इस हफ्ते 14 जुलाई को भारत के चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण प्रस्तावित है. यह देश का तीसरा चंद्रयान मिशन है, जिसके साथ बहुत सी बातें जुड़ी हुई हैं. सबसे बड़ी बात राष्ट्रीय-प्रतिष्ठा की है. अंतरिक्ष-विज्ञान में सफलता को तकनीकी श्रेष्ठता का मापदंड माना जाता है. एक ज़माने में रूस और अमेरिका के बीच अंतरिक्ष में प्रतियोगिता थी. वैसा ही कुछ अब अमेरिका और चीन के बीच देखने को मिल रहा है. अब भारत भी इस प्रतियोगिता में शामिल हो गया है.
प्रतिष्ठा की मनोकामना, प्रतियोगिता को बढ़ाती
है. लंबे समय तक भारत की छवि पोंगापंथी, गरीब, पिछड़े और अराजक देश के रूप में रही
या बनाई गई, पर अब उसमें तेजी से बदलाव आ रहा है. बेशक हम गरीब हैं, पर हमारे लोगों
ने तकनीकी कौशल का प्रदर्शन किया है. भारतीय इंजीनियरों, डॉक्टरों और
अंतरिक्ष-विज्ञानियों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक ने दुनिया में अपनी श्रेष्ठता साबित
की है.
उपहास और तारीफ़
2014 में भारत के मिशन मंगलयान की सफलता पर अमेरिकी
अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में एक कार्टून छपा, जिसमें भारतीय
कार्यक्रम का मज़ाक बनाया गया था. कार्टून में दिखाया गया था कि एक किसान, बैल को लेकर मंगल ग्रह पर पहुंचकर दरवाज़ा खटखटा रहा है और अंदर
तीन-चार विकसित, पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक बैठे हुए
हैं और लिखा हुआ है ‘एलीट स्पेस क्लब.’
इस कार्टून को लेकर ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को काफ़ी आलोचना झेलनी पड़ी और कई पाठकों ने इसे भारत जैसे विकासशील
देशों के प्रति पूर्वग्रह से ग्रस्त बताया. पाठकों की तीखी प्रतिक्रिया के बाद अखबार ने माफ़ी माँग
ली.
उसी ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने पिछले हफ्ते 6 जुलाई को भारत के अंतरिक्ष
कार्यक्रम की तारीफ की है. ‘विश्व
के अंतरिक्ष व्यवसाय में आश्चर्यजनक प्रयास’ शीर्षक आलेख में अखबार ने लिखा है
कि जिस तरह से भारत अंतरिक्ष कार्यक्रमों में छलांग लगा रहा है, उससे लगता है कि
वह चीन को टक्कर देने की स्थिति में आ गया है.
चीन को टक्कर
अखबार ने लिखा, दुनिया के सबसे बड़े
लोकतांत्रिक देश में अंतरिक्ष-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से स्टार्ट-अप
विकसित हो रहे हैं और संकेत दे रहे हैं कि वह इस क्षेत्र में व्यापक बदलाव ला सकता
है तथा चीन को भी ‘बराबर की टक्कर’ देने वाली ताकत के रूप में उभर सकता है.
भारत में कम से कम 140 पंजीकृत अंतरिक्ष-प्रौद्योगिकी स्टार्ट-अप हैं, जिनमें एक स्थानीय अनुसंधान क्षेत्र भी शामिल है. यह इस क्षेत्र में व्यापक बदलाव ला सकता है. अमेरिका ने भारत को ‘नवोन्मेष का एक संपन्न केंद्र’ और ‘दुनिया में सबसे प्रतिस्पर्धी प्रक्षेपण स्थलों में से एक’ माना है.
‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने लिखा, पूँजी निवेशकों में अंतरिक्ष-प्रौद्योगिकी
स्टार्ट-अप की भारत के ‘सबसे अधिक माँग’ है और उनकी वृद्धि ‘बेहद उल्लेखनीय’ है.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बेंगलुरु, हैदराबाद,
पुणे तथा अन्य जगहों पर समूहों में करीब 400 निजी कंपनियां बनाई हैं.
हरेक कंपनी अंतरिक्ष-अनुसंधान के लिए विशेष स्क्रू, सीलेंट
और अन्य उत्पाद बनाने को समर्पित है.
अंतरिक्ष कार्यक्रम क्यों?
अक्सर कहा जाता है कि भारत की दो तिहाई आबादी
के लिए शौचालय नहीं हैं. देश के आधे बच्चे कुपोषित हैं. चंद्रयान से ज्यादा जरूरी
उनके पोषण के बारे में क्या हमें नहीं सोचना चाहिए? भारत
जैसे गरीब देशों को अंतरिक्ष-कार्यक्रमों की भला क्या जरूरत? क्या इससे आदमी की जिंदगी
बेहतर हो जाएगी?
