महाराष्ट्र में एनसीपी की बगावत के पीछे एक बड़ा कारण यह बताया जाता है कि उसके कुछ नेता ईडी की जाँच के दायरे में हैं और उससे बचने के लिए वे बीजेपी की शरण में आए हैं। यह बात आंशिक रूप से ही सही होगी, कारण दूसरे भी होंगे, पर इस बात को छिपाना मुश्किल है कि बड़ी संख्या में राजनीतिक नेताओं पर गैर-कानूनी तरीके से कमाई के आरोप हैं। यह बात राजनीतिक-प्रक्रिया को प्रभावित करती है। तमिलनाडु में बिजली मंत्री वी सेंथिल बालाजी की गिरफ्तारी के बाद प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई की भूमिका को लेकर बहस एकबार फिर से शुरू हुई है। दूसरी तरफ तमिलनाडु सरकार ने राज्य में सीबीआई को मिली ‘सामान्य अनुमति (जनरल कंसेंट)’ वापस लेकर जवाबी कार्रवाई भी की है। साथ ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा, हम हर तरह की राजनीति करने में समर्थ हैं। यह कोरी धमकी नहीं, चेतावनी है। डीएमके के आदमी को गलत तरीके से परेशान मत करो। हम जवाबी कार्रवाई करेंगे, तो आप बर्दाश्त नहीं कर पाओगे।
स्टालिन की इस चेतावनी में राजनीति के कुछ
सूत्र छिपे हैं। सरकारी संस्थाएं और व्यवस्थाएं कुछ उद्देश्यों और लक्ष्यों को
लेकर बनी हैं। उनके सदुपयोग और दुरुपयोग पर पूरी व्यवस्था निर्भर करती है। स्टालिन
की बात के जवाब में बीजेपी का कहना है कि हम भ्रष्टाचारियों का पर्दाफाश करेंगे। यह
उसका राजनीतिक नारा है, रणनीति और राजनीति भी। उसके पास आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी
तीन एजेंसियाँ हैं, जो उस नश्तर की तरह हैं, जो इलाज करता है और कत्ल भी। उच्चतम
न्यायालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को
मिले अधिकार को उचित ठहराकर सरकार के हाथ और मजबूत कर दिए हैं। आर्थिक अपराधों की
बारीकियों को समझना आसान नहीं है। आम आदमी पार्टी जिन नेताओं को कट्टरपंथी ईमानदार
बताती है, उनका महीनों से कैद में रहना इसीलिए आम आदमी को समझ में नहीं आता। क्या
वास्तव में किसी ईमानदार व्यक्ति को इस तरह से सताने की इजाजत हमारी व्यवस्था देती
है?
द्रमुक के नेता और बिजली मंत्री बालाजी को ‘नौकरी के बदले नकदी’ घोटाले से जुड़े धन-शोधन के एक मामले में 14 जून को ईडी ने गिरफ्तार किया। वे वर्तमान डीएमके सरकार के पहले मंत्री हैं, जिन्हें गिरफ्तार किया गया है। हालांकि मुख्यमंत्री इसे बदले की कार्रवाई बता रहे हैं, पर ईडी का कहना है कि उसके पास मंत्री के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं। गिरफ्तारी के बावजूद मुख्यमंत्री ने उन्हें मंत्रिपद पर बरकरार रखा है। स्टालिन का कहना है कि बीजेपी अपने उन विरोधियों को डराने के लिए आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी जैसी जांच-एजेंसियों का इस्तेमाल करती है, जिनका वह राजनीतिक मुकाबला नहीं कर सकती। स्टालिन के अनुसार ईडी ने बीजेपी के सरकार में आने से पहले 10 साल में 112 छापे मारे थे, जबकि 2014 में बीजेपी के केंद्र में आने के बाद लगभग 3000 छापे मारे गए हैं।
घोटाले ही घोटाले
पिछले दो दशकों में यूपीए और एनडीए सरकारों के
दौर पर नज़र डालें, तो पाएंगे कि इस दौरान दो सौ से ऊपर राजनीतिक नेताओं के खिलाफ
मुकदमे कायम हुए हैं, उनपर छापे पड़े हैं और गिरफ्तारियाँ हुई हैं। हालांकि कुल
कार्रवाइयों को देखते हुए यह संख्या अपने आप में बहुत छोटी है, पर इसमें ध्यान
देने वाली बात यह है कि दोनों सरकारों के दौर में मुख्य निशाना विरोधी दल बने हैं।
यह भी सच है कि यूपीए के दौर में जितनी कार्रवाइयाँ हुईं, उनसे कहीं ज्यादा संख्या
में एनडीए के दौर में हो रही हैं। दोनों दौर में यह भी देखा गया कि जैसे ही व्यक्ति
पार्टी बदलता है, कार्रवाई की कड़ाई कम हो जाती है।
पिछले कुछ दशकों का इतिहास घोटालों से भरा है।
सूची बनाएं तो सैकड़ों घोटाले हैं, पर सजा पाने वालों की सूची काफी छोटी
है। यूपीए सरकार के आखिरी तीन साल भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से घिरे रहे। क्या
वह आंदोलन दिखावटी था? सत्ता हथियाने की साजिश? क्या कारण है कि ‘मैं बेईमान तो तू डबल बेईमान’ जैसा तर्क राजनीतिक
ढाल बन गया? इसी वजह से टू-जी मामला अपने मतलब को खोकर
राजनीति की चौखट पर दम तोड़ गया। जनता का सवाल है कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामले
तार्किक परिणति तक क्यों नहीं पहुँचते? मामले में दम ही
नहीं था, तो ए राजा को 15 महीने तक और कनिमोई को साढ़े
तीन महीने तक जेल में क्यों रहना पड़ा? यह सरकार को
बदनाम करने की बीजेपी की साजिश थी तो यूपीए सरकार ने ए राजा को बर्खास्त क्यों
किया?
