लड़ाई का पहला राउंड
अण्णा हज़ारे के पक्ष में गया है। टीम-अण्णा ने यूपीए को तकरीबन हर मोड़ पर शिकस्त
दे दी है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पास कोई बड़ा संगठनात्मक आधार नहीं है और इतने
साधन भी नहीं कि वे कोई बड़ा प्रचार अभियान चला पाते। पर परिस्थितियों और उत्साही युवा
कार्यकर्ताओं ने कहानी बदल दी। सोशल नेटवर्किंग साइटों और एसएमएस के रूप में मिली संचार
तकनीक ने भी कमाल किया। पर यह आंदोलन की जीत ही नहीं, सरकारी नासमझी की हार भी है।
उसने इस आंदोलन को मामूली राजनैतिक बाज़ीगरी मान लिया था। बाबा रामदेव के अनशन को फुस्स
करने के बाद सरकार का हौसला और बढ़ गया।
शुक्रवार की शाम रामलीला
मैदान पर मीडिया से चर्चा के दौरान अरविन्द केजरीवाल ने कहा, हम चुनाव नहीं लड़ेंगे।
हम जनता हैं, जनता ही रहेंगे। बात अच्छी लगती है, अधूरी है। जनता के आंदोलन का अर्थ
क्या है? इस दौरान पैदा हुई जन-जागृति को आगे लेकर कौन जाएगा? लोकपाल की माँग राजनैतिक थी तो राजनैतिक माध्यमों के मार्फत आती। जनता लोकपाल
विधेयक की बारीकियों को नहीं समझती। उसका गुस्सा राजनैतिक शक्तियों पर है और वह वैकल्पिक
राजनीति चाहती है। टीम अण्णा का राजनैतिक एजेंडा हो या न हो, पर इतना साफ है कि यह
कांग्रेस-विरोधी है। यूपीए और कांग्रेस का राजनीति हाशिए पर आ गई है। और कोई दूसरी
ताकत उसकी जगह उभर नहीं रही है। इस समूचे आंदोलन ने जहाँ देश भर को आलोड़ित कर दिया
है वहीं राजनैतिक स्तर पर एक जबर्दस्त शून्य भी पैदा कर दिया है। इस आंदोलन से जो स्पेस
पैदा हुआ है उसे कौन भरेगा?
सन 1967, 1977, 1989
और 1998 में वैकल्पिक राजनीति सामने थी। आज शून्य है। लोकपाल की बहस ने सकल राजनीति
को ही हिट किया है। राजनीति और राजनैतिक दलों की साख का सवाल खड़ा हुआ है। ऐसा केवल
लोकपाल कानून की वजह से नहीं है। हाल में सामने आए घोटाले इसकी मूल वजह हैं और लोकपाल
बिल ने सोने में सुहागे का काम किया है। यह स्थिति अच्छी नहीं। इसके निहितार्थ राजनैतिक
दलों को खोजने चाहिए। अब नौ गैर-एनडीए दलों ने 23 अगस्त को जिस राष्ट्रव्यापी विरोध
प्रदर्शन का आह्वान किया है, वह इन राजनैतिक दलों की ओर से पहला कदम है। इस विरोध प्रदर्शन
की पहल एनडीए के शरद यादव ने की थी, पर तारीख की घोषणा उनकी ओर से नहीं की गई। शायद
उनका विरोध भी 23 को ही होगा। इस अर्थ में यह पहली राजनैतिक गतिविधि है। इन दोनों पहलों
के केन्द्र में लोकपाल बिल, भ्रष्टाचार और लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति सरकार की
बेरुखी है।
निराशा के इस माहौल में
अपनी संसद पर निगाह डालें। एक अरसे बाद हमारी संसद में गम्भीर बहस हो रही है। पिछले
दो साल से हम पूरा का पूरा सत्र निरर्थक होते देख रहे हैं। इस बार सत्तारूढ़ यूपीए
और मुख्य विपक्ष एनडीए ने सदन के संचालन के आपसी सहमति बनाई है। सबसे पहले महंगाई के
मसले पर दोनों पार्टियों ने संयुक्त प्रस्ताव पेश करके एक नए किस्म की राजनीति शुरू
की है। इसकी एक वजह छोटी पार्टियों को अलग-थलग करने की रणनीति से जुड़ी है। ऐसा महसूस
किया जा रहा है कि मतदान के मौके आने पर छोटी पार्टियाँ अपना एजेंडा बढ़ा देती हैं।
इतना ठीक है, पर लगता है कि लोकपाल विधेयक के संदर्भ में दोनों पार्टियों ने ज्यादा
नहीं सोचा। और शायद उन्हें लगता नहीं था कि यह अनशन की धमकी मामले को इतना लम्बा खींच
ले जाएगी। जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार पीएमओ ने लोकपाल विधेयक पर नज़र भी नहीं
डाली।
अब पन्द्रह दिन तक अण्णा
की महापंचायत राष्ट्रीय राजनीति को बेचैन रखेगी। आंदोलनकारी टीम के लिए भी ये पन्द्रह
दिन मुश्किल से भरे होंगे। तिहाड़ जेल के कारण जो माइलेज इस टीम को मिल रही थी, वह
अब नहीं मिलेगी। लगातार एक ही बात करने के बजाय कोई नई बात सामने लानी होगी। बात एक
ऐसे मोड़ पर आ गई है, जहाँ उनकी हार या जीत का कोई मतलब नहीं। लोकपाल बिल संसद में
पेश कर दिया गया है। अण्णा टीम की माँग है कि इस बिल को वापस लेकर जन-लोकपाल विधेयक
संसद में पेश किया जाए। क्या ऐसा सम्भव है या क्या यह उचित होगा? इस बीच वरुण गांधी ने और एक निर्दलीय सांसद राजीव चन्द्रशेखर ने जन-लोकपाल बिल
