Sunday, March 13, 2022

‘फूल-झाड़ू’ की सफलता के निहितार्थ


घरों की सफाई में काम आने वाली ‘फूल-झाड़ू’ राजनीतिक रूपक बनकर उभरी है। पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से तीन बातें दिखाई पड़ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं थी। वहीं, कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। तीसरे, पंजाब में आम आदमी पार्टी की असाधारण सफलता ने ध्यान खींचा है। चार राज्यों में भाजपा की असाधारण सफलता साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित और अंततः 2024 के लोकसभा चुनाव को भी। इस परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है, खासतौर से उत्तर प्रदेश में। पंजाब में आम आदमी पार्टी के पक्ष में आए इतने बड़े जनादेश के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका बढ़ेगी। वहीं पुराने राजनीतिक दलों से निराश जनता के सामने उपलब्ध विकल्पों का सवाल खड़ा हुआ है। पंजाब में तमाम दिग्गजों की हार की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर आम आदमी पार्टी अपेक्षाकृत नई पार्टी है। क्या वह पंजाब के जटिल प्रश्नों का जवाब दे पाएगी

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की सफलता इन सब पर भारी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। उसे यह जीत तब मिली है, जब भाजपा-विरोधी राजनीति ने पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है। महामारी की तीन लहरों, शाहीनबाग की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता-कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर-हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद योगी आदित्यनाथ सरकार को लगातार दूसरी बार फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला वोटर ने किया है। पिछले तीन-चार दशक में ऐसा पहली बार हुआ है। बीजेपी को मिली सीटों की संख्या में पिछली बार की तुलना में करीब 50 की कमी आई है। बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 में भाजपा को जो वोट प्रतिशत 39.67 था, वह इसबार 41.3 है। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। उसे 32.1 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो 2017 में 21.82 प्रतिशत थे। यह उसके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसकी कीमत बीएसपी और कांग्रेस ने दी है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 2.33 प्रतिशत है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। बसपा का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 12.8 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था। राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत 3.36 प्रतिशत है, जो 2017 में 1.78 प्रतिशत था। ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।

पंजाब का गुस्सा

उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी बीजेपी को लगातार दूसरी बार सफलता मिली है, जो इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ सीधे दो दलों के बीच मुकाबला होता है। इसे कांग्रेस के पराभव के रूप में भी देखना होगा, क्योंकि पिछले साल केरल में वाम मोर्चा ने कांग्रेस को हराकर लगातार दूसरी बार जीत हासिल की थी। इसी क्रम में पंजाब, मणिपुर और गोवा में कांग्रेस की पराजय को देखना चाहिए, जहाँ वह या तो सत्ताच्युत हुई है या उसने सबसे बड़े दल की हैसियत को खोया है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर जीत हासिल की है। कांग्रेस 18 सीट के साथ दूसरे स्थान पर रही। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दो सीटों से लड़े थे। दोनों में हार गए। उनके प्रतिस्पर्धी नवजोत सिंह सिद्धू भी हार गए। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, अमरिंदर सिंह और राजिंदर कौर भट्टल को भी हार का सामना करना पड़ा। लगता है कि पंजाब की जनता परम्परागत राजनीति को फिर से देखना नहीं चाहती। आम आदमी पार्टी नई पार्टी है। फिलहाल उसकी स्लेट साफ है, पर अब उसकी परख होगी। 

 

भाजपा की सफलता

राजनीति के गणित और केमिस्ट्री, दोनों दृष्टिकोणों से उत्तर प्रदेश के परिणामों के विश्लेषण की जरूरत है। जिस विचार ने चमत्कार किया वह है सरकार का ‘लाभार्थी-कार्यक्रम।’ मददगार के रूप में भी उसकी छवि बनी है। अन्न-वितरण, पक्के मकान, स्वास्थ्य बीमा, उज्ज्वला, सिलेंडर, किसान सम्मान निधि और डायरेक्ट-ट्रांसफर कार्यक्रमों का फायदा उसे मिला। भाजपा की सफलता का सूत्र है, ‘राशन और प्रशासन।’ राज्य के शहरों और कस्बों में गुंडागर्दी पर लगाम लगाने का श्रेय योगी आदित्यनाथ सरकार को जाता है। कोरोना की तीन लहरों, नागरिकता कानून से लेकर किसान आंदोलन तक के कारण जनता के मन में बैठे असंतोषों को बीजेपी ने जिस कौशल से जज्ब किया, वह भी ध्यान देने लायक है।