ईडी ने हाल में कई हाई प्रोफाइल लोगों की
गिरफ्तारी की है। दिल्ली के मनीष सिसौदिया और सत्येंद्र जैन के अलावा पिछले साल
अप्रेल में शिवसेना के सांसद संजय राउत को मुंबई के एक चाल घोटाले में और एनसीपी
के नेता नवाब मलिक को दाऊद इब्राहीम से जुड़े मनी लाउंडरिंग के एक मामले में गिरफ्तार
किया गया था। पश्चिम बंगाल के मंत्री पार्थ चटर्जी की गिरफ्तारी भी ईडी ने की थी। इसके
पहले 2019 में ईडी ने कर्नाटक के कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार को कर अपवंचना और
करोड़ों रुपये के हवाला लेन-देन के मामले में गिरफ्तार किया था। इनके अलावा सोनिया
गांधी, राहुल गांधी, फारूक अब्दुल्ला, अजित पवार, अनिल परब और पी चिदंबरम के बेटे
कार्ति चिदंबरम से पूछताछ की थी। काफी मामले अदालतों में हैं और कई में जाँच चल
रही है।
सच क्या है?
इन गिरफ्तारियों और छापेमारी के पीछे राजनीतिक कारण जितने साफ हैं, उतनी ही साफ
बात यह भी है कि ज्यादातर मामलों के पीछे कुछ न कुछ जरूर है। सीबीआई की राजनीतिक
भूमिका पर उसके ही पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह और बीआर लाल ने काफी रोशनी डाली है।
संगठन के भीतर फैले भ्रष्टाचार की भी काफी चर्चा हुई है, पर जिन दस राज्य सरकारों
ने उसे प्रदान की गई सामान्य अनुमति को वापस लिया है, उसके पीछे भी राजनीतिक कारण
हैं। सीबीआई के दुरुपयोग आरोप देश में पहली बार नहीं लगा है, और लगता नहीं कि केन्द्र की कोई भी सरकार इसे बंधन-मुक्त करेगी।
राज्य सरकारें भी दूध की धुली नहीं हैं। सुप्रीम
कोर्ट के निर्देशों के बावजूद वे पुलिस-सुधार को तैयार नहीं हैं और पुलिस का
इस्तेमाल अपने तरीके से करना चाहती हैं। राजनीतिकरण इधर भी है और उधर भी। संघीय-व्यवस्था
में केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच इस प्रकार का विवाद अशोभनीय है। देश की जिन
कुछ महत्वपूर्ण संस्थाओं को जनता की जानकारी के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया
है, उनमें सीबीआई भी है। इसके पीछे राष्ट्रीय
सुरक्षा और मामलों की संवेदनशीलता को मुख्य कारण बताया जाता है, पर जैसे ही इस संस्था को स्वायत्त बनाने और सरकारी नियंत्रण से बाहर
रखने की बात होती है, सभी सरकारें हाथ खींच लेती हैं। सुप्रीम
कोर्ट ने मई 2013 में जब इस संस्था को ‘पिंजरे में कैद तोता’ कहा था, तब यूपीए सरकार थी। लोकपाल विधेयक पर संसद में बहस के दौरान भी सीबीआई
की स्वायत्तता के सवाल उठे थे।
ममता बनर्जी बीजेपी पर आरोप भले ही लगाएं, पर
सच यह है कि पश्चिम बंगाल में सारदा ग्रुप से जुड़े वित्तीय घोटाले की खबरें सन
2013 में ही सामने आ चुकी थीं। सीबीआई को इस मामले की जाँच सुप्रीम कोर्ट ने मई
2014 में हुए सत्ता परिवर्तन के ठीक पहले सौंप दी थी। इस घोटाले के साथ कुछ
राजनीतिक नेताओं के नाम भी जुड़े हैं। एक आरोप यह भी है कि सारदा ग्रुप के चेयरमैन
और मैनेजिंग डायरेक्टर सुदीप्तो सेन ने ममता बनर्जी की कुछ पेंटिंग 1.86 करोड़
रुपये में खरीदीं। बाद में सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके सार्वजनिक पुस्तकालयों
को निर्देश दिया कि वे सारदा ग्रुप द्वारा प्रकाशित अखबारों को खरीदें।
पार्टी बदली, दिशा बदली
इस बात का दूसरा पहलू यह है कि सत्तापक्ष के राजनेताओं