को निजी बिल के रूप में रखने की घोषणा कर दी है। वरुण के मामले में यह यह पार्टी का
फैसला नहीं लगता। भाजपा और वामपंथी दलों ने प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाने का
समर्थन किया है, पर इसके आगे कोई बात नहीं कही है।
अब गेंद इन पार्टियों
के पाले में है। इस मामले में सर्वानुमति बनाने की ज़रूरत है। कांग्रेस ने पहले तो
अप्रेल के महीने विपक्षी दलों से राय किए बगैर अण्णा की टीम के साथ मिलकर एक संयुक्त
समिति (जेडीसी) बना ली। इस संयुक्त समिति का संयुक्त नाम भर को रहा। सरकार के पाँच
सदस्यों ने अपना ड्राफ्ट बनाया और कैबिनेट से मंजूर करा लिया। जेडीसी ने किस आधार पर
फैसले किए और टीम अण्णा के सुझावों को क्यों नामंजूर किया, यह जनता के सामने नहीं आ
पाया। अब भी समय है कि सारे राजनैतिक दल मिलकर इस कानून को उपादेय बनाएं। सवाल केवल
अण्णा या सरकार की प्रतिष्ठा का नहीं है। आश्चर्य इस बात पर है कि राजनैतिक दल लोकपाल
विधेयक की बुनियादी बातों पर एकमत नहीं हैं। संसद की स्थायी समिति के बाहर भी इस विषय
पर बैठकर बात की जा सकती है। और यह बात होनी चाहिए।
आंदोलन ने केवल कांग्रेस
को नुकसान नहीं पहुँचाया है। समूची राजनीति को घेरे में खड़ा कर दिया है। पर राजनीति
के बगैर काम नहीं चलेगा। अगले साल यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा विधानसभाओं
के चुनाव हैं। उसके ठीक पहले यूपीए ने अपने लिए बखेड़ा मोल ले लिया है। यूपी, उत्तराखंड
और पंजाब में कांग्रेस पार्टी को सफलता की उम्मीद है। पर इस वक्त हालात तेजी से बदल
गए हैं। यूपीए के संकट मोचकों ने मौके की नज़ाकत को नहीं समझा और बेवज़ह मुसीबत मोल
ले ली है।
अण्णा आंदोलन किसी राजनैतिक
दल की रचना करने वाला नहीं है। इस बीच किसी नए राजनैतिक दल के गठन की सम्भावना भी नहीं
है। वामपंथी पार्टियाँ और बीजू जनता दल, टीडीपी, जेडी(एस) अद्रमुक और रालोद जैसे छोटे
दल तीसरे मोर्चे की सम्भावनाओं पर बात करते हैं, पर अभी तक सफल नहीं हैं। इस दौरान
एनडीए पहले के मुकाबले कमज़ोर हुआ है। उसके साथ कोई नया दल नहीं आया है। सबसे महत्वपूर्ण
मोर्चा उत्तर प्रदेश में होगा, जहाँ से कांग्रेस को कुछ उम्मीद थी। जो शहरी मध्य वर्ग
आंदोलित है, वह मूल रूप में कांग्रेस या भाजपा का समर्थक है। उसके नाराज होने का फायदा
किसे मिलेगा, अभी कहना मुश्किल है।
इस आंदोलन के बाद यूपीए
सरकार के नेतृत्व में बदलाव हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। एक अरसे से पार्टी राहुल
गांधी को आगे लाना चाहती है। पिछले साल तक मनमोहन सिंह की छवि साफ-सुथरी थी, पर पिछले
कुछ महीनों में इसमें जबर्दस्त गिरावट आई है। यह सब ऐसे ही चलता रहा तो अगले विधान
सभा चुनाव पार्टी के गले में हड्डी बन जाएंगे। राहुल गांधी को 2014 में प्रधानमंत्री
बनाने की बात तब होगी, जब पार्टी जीतेगी। इससे बेहतर राहुल को सामने लाना होगा। पार्टी
अपनी राजनैतिक दिशा से भटक चुकी है। आर्थिक उदारीकरण की राह पर कांग्रेस ही नहीं किसी
भी पार्टी को जाना पड़ेगा, पर यह सरकार सीमा से ज्यादा कॉरपोरेट बन गई है। प्रणब मुखर्जी
को छोड़ दें तो उसके शीर्ष नेताओं में राजनैतिक पृष्ठभूमि के लोग ही नहीं हैं। एक अजब
एरोगेंस इसके नेताओं में है। खासतौर से वकालत छोड़कर मंत्री बने नेताओं में। हालांकि
अण्णा आंदोलन पूरे देश में हैं, पर जेपी आंदोलन की तरह उत्तर भारत में इसका असर ज्यादा
है। और कांग्रेस पार्टी के पास इस वक्त उत्तर भारत के नेताओं का टोटा है। नेतृत्व संकट
भाजपा के सामने भी है। वामपंथी पार्टियाँ इस इलाके से अपना बिस्तर समेट चुकी हैं। इसलिए
यहाँ क्षेत्रीय छत्रप ही प्रभावशाली हैं, और फिलहाल उनका महत्व कम होता नज़र नहीं आता।
इस आन्दोलन ने राजनीतिको और पार्टियों को नए सिरे सोचने पर मजबूर कर दिया है आने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव में पार्टियों को अच्छे प्रत्यासियो को लाना होगा ,नहीं जनता सबक सीखा सकती है ,जनता ऐसा नहीं करती है तो इसका असर दूढ़गामी नहीं होगा
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