संसद का मॉनसून सत्र 20 जुलाई से 11 अगस्त के बीच होने की घोषणा हो गई है। कहा जा रहा है कि इस सत्र के दौरान समान नागरिक संहिता से जुड़ा विधेयक भी पेश हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में कहा है कि कुछ राजनीतिक दल समान नागरिक संहिता के नाम पर मुसलमानों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरफ उनके विरोधी नेताओं का कहना है कि यह मुद्दा मुसलमानों को टारगेट करने के लिए ही उठाया गया है। सच यह है कि इसका असर केवल मुसलमानों पर ही नहीं पड़ेगा। देश के सभी धर्मावलंबी और जनजातीय समुदाय इससे प्रभावित होंगे। फिर भी पर्सनल लॉ की चर्चा जब भी छिड़ती है तब हिंदू-मुसलमान पर चली जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन दो समुदायों की संख्या बड़ी है और वोट के सहारे सत्ता हासिल करने में इन दो में से किसी एक का समर्थन हासिल करना उपयोगी होता है। इसे ध्रुवीकरण कहते हैं। इसकी वजह से पिछले 75 वर्ष में ‘राजनीतिक वोट-बैंक’ की अवधारणा विकसित हुई है।
सब पर समान रूप से लागू होने वाला कानून अच्छा
विचार है, पर वह तभी संभव है, जब
समाज अपने भीतर सुधार के लिए तैयार हो। पता नहीं वह दिन कब आएगा। हिंदू कोड बिल ने सामाजिक की शुरुआत की, पर उससे ही ‘हिंदू-राजनीति’
को बल मिला। वह सुधार भी आसानी से नहीं हुआ। हिंदू-कोड बिल समिति
1941 में गठित की गई थी, पर कानून बनाने में14 साल लगे। वह भी एक कानून से नहीं
तीन कानूनों, हिंदू-विवाह, उत्तराधिकार और दत्तक-ग्रहण, के मार्फत। कांग्रेस के भीतर प्रतिरोध हुआ। सरदार
पटेल, पट्टाभि सीतारमैया, एमए अयंगार, मदन मोहन मालवीय और कैलाश नाथ काटजू जैसे
नेताओं की राय अलग थी। इसी कानून को लेकर 1951 में भीमराव आंबेडकर ने कानून मंत्री
पद से इस्तीफा दिया। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा, मैं इस कानून पर दस्तखत नहीं
करूँगा। बिल रोका गया और बाद में नए कानून बने। फिर भी 1955 के कानून में बेटियों
को संपत्ति का अधिकार नहीं मिला। यह अधिकार 2005 में मिला।
संविधान सभा में अनुच्छेद 44 पर बहस को भी पढ़ना चाहिए। अनुच्छेद 44 में शब्द ‘यूनिफॉर्म’ का इस्तेमाल हुआ है, ‘कॉमन’ का नहीं। इसका मतलब है समझने की जरूरत भी है। पचास के दशक की बहस के बीच श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने (तब जनसंघ का गठन नहीं हुआ था और श्यामा प्रसाद की राजनीति दूसरी थी) कहा कि समरूप (यूनिफॉर्म) नागरिक-संहिता बनाई जाए। बहरहाल हिंदू-कोड बिल आने के बाद कहा गया कि हिंदू-समाज परिवर्तन के लिए तैयार है, मुस्लिम-समाज नहीं। इस दौरान पाकिस्तान में पर्सनल लॉ में सुधार हुआ। इन सब बातों के कारण ‘मुस्लिम-तुष्टीकरण’ एक राजनीतिक-अवधारणा बनकर उभरी, जिसने इस विचार को पनपने का मौका दिया। हमारा लोकतंत्र इतना प्रौढ़ नहीं है कि सामान्य वोटर इन बारीकियों को पढ़ सके। पर यह मानना भी ठीक नहीं कि संविधान निर्माताओं ने जिस समझदारी के साथ देश पर समान नागरिक संहिता लागू नहीं की, उसे देखते हुए यह मामला हमेशा के लिए जस का तस रह पाएगा। सवाल है कि वह समय कब आएगा, जब इसे को उठाया जाएगा? पर असली चुनौती उद्देश्य की नहीं, इरादों की है। साथ ही ऐसा कानून बनाने की, जिसे सभी समुदाय स्वीकार करें।
समान कानून