पर जब आँच आती है, तब जाँच की दिशा बदल जाती है। इनमें असम के हिमंत बिस्व सरमा और
पूर्व केन्द्रीय रेलमंत्री मुकुल रॉय के नाम भी हैं, जो
बाद में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। मुकुल रॉय से पूछताछ सन 2015 में
हुई थी, तब वे तृणमूल कांग्रेस में थे। वे बीजेपी में
सन 2017 में आए और फिर बीजेपी को भी छोड़ गए। हिमंत बिस्व सरमा के घर पर सीबीआई ने
पहले छापे मारे थे, पर चार्जशीट में उनका नाम नहीं आया। इस
मामले पर राजनीति का रंग चढ़ जाने के बाद सही और गलत का फैसला करना बहुत मुश्किल
हो गया है।
अतीत में पीवी नरसिंहराव, जे जयललिता, लालू
प्रसाद यादव, मायावती और मुलायम सिंह यादव तक इसकी जाँच के घेरे में आए। जयललिता
और लालू यादव तक इसकी जाँच की तपिश भी पहुँची, पर दूसरे बहुत से राजनेता इसकी
ढिलाई से बच गए। ऐसा ही टू-जी घोटाले में हुआ। सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले से एक
निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि अभियोजन की ढिलाई से घोटाला साबित नहीं हो पाया।
अनुभव बताता है कि हमारे देश में जब कोई बड़ा आदमी फँसता है तो पूरी कायनात उसे
बचाने को व्याकुल हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि सीबीआई अकुशल जाँच एजेंसी है।
2017 में टू-जी फैसले के कुछ दिन पहले दिल्ली की स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने कोयला
घोटाले का फैसला सुनाया था। इसमें कोयला झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को
तीन साल की सजा सुनाई गई। कोड़ा के अलावा पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता, झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव अशोक कुमार बसु और एक अन्य को आपराधिक षड्यंत्र
और धारा 120 बी के तहत दोषी माना गया और तीनों को तीन-तीन साल की सजा सुनाई गई। सच
यह भी है कि इसमें फँसे लोग राजनीति के लिहाज से कम प्रभावशाली हैं। छोटे लोग
आसानी से सिस्टम में फँसते हैं और सबसे छोटे लोग देश की जेलों के आम-निवासी हैं।
व्यवस्था के छेद
आजादी के बाद से अब तक का अनुभव है कि
भ्रष्टाचार के मामले तकनीकी पहलुओं में दफन हो जाते हैं। आम जनता इनकी बारीकियों
को नहीं समझती। चालाक वकीलों और धूर्त राजनेताओं को व्यवस्था की आड़ मिलती है। हम
दो-एक महीने खबरों का पीछा करते हैं, फिर भूल जाते
हैं। पूरे सिस्टम में छेद भरे पड़े हैं। बेईमानों को इन छिद्रों का लाभ मिलता है।
निराश होने के लिए हमारे पास तमाम कारण हैं, पर
उम्मीद की किरणें भी हैं। इसी व्यवस्था ने लालू यादव, ओम प्रकाश
चौटाला, मधु कोड़ा, जे
जयललिता और शशिकला को दोषी साबित किया है। यह संख्या छोटी है, पर है तो सही।
सीबीआई की स्थापना दिल्ली स्पेशल पुलिस
एस्टेब्लिशमेंट (डीएसपीई) एक्ट के तहत हुई थी, जिसका कार्यक्षेत्र दिल्ली ही था।
चूंकि संविधान के अंतर्गत कानून-व्यवस्था और अपराधों की पड़ताल राज्य-क्षेत्र में
आते हैं, इसलिए राज्यों में जाँच के लिए सीबीआई को विशेष अनुमति की जरूरत होती है।
इस अनुमति के दो तरीके हैं। एक, एक्ट की धारा 6 के तहत उसे सामान्य अनुमति (जनरल
कंसेंट) प्रदान कर दी जाए और दूसरे हरेक मामले के लिए राज्य सरकार से अनुमति माँगी
जाए। शुरू में काफी राज्यों ने उसे सामान्य अनुमति प्रदान की थी, पर पिछले कुछ