ये सारे सवाल वाजिब हैं, पर सोचें
कि क्या ये सवाल हम उन मौकों पर भी करते हैं, जब पैसा फूँका जाता है? मसलन जब हमारे पड़ोस में शादी, बर्थडे,
मुंडन या ऐसी ही किसी दावत पर निरर्थक पैसा खर्च होता है, तब क्या ऐसे
सवाल हमारे मन में आते हैं?
अब कुछ दूसरी संख्याओं को देखें. हाल में
चर्चित तेलुगु फिल्म ‘आरआरआर’ का बजट था
550 करोड़ रुपये, ‘आदि पुरुष’ हिंदी का बजट
500 और तेलुगु का बजट 700 करोड़ रुपये था. मंगलयान अभियान पर
कुल खर्च आया था 450 करोड़ रुपये. फिल्में बनाना बंद कर दें तो क्या साल भर में
सारे लक्ष्य हासिल हो जाएंगे?
व्यावहारिक उपयोगिता
हाल में गुजरात में आया बिपरजॉय (या विपर्यय)
तूफान हज़ारों की जान लेता, पर मौसम विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों
की मदद से सही समय पर सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया. अक्टूबर 1999
में ओडिशा में आए ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा
लोग मरे थे.
अंतरिक्ष-अनुसंधान के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों
का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार
यहाँ तक कि सुरक्षा में होता है. विज्ञान की खोज की सीढ़ियों की तरह है. हम जितनी ऊँची सीढ़ी से शुरुआत करेंगे, उतना
अच्छा. इन खोजों को बंद करने से सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को तेजी मिल जाए, तो फिर क्या कहना?
जिस देश में एक फिल्म का बजट एक मंगलयान के
बराबर हो या जहाँ लोग दीवाली की रात 5,000 करोड़ रुपए की
आतिशबाजी फूँक देते हों, उससे ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि बच्चों की शिक्षा के लिए
पैसा क्यों नहीं है? वास्तव में मंगलयान से गरीबी दूर नहीं
होगी, मंगलयान न भेजें तब गरीबी दूर करने की गारंटी है क्या?
मौसम और दूरसंचार
भारत के मुकाबले नाइजीरिया पिछड़ा देश है. उसकी
तकनीक भी विकसित नहीं है. पर इस वक्त नाइजीरिया के पाँच उपग्रह पृथ्वी की कक्षा
में चक्कर लगा रहे हैं. सन 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल
करने के प्रयास में है. उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम
की जानकारी देने का काम कर रहे हैं.
यूएई की स्पेस एजेंसी का जन्म 2014 में हुआ था.
सन 2010 के बाद से ऑस्ट्रेलिया, मैक्सिको, न्यूजीलैंड,
पोलैंड, पुर्तगाल, दक्षिण
अफ्रीका और तुर्की की स्पेस एजेंसियाँ बनी हैं. अमेरिका की प्राइवेट एजेंसी स्पेसएक्स
ने सन 2026 में मंगल ग्रह पर अपना यान भेजने की घोषणा की है.
मंगल मिशन आधुनिकता की ओर बढ़ते यूएई की
महत्वाकांक्षा का प्रतीक भी है. इसके सफल होते ही यूएई ने कई रिकॉर्ड भी बनाए.
जैसे- उसने पहली कोशिश में अपना अंतरिक्षयान मंगल की कक्षा तक पहुंचा दिया. इसके
अलावा वह पहला मुस्लिम देश बना, जिसका मार्स मिशन सफल रहा.
यूएई के पास अभी प्रक्षेपण क्षमता नहीं है,
जिसके लिए उसने जापान की मदद ली है. फिर भी वह मंगल की कक्षा तक
पहुंचने वाला दुनिया का 5वां देश भी बन गया. इससे पहले अमेरिका, सोवियत संघ, यूरोप और भारत ही मंगल की कक्षा तक
पहुंच सके थे.
राष्ट्रीय मनोबल
अंतरिक्ष-कार्यक्रम वैज्ञानिक-तकनीकी विकास की
कहानी कहने के साथ-साथ नई पीढ़ी को विज्ञान मुखी बनाने का काम भी करते हैं. इससे
राष्ट्रीय मनोबल भी तैयार होता है. राष्ट्रीय-प्रतिष्ठा को नकारात्मक अर्थ में
नहीं लिया जाए, तो वह हमारी हीन-भावना को दूर करने का काम भी करती है.
अंतरिक्ष विज्ञान की पहली रेस अमेरिका और
सोवियत संघ के बीच हुई थी. पर नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस इस
प्रतियोगिता से हट गया था. अब लगता है कि एक नई स्पेस-स्पर्धा और एक नया
अंतरिक्ष-युग शुरू हो रहा है.
अब इस स्पर्धा में चीन के अलावा कुछ दूसरे
ग्रुप भी सामने आ रहे हैं, खासतौर से प्राइवेट कम्पनियाँ. जहाँ
अमेरिका को चीन चुनौती दे रहा है, वहीं चीन को भारत की चुनौती मिल रही
है. चीनी प्रयासों के पीछे सरकारी संसाधन हैं, जबकि
दूसरे देशों में निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ भी इस दौड़ में शामिल हो रही हैं.
चीन इसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के रूप में ले रहा
है. अमेरिकी संसद के अमेरिका-चीन आर्थिक एवं सुरक्षा समीक्षा आयोग के अनुसार
‘अंतरिक्ष को चीन भू-राजनीतिक
प्रतिस्पर्धा का औजार मानता है.’ इसके अलावा साइबरस्पेस और स्पेस का अब
सामरिक इस्तेमाल भी हो रहा है.
चंद्रयान-3
चंद्रयान-3 के प्रक्षेपण
के 42 दिन के बाद इसका मॉड्यूल 23 या 24 अगस्त को चंद्रमा पर उतरेगा. चंद्रयान-2
के अनुभव को देखते हुए इस बार के अभियान में दो बातों पर सबकी नज़रें रहेंगी.
एक, चंद्रयान-3 की सॉफ्ट लैंडिग और दूसरे रोवर का चंद्रमा की सतह पर भ्रमण.
अब तक चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग कराने
में सिर्फ तीन देशों अमेरिका, रूस और चीन को ही कामयाबी मिली है.
चंद्रयान-3 के जरिए भारत इस सूची में शामिल होना चाहता है, जिसमें वह 2019 में
शामिल होते-होते रह गया था.
चीन से स्पर्धा
दुनिया के कई देश चंद्र मिशन पर काम कर रहे
हैं, पर इस मामले में भारत की सीधे चीन के साथ प्रतिस्पर्धा है. चीन अपने चांद
मिशन के चौथे चरण को भी मंजूरी दे चुका है और भविष्य में चांग ई-6, चांग ई-7 और चांग ई-8 मिशन लॉन्च करेगा. वह चंद्र-अनुसंधान स्टेशन
बनाने पर भी काम कर रहा है. उधर अमेरिका और यूरोपीय देश चंद्रमा पर मनुष्यों को
भेजने के मिशन पर काम कर रहे हैं.
नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा के दौरान भारत
के आर्टेमिस
समझौते में शामिल होने की घोषणा हुई थी. इसके तहत नासा और इसरो अब ह्यूस्टन,
टेक्सास के जॉनसन स्पेस सेंटर से प्रशिक्षित भारतीय अंतरिक्ष
यात्रियों को 2024 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भेजने के लिए कार्य
करेंगे.
आर्टेमिस समझौता
आर्टेमिस समझौता संस्थापक देशों ऑस्ट्रेलिया,
कनाडा, इटली, जापान,
लक्ज़ेम्बर्ग, संयुक्त अरब अमीरात और यूनाइटेड किंगडम
के साथ अमेरिकी विदेश विभाग और नासा ने वर्ष 2020 में किया था. इसका उद्देश्य चंद्रमा,
मंगल, धूमकेतुओं, क्षुद्रग्रहों
तथा बाहरी अंतरिक्ष का अध्ययन करना है. भारत इसका 27वाँ
सदस्य है.
इस कार्यक्रम के तहत, आर्टेमिस-1 अंतरिक्ष यान पिछले साल चांद पर जाकर वापस लौटा था. भविष्य के आर्टेमिस
अभियान के तहत नासा 2026 तक इंसानों को चांद पर उतारने की योजना पर काम कर रहा
है.
चंद्रमा के बाद सूरज
चंद्रयान-3 के
अलावा भारत इस साल सूर्य के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष अभियान भेजने जा रहा है. आदित्य-एल1 भारत
का पहला सौर अभियान है. यह यान सूरज पर नहीं जाएगा, बल्कि धरती से 15 लाख किलोमीटर की दूरी से सूर्य का अध्ययन करेगा. एल1 या लॉन्ग रेंज पॉइंट धरती और सूर्य के बीच वह जगह है जहां से सूरज
को बग़ैर किसी ग्रहण के अवरोध के देखा जा सकता है.
विज्ञान और तकनीक के अलावा अंतरिक्ष कारोबार भी
है. वित्तीय संस्थाओं का अनुमान है कि 450 अरब डॉलर से ऊपर की वैश्विक अंतरिक्ष
अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान बमुश्किल दो फीसदी है. चीन, रूस, जर्मनी समेत अन्य देशों की प्रतिस्पर्धा
के बीच हमें जगह बनानी है. भारत इस क्षेत्र में थोड़ी देर से आया है. बावजूद इसके
नतीजे उत्साहवर्धक हैं.
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