अभी शादी, तलाक़,
उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में विभिन्न समुदायों में उनके धर्म,
आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग क़ानून (पर्सनल लॉ) हैं।
समान-संहिता के बाद किसी धर्म, लिंग और लैंगिक झुकाव की परवाह किए
बग़ैर सब पर समान क़ानून लागू होगा। क्या यह कानून पूरे देश में लागू हो सकेगा? संविधान सभी को अपने-अपने धर्म के मुताबिक जीने की पूरी आजादी देता
है। अनुच्छेद-25 में कहा गया है कि कोई भी अपने हिसाब
धर्म मानने और उसके प्रचार की स्वतंत्रता रखता है। अनुच्छेद 371 कुछ इलाकों पर
समान कानून लागू करने से रोकता है। व्यक्तिगत कानून धार्मिक मान्यताओं से जुड़े
हैं और धार्मिक मान्यताएं संवेदनशील मसला है। क्या हम धार्मिक समूहों की स्वीकृति
प्राप्त कर सकेंगे? इस विचार को कम से कम तीन नज़रों से देखा जाता
है। एक, कानूनी, दूसरे धार्मिक-सामुदायिक और तीसरे राजनीति के नज़रिए से। चूंकि इस
कानून का कोई मसौदा हमारे सामने नहीं है, इसलिए अभी उसपर कुछ भी कहना संभव नहीं
है।
राजनीतिक-नज़रिया
लोकसभा चुनाव करीब होने की वजह से यह मुद्दा
राजनीतिक नज़रिए से देखा जा रहा है। यह मसला लोकसभा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बनकर
उभरेगा। देश की स्वतंत्रता और उसके समानांतर हुए विभाजन ने हमारी सामाजिक-व्यवस्था
के कुछ अंतर्विरोधों को उभारा है। राष्ट्रीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के
एजेंडा में तीन मुख्य-कार्यक्रम हैं। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 को हटाना, अयोध्या में राममंदिर-निर्माण और तीसरा पूरे देश में समान
नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू कराना। पहले दो को कमोबेश पूरा करने के
बाद पार्टी ने अब तीसरे का काम हाथ में लिया है। इस कानून का प्रस्तावित-दस्तावेज़
उपलब्ध नहीं है, इसलिए जो भी बहस है, फिलहाल वह बगैर सिर-पैर की है। फिर भी इस बहस
की एक पृष्ठभूमि हमारे पास है। इसका उद्देश्य एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना
करना है। गहराई से देखने पर इसके राजनीतिक-निहितार्थ सामने आते हैं। यह राजनीति देश
की सामाजिक-संरचना, सांप्रदायिकता और इतिहास-दृष्टि से जुड़े ऐसे सवाल उठाती है,
जिनपर बात किए बगैर यह बहस पूरी नहीं होगी।
पृष्ठभूमि
संविधान में नीति-निर्देशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू करने की बात कही गई है। इस
अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक
गणराज्य’ के सिद्धांत का पालन करना है। भारत में सभी नागरिकों के लिए समान
‘आपराधिक संहिता’ है, समान ‘नागरिक कानून’
नहीं है। विधि मंत्रालय ने 17 जून 2016 को 21वें आयोग से कहा था कि वह ‘समान
नागरिक संहिता के मामले को देखे।’ आयोग ने दो साल के अध्ययन के बाद अगस्त 2018 में
अपने कार्यकाल के अंतिम दिन पेश एक परामर्श पत्र में कहा कि इस समय समान नागरिक
संहिता की ‘न तो जरूरत है और न वांछित।’ समग्र रिपोर्ट पेश करने के लिए आयोग के
पास समय कम था। परामर्श पत्र में कहा गया, ‘समान
नागरिक संहिता का मुद्दा व्यापक है और उसके संभावित नतीजे अभी भारत में परखे नहीं
गए हैं।’ आयोग के अध्यक्ष जस्टिस (सेवानिवृत्त) बीएस चौहान ने पहले कहा था कि समान
