अन्ना के अनशन के सात
दिन आज पूरे हो जाएंगे। और अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि यह कब तक चलेगा और कहाँ
तक चलेगा। आंदोलन के समर्थन और विरोध में बहस वह मूल प्रश्नों के बाहर नहीं निकल पाई
है। क्या केवल इस कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या यह सम्भव है कि अन्ना का प्रस्तावित विधेयक हूबहू पास कर दिया जाए? सरकार ने जो विधेयक पेश किया है उसका क्या होगा? क्या सरकार उसे वापस लेने को मजबूर होगी? सवाल यह भी है कि सरकार ने
विपक्षी दलों के साथ इस विषय पर बात क्यों नहीं की। क्या वह उनके सहयोग के बगैर इस
संकट का सामना कर सकेगी? क्या हम किसी बड़े व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़
रहे हैं? क्या सरकार आने वाले राजनैतिक संकट की गम्भीरता को नहीं समझ
पा रही है?
दो राय नहीं कि एक अरसे
बाद भारतीय समाज राष्ट्रीय प्रश्नों पर एक साथ खड़ा हुआ है। जनांदोलनों को खड़ा करना
जितना मुश्किल काम है उससे ज्यादा मुश्किल है तलवार को म्यान में वापस ले जाना। अप्रेल
में जब अन्ना का जंतर-मंतर अनशन शुरू होने वाला था, तब मिस्र के तहरीर चौक की तस्वीरें
हमारे जेहन में थीं। पर उस वक्त कहा गया कि भारत न तो मिस्र है और न ट्यूनीशिया। हमारी
लोकतांत्रिक संस्थाएं अपेक्षाकृत परिपक्व हैं। पिछले साढ़े चार महीनों की घटनाओं से
अंदेशा होता है कि सरकार और आंदोलनकारी दोनों नौसिखिया हैं। रामलीला मैदान में बाबा
रामदेव के धरनास्थल पर धावा बोलकर सरकार ने देश को चौंका दिया। इस अभियान के बाद सरकार
का आत्मविश्वास बढ़ गया। पर 16 अगस्त को सरकार का नौसिखियापन उजागर हो गया। अन्ना को
गिरफ्तार करके एक हफ्ते की रिमांड लेते ही सरकारी हौसले पस्त हो गए।
सरकार ने 4 अगस्त को
जब अपना लोकपाल बिल संसद में पेश किया था, तब वह रामलीला मैदान की विजय से अभिभूत थी।
आज उसी मैदान से सरकार की लानत-मलामत हो रही है। टीम अन्ना ने रामदेव प्रकरण से कुछ
सीख ली थीं। उसके पास बेहतर संचार-व्यवस्था और प्लान बी था। और उस प्लान के साथ वह
अभी तक सफल है, पर उसके तौर-तरीके उसे नौसिखिया साबित करते हैं। जो एरोगैंस सरकार के
कुछ वकील मंत्रियों में है, लगभग वैसा ही एरोगैंस टीम-अन्ना के दो-एक सीनियर नेताओं
में दिखाई पड़ता है। ‘अन्ना इज़ इंडिया’ का नारा उसी माइंडसैट को दिखाता
है, जिसका विरोध है। अन्ना के इस आंदोलन को देशभर का समर्थन मिल रहा है, पर यह समर्थन
भ्रष्टाचार के प्रति जनता की स्वाभाविक नाराज़गी है।
टीम अन्ना को दो-तीन
बातों को समझना चाहिए। एक, अपना सामाजिक आधार व्यापक रखें। इस टीम पर आरोप हैं कि यह
आंदोलन आरएसएस या भाजपा के समर्थन से चल रही है, इसमें दलित-प्रश्न नहीं है। उनकी भागीदारी
भी नहीं है। यह आरक्षण-विरोधियों का आंदोलन है और इसी तरह की बातें। ऐसे सवाल गांधी
के आंदोलन को लेकर भी उठते थे। जेपी आंदोलन के पीछे आरएसएस की ताकत थी, ऐसा कहा जाता
है। संघ ने इस आंदोलन का समर्थन करने की घोषणा भी की है, पर यह संघ का आंदोलन नहीं
है। ऐसा लगता है कि अन्ना के समर्थक इस बात को समझते हैं। जंतर-मंतर अनशन के समय मंच
पर पृष्ठभूमि पर भारत माता की तस्वीर लगी थी। इसबार गांधी की तस्वीर है। अक्सर इस किस्म
के मुहावरों को समझने में गलती होती है। इसलिए इस मामले में सावधान रहने की ज़रूरत
है।
अन्ना की टीम मजदूर,
किसान, दलितों, जनजातियों, जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े अधिकारों के बारे में भी जागरूक
है, ऐसा उसे स्पष्ट करना चाहिए। इस आंदोलन की संरचना मध्यवर्गीय शहरी, सवर्णों के आंदोलन
की नहीं बननी चाहिए। यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि मध्य वर्ग का आंदोलन जन-विरोधी होता
है। मध्यवर्ग राजनैतिक दृष्टि से जागरूक होता है। वह प्रगतिशील आंदोलनों का नेतृत्व
