।

Monday, August 22, 2011

यह बदलाव की प्रक्रिया है, देर तक चलेगी



अन्ना के अनशन के सात दिन आज पूरे हो जाएंगे। और अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि यह कब तक चलेगा और कहाँ तक चलेगा। आंदोलन के समर्थन और विरोध में बहस वह मूल प्रश्नों के बाहर नहीं निकल पाई है। क्या केवल इस कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या यह सम्भव है कि अन्ना का प्रस्तावित विधेयक हूबहू पास कर दिया जाए? सरकार ने जो विधेयक पेश किया है उसका क्या होगा? क्या सरकार उसे वापस लेने को मजबूर होगी? सवाल यह भी है कि सरकार ने विपक्षी दलों के साथ इस विषय पर बात क्यों नहीं की। क्या वह उनके सहयोग के बगैर इस संकट का सामना कर सकेगी? क्या हम किसी बड़े व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं? क्या सरकार आने वाले राजनैतिक संकट की गम्भीरता को नहीं समझ पा रही है?

Sunday, August 21, 2011

आंदोलन तैयार कर रहा है एक राजनीतिक शून्य



लड़ाई का पहला राउंड अण्णा हज़ारे के पक्ष में गया है। टीम-अण्णा ने यूपीए को तकरीबन हर मोड़ पर शिकस्त दे दी है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पास कोई बड़ा संगठनात्मक आधार नहीं है और इतने साधन भी नहीं कि वे कोई बड़ा प्रचार अभियान चला पाते। पर परिस्थितियों और उत्साही युवा कार्यकर्ताओं ने कहानी बदल दी। सोशल नेटवर्किंग साइटों और एसएमएस के रूप में मिली संचार तकनीक ने भी कमाल किया। पर यह आंदोलन की जीत ही नहीं, सरकारी नासमझी की हार भी है। उसने इस आंदोलन को मामूली राजनैतिक बाज़ीगरी मान लिया था। बाबा रामदेव के अनशन को फुस्स करने के बाद सरकार का हौसला और बढ़ गया।

शुक्रवार की शाम रामलीला मैदान पर मीडिया से चर्चा के दौरान अरविन्द केजरीवाल ने कहा, हम चुनाव नहीं लड़ेंगे। हम जनता हैं, जनता ही रहेंगे। बात अच्छी लगती है, अधूरी है। जनता के आंदोलन का अर्थ क्या है? इस दौरान पैदा हुई जन-जागृति को आगे लेकर कौन जाएगा? लोकपाल की माँग राजनैतिक थी तो राजनैतिक माध्यमों के मार्फत आती। जनता लोकपाल विधेयक की बारीकियों को नहीं समझती। उसका गुस्सा राजनैतिक शक्तियों पर है और वह वैकल्पिक राजनीति चाहती है। टीम अण्णा का राजनैतिक एजेंडा हो या न हो, पर इतना साफ है कि यह कांग्रेस-विरोधी है। यूपीए और कांग्रेस का राजनीति हाशिए पर आ गई है। और कोई दूसरी ताकत उसकी जगह उभर नहीं रही है। इस समूचे आंदोलन ने जहाँ देश भर को आलोड़ित कर दिया है वहीं राजनैतिक स्तर पर एक जबर्दस्त शून्य भी पैदा कर दिया है। इस आंदोलन से जो स्पेस पैदा हुआ है उसे कौन भरेगा?