संगठन-क्षमता

पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत परम्परागत पार्टियों के प्रति वोटर की वितृष्णा को एकबार फिर से उजागर कर रही है। अंततः यह राजनीतिक-प्रतियोगिता, संगठन-क्षमता और जनता से जुड़ने की सामर्थ्य और कल्याणकारी राज्य की तस्वीर पेश करने का दौर है। 10 मार्च को जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, नरेन्द्र मोदी गुजरात में इस साल के अंत में होने वाले चुनाव-अभियान की शुरुआत एक रैली से कर रहे थे। पिछले साल के अंत में केंद्रीय नेतृत्व ने किसान आंदोलन को खत्म कराने कि लिए जिस तरह से अपने हाथ खींचे, वह भी एक राजनीतिक कौशल था। नरेन्द्र मोदी निर्विवाद रूप से सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं। पार्टी ने जो चुनाव-कुशल मशीनरी तैयार की है, वह अपराजेय नजर आती है। उसके विरोधी उसे सवर्ण जातियों की पार्टी साबित करते हैं, पर वस्तुतः उसका सामाजिक आधार बहुत व्यापक हो गया है। उत्तर प्रदेश में दलितों और पिछड़ों का एक बड़ा वर्ग उसका वोटर है। ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं उसकी कोर-वोटर बनी हैं। पार्टी की मणिपुर विजय उसके व्यापक-आधार की पुष्टि करती है। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में आज यह सत्ता में है। अभी यह दक्षिण की स्थापित पार्टी नहीं है, पर कर्नाटक में इसकी पैठ जम चुकी है।

दलित-प्रश्न

दलित-राजनीति के नजरिए से उत्तर प्रदेश और पंजाब दो सबसे महत्वपूर्ण राज्य हैं। पंजाब में 32 प्रतिशत दलित आबादी है। ग्रामीण-क्षेत्रों में 38 प्रतिशत। बावजूद इसके बहुजन समाज पार्टी की उपस्थिति राज्य की राजनीति में नहीं है। ऐसा क्यों है, इसे समझने के लिए अलग से विश्लेषण की जरूरत है, अलबत्ता इसबार उसे पंजाब में एक सीट मिली है, जो पिछले 25 वर्षों की पहली सबसे बड़ी उपलब्धि है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा नुकसान इसका हुआ है, जिसे केवल एक सीट मिली है। हालांकि मत प्रतिशत के मामले में वह भाजपा और सपा के बाद तीसरे नम्बर की पार्टी है। उसे 12.9 प्रतिशत वोट मिले हैं। 2017 में उसे 19 सीटें मिली थीं, जबकि उसका मत-प्रतिशत 22.25 था, जो उस चुनाव में सपा से ज्यादा था। आरोप है कि बसपा ने सपा को हराने के लिए अपना वोट बीजेपी को ट्रांसफर करा दिया। मायावती का कहना है कि मीडिया ने बीएसपी को बीजेपी की बी टीम के तौर पर प्रचारित किया। इस प्रकार का माहौल बनाया गया कि सपा ही भाजपा का मुकाबला कर सकती है, इस वजह से मुसलमान वोटर सपा के साथ चला गया। बसपा के कोर में उत्तर प्रदेश का सबसे प्रतिबद्ध वोटर है। यह पार्टी शून्य से शुरू करके सत्ता में आई है और भविष्य में उससे उम्मीद रखनी चाहिए। अतीत में बसपा का भाजपा, कांग्रेस और सपा तीनों के साथ गठबंधन हो चुका है। उसकी भविष्य की राजनीति किस दिशा में होगी, अभी कहना मुश्किल है, पर यदि 2024 के चुनाव में वैसी ही स्थितियाँ बनीं, जैसी इसबार के विधानसभा चुनाव में थीं, तो आश्चर्य नहीं कि बसपा किसी गठबंधन में शामिल हो जाए।

हरिभूमि में प्रकाशित

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