वर्षों में कई राज्यों ने यह अनुमति वापस ली है।
गत 14 जून को तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र
कषगम नेतृत्व वाली सरकार ने भी सीबीआई को
मिली सामान्य अनुमति वापस ले ली है। अब एजेंसी के पास राज्य सरकार की अनुमति के
बिना मामलों की जांच करने का सीधा अधिकार नहीं रहा। राज्य सरकार ने यह कदम उस दिन
उठाया, जब उसके बिजली मंत्री वी सेंथिलबालाजी को एक अन्य केंद्रीय एजेंसी, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने गिरफ्तार किया। मार्च में, केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद को बताया था कि नौ राज्यों-
मिजोरम, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़,
राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल,
झारखंड, पंजाब और मेघालय ने सीबीआई को दी गई
अपनी सामान्य अनुमति वापस ले ली है। इस प्रकार तमिलनाडु दसवाँ राज्य इस सूची में
शामिल हो गया है।
डीएसपीई अधिनियम, 1946 की
धारा 6 के अनुसार, सीबीआई
को अपने अधिकार क्षेत्र में जांच करने के लिए संबंधित राज्य सरकारों से अनुमति की
आवश्यकता होती है। राज्य सरकारों द्वारा सीबीआई को दी गई एक सामान्य अनुमति
केंद्रीय एजेंसी को इस तरह की बाधाओं के बिना जांच करने में समर्थ बनाती है। राज्य
सरकारों के इस फैसले से दो बातें ज़ाहिर होती हैं। एक, सीबीआई की जाँच के राजनीतिक
निहितार्थ हैं और दूसरे पिछले आठ वर्ष में उसकी गतिविधियों में तेजी आई है और साथ
ही विरोधी दलों के अधीन बनी सरकारों में उसकी प्रतिक्रिया हुई है। मिजोरम ने जुलाई
2015 में सीबीआई से अपनी सामान्य अनुमति वापस ली
थी। पश्चिम बंगाल ने नवंबर 2018 में और छत्तीसगढ़ ने जनवरी 2019 में। राजस्थान,
महाराष्ट्र, केरल, झारखंड
और पंजाब ने 2020 में और मेघालय ने 2022 में अनुमति वापस ली। आंध्र प्रदेश ने भी
इस अनुमति को वापस लिया था, पर बाद में अनुमति दे दी।
संशय के भँवर
बीजेपी की दिलचस्पी उन राज्यों में सक्रियता
बढ़ाने में है, जिनमें उसकी सरकार नहीं है। इस लिहाज
से पिछले साल झारखंड कांग्रेस के तीन विधायकों की गिरफ्तारी के पीछे भी कोई कहानी थी।
कांग्रेस ने भी इन विधायकों पर कार्रवाई की, पर
अंदेशा व्यक्त किया है कि सरकार के खिलाफ साजिश रची जा रही है। बहरहाल वहाँ हेमंत
सोरेन की सरकार अभी चल रही है। अलबत्ता मुख्यमंत्री के सहायक पंकज मिश्रा को ईडी
ने गिरफ्तार किया था, जिन्हें अभी तक जमानत नहीं मिली है।
हाल में ईडी ने स्कूली शिक्षा विभाग से जुड़े
घोटाले की जाँच करते हुए ‘नौकरी देने के नाम पर रकम उगाही’ का एक मामला पकड़ा है। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने कहा कि सरकार ने ‘नौकरी देने का रेट-कार्ड’ बना रखा था। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार 60 नगरपालिकाओं
में सफाई कर्मियों, मज़दूरों, क्लर्कों, चपरासियों, एंबुलेंस अटेंडेंटों, पंप
ऑपरेटरों, सैनिटरी सहायकों, ड्राइवरों और हैल्परों के 6000 पदों पर पैसा लेकर
भर्तियाँ की गईं। पूरा घोटाला करीब 300 करोड़ रुपये का बताया जाता है। इस किस्म की
तहकीकातों के तार्किक परिणति तक पहुँचने में होने वाली देरी संशय पैदा करती है।
फिलहाल संशय के इन्हीं भँवरों से हम घिरे हैं।
भारत वार्ता में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment