‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भारतीय विदेश-नीति के सामने अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर जो पेचीदगियाँ पैदा हुई हैं, उन्हें समझने के लिए हमें कई तरफ देखना होगा.
उनके पीछे अमेरिका की अपनी आंतरिक राजनीति, उनकी
विदेश-नीति की नई प्राथमिकताएँ, ट्रंप के निजी तौर-तरीकों, खासतौर से पाकिस्तान के
बरक्स, भारत की आंतरिक, आर्थिक और विदेश-नीति तथा पाकिस्तान के साथ रिश्तों की
भूमिका भी है.
डॉनल्ड ट्रंप ने इस साल जनवरी में जबसे अपना नया
कार्यकाल शुरू किया है, वे निरंतर विवाद के घेरे में हैं. इसमें सबसे बड़ी भूमिका
उनकी आर्थिक-नीतियों की है. उन्होंने अप्रेल के महीने से जिस नई पारस्परिक टैरिफ
नीति को लागू करने की घोषणा की, उसकी पेचीदगियों से वे खुद भी घिरे हैं.
इसके के तहत दुनिया के तमाम देशों से होने वाले
आयात पर भारी टैक्स लगाने का दावा किया गया. ट्रंप ने उसे ‘मुक्ति दिवस’ बताया, पर
उनका वह कार्यक्रम उस वक्त लागू नहीं हो पाया. इसके बाद उन्होंने इसके लिए 8 जुलाई
की तारीख तय की, फिर उसे 1 अगस्त किया और अब 7 अगस्त से कुछ देशों पर नई दरें लागू
करने का दावा किया है.
भारत की चिंता
यह योजना कितनी सफल या विफल होगी, यह वक्त
बताएगा. हमारी निगाहों में भारत के साथ अमेरिका के रिश्ते ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.
इसके दो अलग-अलग आयाम हैं. एक है, भारत-अमेरिका व्यापार संबंध और दूसरा है दक्षिण
एशिया को लेकर अमेरिका की नीति. इस समय दोनों गड्ड-मड्ड होती नज़र आ रही हैं. पर
उससे ज्यादा डॉनल्ड ट्रंप के बयान ध्यान खींच रहे हैं.
ट्रंप बार-बार कह रहे हैं कि मैंने भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम कराया. यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अमेरिका जैसे देश का राष्ट्रपति बार-बार इस बात को क्यों कह रहा है.
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बहुत सी बातें बैकरूम
होती हैं, उन्हें लेकर हल्के बयानों का मतलब क्या है? अब लग रहा है कि इनके पीछे व्यक्तिगत चिढ़ है. खासतौर से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के फौरन बाद पाकिस्तान
के सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर को लंच पर बुलाना और आए दिन व्यंग्य-बाण छोड़ना, क्या
बताता है?
कड़वे बयान
हाल में कहा, हम पाकिस्तान में पेट्रोलियम की
खोज करने जा रहे हैं और हो सकता है कि ऐसा समय आए, जब भारत को पाकिस्तानी
पेट्रोलियम खरीदना पड़े. यह एक तरह का मज़ाक है, क्योंकि पाकिस्तान में ऐसा कोई
पेट्रोलियम भंडार नहीं है.
फिर बोले कि भारत और रूस की अर्थव्यवस्थाएं मृत
हैं. उन्हें इतनी समझ होगी कि इस बयान के भारतीय राजनीति के लिहाज से कुछ
निहितार्थ हैं, पर रूस के पेट्रोलियम की खरीद न करें, कहना एक प्रकार से भारत की
संप्रभुता में हस्तक्षेप है.
हालाँकि भारत ने इन बातों का कोई औपचारिक जवाब
नहीं दिया है, पर अनौपचारिक रूप से संकेत दे दिया गया है कि रूस से पेट्रोलियम
खरीदना बंद नहीं किया जाएगा.
व्यावहारिक सत्य
यह भी सच है कि आज भी अमेरिका दुनिया की सबसे
बड़ी ताकत है और हमें उसके साथ रिश्ते बनाकर रखने चाहिए. दूसरा सच यह भी है कि
हमें अपनी आर्थिक-नीतियों में तेजी से बदलाव लाने की जरूरत है और स्वदेशी-उद्योगों
और खेती को वैश्विक-स्तर पर प्रतियोगी बनाने के लिए तेजी से बदलाव करने होंगे.
इन दो बातों के बावजूद भारत को यह ध्यान रखना
होगा कि मामला केवल आर्थिक हितों का ही नहीं, राष्ट्रीय अभिमान और सम्मान का भी
है. आर्थिक या सामरिक रिश्तों की जटिलताएँ फुटकर बयानों के मार्फत नहीं सुलझाई जा
सकती हैं. उन्हें मेज पर आमने-सामने बैठकर ही सुलझाया जा सकता है.
भारत सरकार ने भी व्यापार संबंधों को लेकर
ज्यादा टिप्पणियाँ नहीं की हैं, अलबत्ता संसद में केवल इतना कहा है कि हम
राष्ट्रीय हितों को देखते हुए ही कोई समझौता कर सकते हैं.
अमेरिका के विकल्प
भारत ने इस दौरान यूनाइटेड किंगडम के साथ
व्यापार समझौता कर लिया है और जल्द ही यूरोपियन यूनियन के साथ समझौता होने की
उम्मीद है. इसके साथ ही भारत दूसरे देशों के साथ भी बात कर रहा है, ताकि अमेरिका
के विकल्प खोजे जा सकें.
वैश्विक-स्तर पर भ्रम जल्द खत्म होने वाला नहीं
है, पर भारतीय विदेश-नीति की दिशा मंथर गति से सही राह पर है. अमेरिका या रूस के
साथ रिश्तों के अलावा हमारा ध्यान अपने आसपास ही सबसे ज्यादा रहेगा, क्योंकि उसके
साथ राष्ट्रीय-सुरक्षा के मसले जुड़े हैं.
पाकिस्तान की भूमिका
पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष के साथ ट्रंप के अचानक
बढ़ते रिश्तों के तमाम आयाम ट्रंप की निजी प्राथमिकताओं और पाकिस्तान की
आंतरिक-राजनीति से जुड़े हैं, पर एक आयाम भारतीय सुरक्षा का भी है.
विदेशी कर्ज़ और आंतरिक राजनीतिक-आंदोलनों से
जूझता पाकिस्तान हाल में भू-राजनीति के हाशिए
पर चला गया था. अमेरिका और अन्य अमीर देशों का भारत के साथ दोस्ताना रुख भी
पाकिस्तान की पीड़ा का एक कारण था, पर भारत
के साथ पाकिस्तान के संक्षिप्त टकराव के एक महीने बाद, 18
जून को, पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष वाइट हाउस में ट्रंप के साथ
निजी लंच का आनंद ले रहे थे.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के बजाय उनके
सेनाध्यक्ष से संवाद अटपटा लगता है, पर व्यावहारिक-राजनीति में बहुत सी बातें स्वीकार्य
होती हैं. फिर, जुलाई के अंत में, ट्रंप
ने भारत को ‘डैड इकोनॉमी’ करार देते हुए, पाकिस्तान के
साथ व्यापार समझौता किया और भारत पर 25 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया.
बदलती राहें
ये बातें निजी सनक से ज्यादा अमेरिकी नीति में आ
रहे किसी किस्म के बदलाव का संकेत भी कर सकती हैं. इन बातों का असर भारत, चीन और पश्चिम एशिया की राजनीति पर पड़ेगा. ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने
हाल में इस तरफ ध्यान दिया है.
2011 में अमेरिकी सेना द्वारा ओसामा बिन लादेन
को उसके पाकिस्तानी ठिकाने में मार गिराने के बाद अमेरिका के पाकिस्तान के साथ
घनिष्ठ संबंध बिगड़ गए. उसके एक दशक बाद अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने के बाद अमेरिका की
रुचि भी कम हो गई.
भारत के लिए निराशा की बात यह है कि अमेरिका और
पाकिस्तान अब व्यापार, आतंकवाद-निरोध और पश्चिम एशिया नीति
पर परामर्श कर रहे हैं. हालाँकि पाकिस्तान को इस समय ज्यादातर हथियार चीन से मिल
रहे हैं, संभव है कि उसे अमेरिका से हथियार मिलने लगें.
आसिम मुनीर का उदय
पाकिस्तान की राजनीति भी निर्णायक मोड़ पर है.
जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान, हालाँकि खासे
लोकप्रिय हैं, पर भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद फील्ड मार्शल मुनीर की लोकप्रियता में उछाल
आया है और पाकिस्तानी मीडिया उन्हें बढ़-चढ़कर महत्वपूर्ण साबित कर रहा है.
इमरान खान बार-बार अपने हटाए जाने के पीछे
अमेरिका का हाथ बता रहे थे. इमरान खान ने 24 जुलाई को जेल से एक बयान में कहा है कि
पाकिस्तान में मार्शल लॉ नहीं, बल्कि ‘असीम लॉ’ लागू है.
अफवाहें हैं कि मुनीर राष्ट्रपति भी बन सकते हैं,
पाकिस्तान के इतिहास में फौजी-शासन का चौथा दौर शुरू हो सकता है.
हालाँकि मुनीर ने कहा है कि मेरी दिलचस्पी राष्ट्रपति बनने में नहीं है, पर इतिहास
की बड़ी लहरें कई बार अचानक सुनामी की तरह आती हैं.
मुनीर एक इमाम के बेटे हैं और उनकी शिक्षा एक
मदरसे में हुई है और उन्हें कुरान कंठस्थ है. वे पहले पाकिस्तानी सेना प्रमुख हैं,
जिन्होंने अमेरिका या ब्रिटेन में प्रशिक्षण नहीं लिया है. फिर भी शायद अमेरिका को
लगता है कि वे इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ाई में काम आएँगे.
पश्चिम एशिया
ध्यान दें कि अमेरिका ने हाल में उस टीआरएफ को
आतंकवादी संगठन घोषित किया है, जिसने पहलगाम हत्याकांड को अंजाम दिया था. पाकिस्तान
को ईरान के साथ अमेरिकी हितों के संवर्धन और मुस्लिम देशों को इसराइल के साथ
राजनयिक रिश्ते बनाने की कोशिशों में भी पाकिस्तान की इस्तेमाल किया जा सकता है.
बताते हैं कि मुनीर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस
मुहम्मद बिन सलमान के आधुनिकीकरण अभियान के प्रशंसक हैं. बहुत सी बातें आने वाले
कुछ महीनों में स्पष्ट होंगी. 2027 में उनका वर्तमान कार्यकाल समाप्त होगा.
सवाल है कि क्या उसके पहले वे कोई स्थायी राजनीतिक पद ले सकते हैं?
पाकिस्तान की राजनीति मानती है कि इस समय देश
में ‘हाइब्रिड’ शासन-व्यवस्था काम कर रही है. 57 वर्ष की
आयु में, आसिम मुनीर, परवेज़ मुशर्रफ के बाद सबसे शक्तिशाली
सेना प्रमुख हैं. यह भी स्पष्ट हो रहा है कि उनके अधीन एक प्रधानमंत्री है. यदि
वर्तमान व्यवस्था को कोई राजनीतिक शक्ल दे दी जाए, तो मुनीर अनिश्चित काल तक
शासनाध्यक्ष बने रह सकते हैं. और उन्हें अमेरिका का समर्थन मिलेगा.
भारतीय विदेश-नीति
क्या भारत को अमेरिकी नीति में आ रहे बदलाव का
आभास नहीं रहा होगा? जरूर रहा होगा. आखिर भारत ने इस दौरान ही चीन के
साथ रिश्तों में सुधार की प्रक्रिया शुरू की है. पर स्थायी रूप से न तो चीन हमारा
गहरा मित्र हो जाएगा और न अमेरिका हमारा दुश्मन.
पाकिस्तान भी अमेरिका के साथ रिश्ते कायम करने
के बाद चीन का साथ नहीं छोड़ देगा. राष्ट्रीय-हितों की जटिलता को पढ़ने के लिए
अनेक बातों को पढ़ना होगा. अभी यह भी कहना मुश्किल है कि अमेरिका और रूस के रिश्ते
किस दिशा में जाएँगे. सबसे बड़ी बात यह कि ट्रंप की ताज़ा मुहिम के बाद अमेरिकी
अर्थव्यवस्था की दिशा क्या होगी?
अमेरिकी राजनीति
ट्रंप का पहला साल पूरा होने दीजिए. उनकी
अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य और डॉलर की हैसियत का पता लगने दीजिए. उसके एक साल बाद
अमेरिका में मध्यावधि चुनाव होंगे, जिनसे ट्रंप के भविष्य का अनुमान लगने लगेगा.
पर यह भी मानें कि अमेरिका के फैसले किसी एक व्यक्ति की सनक पर निर्भर नहीं करते
हैं.
अनुभवी लोग बताते हैं कि टैरिफ़ से सामान बेचने
वालों को उतना नुकसान नहीं होता, जितना खरीदारों को होता है. अमेरिका जितना
ज़्यादा टैरिफ़ बढ़ाएगा, उनके अपने देशवासियों के लिए कम
कीमतों पर विकल्प उतने ही कम होते जाएँगे.
आईएमएफ ने इस साल वैश्विक और अमेरिकी आर्थिक
विकास के अपने अनुमानों को अप्रैल में किए गए पूर्वानुमानों की तुलना में बढ़ा
दिया है. हालाँकि ट्रंप के कार्यभार ग्रहण से इसमें गिरावट आई है.
अर्थव्यवस्था को कई तरह की ताकतें चला रही हैं. टैरिफ
लागू होने से पहले के भारी भंडार तकलीफों को टाल भी रहे हैं. इधर आर्टिफीशियल
इंटेलिजेंस पर आधारित पूंजीगत खर्च (मशीनरी पर खर्च) में असाधारण उछाल आया है. इस
दौरान चीनी अर्थव्यवस्था में आ रहे बदलावों पर भी नज़र रखनी होगी.
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