करता है। मध्य वर्ग की जड़ें भी गाँवों और कस्बों में हैं। उसे अलग-थलग करने की बात
समझ में नहीं आती।
टीम अन्ना का एक नौसिखियापन
उसका अतिशय आत्मकेन्द्रित होना है। अपने से असहमति रखने वाले को सिरे से नकारने की
बात भी ठीक नहीं है। टीम अन्ना के समांतर हर्ष मंदर और अरुणा राय के संगठन एनसीपीआरआई
ने भी लोकपाल बिल का एक दस्तावेज बनाया था। अन्ना के जन-लोकपाल बिल और इसमें मामूली
फर्क हैं। शायद ऐसे ही सुझाव कुछ और भी हों। इन्हें साथ-रखकर देखने की ज़रूरत है। यह
काम कौन करेगा? इसके लिए सरकार को पहल करनी होगी। प्रधानमंत्री कहते हैं कि
हम विधेयक में फेर-बदल को तैयार हैं। ऐसा है तो पहले उन्हें अपना विधेयक वापस लेना
चाहिए। पूरी प्रक्रिया फिर से चलानी चाहिए, जिसमें सभी दल शामिल हों। वस्तुतः सिविल
सोसायटी के साथ प्रारूप बनाने के लिए संयुक्त समिति एक प्रकार का धोखा था। यह बिल किसी
विचार-विमर्श की देन नहीं है, और संयुक्त तो कहीं से नहीं है।
यह कानून अब 30 अगस्त
तक संसद से पास नहीं हो सकता। पर 30 अगस्त तक इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है।
इस समाधान को हासिल करने के लिए बचकानेपन से बाहर आना होगा। आंदोलन ने राजनीतिक स्पेस
पर कब्जा कर लिया है, पर यह किसी वैकल्पिक राजनीति की बात नहीं कर रहा। यह अपने आप
में खतरनाक है। फिलहाल समूची राजनीति की साख दाँव पर है। इस पर यूपीए और विपक्ष के
सभी दलों को विचार करना चाहिए। यह केवल लोकपाल विधेयक तक सीमित नहीं रहेगा। अब एक प्रक्रिया
शुरू होगी, जो लम्बे समय तक चलेगी। इसके तहत कई तरह के कानून बनेंगे। केवल लोकपाल कानून
से भ्रष्टाचार भले ही खत्म न होता हो, पर इसके नाम पर शुरू हुआ आंदोलन अनेक राजनैतिक
सवालों के जवाब देगा। यह व्यवस्था परिवर्तन है।
जोशी साहेब बहुत बढ़िया. लेकिन क्या आप को नहीं लगता कि ये बचपना एक दिन जवानी मैं ढलेगा. और जब जवान होगा तो जाहिर कि व्यस्था परिवर्तन तो संभव हैं. भारत कभी भी मिश्र या बाकि पश्चिमी देशो के नक़्शे कदम पर नहीं चलेगा. भारतीय जनता परिपक्व हैं और शांति और गाँधी गिरी मैं विश्वास रखना जानती हैं..
ReplyDeleteघर का मुखिया जब घर सम्भाल पाने मैं असमर्थ हो जाता हैं तो घर के ही बाकि सदस्य उसे बदल देते हैं. जिससे कि घर कि गरिमा बनी रहे.
आज जिस तरह से भारत के प्रधानमंत्री मौन व्रत ले करके बैठे हैं , आप को क्या लगता हैं .
मैं तो कहता हूँ कि इसमें पूरी तरह से विदेशी हाथ हैं.
आपकी रचना अच्छी है।
ReplyDeleteमुरली वाले जी के बारे में कुछ कोमल भावनाएं हमारी भी हैं जिन्हें आप देख सकते हैं
ब्लॉगर्स मीट वीकली (5) में।
आपके चहेते ब्लॉगर्स के लेख आपके लिए पेश किए गए हैं।
शुक्रिया !
आप सभी सादर आमंत्रित हैं।
जन्माष्टमी की शुभकामनाएं !
ओ ! आपको.' हिन्दुस्तान ' में पढ़ा करती हूँ. ख़ुशी होती है आपको पढ़कर. शुभकामना.
ReplyDeleteप्रमोद जी,
ReplyDeleteहमारे गणतंत्र के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि अब हमे इसमें न तो "गण" दिखता है, और न ही "तंत्र"! जनता को जब तक इस बात का एहसास न हो कि कानून बनाने में उसकी भी भागीदारी है, इस समस्या का कोई भी अंत दिखाई नहीं पड़ता.
वयस्क गणतंत्रों की तरह अब हमे भी जनता को विधायक प्रक्रिया में जोडने का प्रयास करना होगा -- लेकिन दिल्ली अभी बहुत दूर है!
मैंने इसके बारे में अपने ब्लॉग पर लिखा है : Shut up and go home!
ये आन्दोलन सरकार के गिरते विस्वसनीयता की देंन जिसके शीर्ष मंत्री आम लोगो का विस्वास जितने की जगह अपनी वकालत दिखा रहे थे , बार बार तर्कों के सहारे आम जनता को बेवकूफ बनाने की कोसिस में थे , या अपने आका को खुश करने के लिए जनता की नाराजगी भी लेने में गुरेज नहीं की , ये इनकी अपरिपकवता थी ,या अपने आका को खुश करने कोसिस ,लेकिन ये भूल गए आका खुसी में ये आका को ही ले ढुबे
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