संहिता की अनुशंसा करने के बजाए, आयोग ‘चरणबद्ध’ बदलाव की अनुशंसा कर
सकता है। इसके बाद 22वें विधि आयोग ने गत 14 जून को इस विषय पर सामाजिक और धार्मिक संगठनों के साथ विभिन्न
पक्षों से 30 दिन के भीतर अपनी राय देने को कहा है। आयोग का
कहना है कि पिछले सुझाव-पत्र को तीन साल से ज्यादा का समय हो चुका है। इसके महत्व
और अदालती आदेशों को ध्यान में रखते हुए विचार करना बहुत जरूरी है।
अदालती-फैसले
सितंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले
में कहा था कि देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए आजादी
के बाद के वर्षों में कोई प्रयास नहीं किया गया है, जबकि
सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में कई बार कहा है। अदालत ने कहा कि संविधान निर्माताओं
ने भाग 4 में नीति निर्देशक तत्वों का विवरण देते हुए अनुच्छेद 44 के माध्यम से
उम्मीद जताई थी कि देश के सभी हिस्सों में समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रयास
किए जाएंगे। हालांकि हिन्दू पर्सनल लॉ को 1956 में कानून की शक्ल दी गई, लेकिन उसके बाद समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई कदम नहीं
उठाए गए। शाहबानो और सरला मुदगल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में समान
संहिता की सिफारिशों के बाद भी कुछ नहीं हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल में कहा,
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है। सुप्रीम कोर्ट कहता है कॉमन सिविल
कोड लाओ, लेकिन वोट बैंक के भूखे लोग इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं। इसके जवाब में असदुद्दीन
ओवैसी कहते हैं कि मोदी समान नागरिक संहिता की नहीं, 'हिंदू नागरिक संहिता' की बात कर रहे हैं।
राजनीतिक-असमंजस
समान नागरिक संहिता का मामला जब उठता है तभी
सांप्रदायिक सवाल उठते हैं। सन 1985 में
शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राजीव गांधी की कांग्रेस
पार्टी ने पचास के दशक की जवाहर लाल नेहरू जैसी दृढ़ता दिखाई होती तो शायद
राष्ट्रीय राजनीति में सांप्रदायिकता की वह भूमिका नहीं होती, जो आज है। समान नागरिक संहिता की बहस सांप्रदायिक राजनीति की है और
लगता नहीं कि लम्बे समय तक हम इसके बाहर आ पाएंगे। इस अंतर्विरोध की शुरुआत
संविधान सभा से ही हो गई थी, जब इस मसले को मौलिक अधिकारों से हटाकर
नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाया गया। यह सवाल हमारे बीच आज भी है तो इसकी
वजह है सामाजिक अंतर्विरोध और राजनीतिक पाखंड। राजनीतिक दलों ने प्रगतिशीलता के
नाम पर संकीर्णता को ही बढ़ावा दिया। यह बात समझ में आती है कि सामाजिक बदलाव के
लिए भी समय दिया जाना चाहिए, पर क्या हमारे समाज में विवेकशीलता और
वैज्ञानिकता को बढ़ाने की कोई मुहिम है?
पेचीदगियाँ
कानून का मसौदा पेश करने के पहले सरकार को तमाम
पेचीदगियों पर ध्यान देना होगा। मसलन हिंदू कोड बनने के बावजूद 2005 के बाद से
हिंदू क़ानून के तहत बेटियों को भी पैतृक संपत्ति में हक़ मिला। हिंदू-विवाह
अधिनियम के तहत कोई स्त्री अपने पति से तभी तलाक़ ले सकते हैं, जब शादी में कोई दिक़्क़त हो। बिना दिक़्क़त वाली शादी से बाहर
निकलने का अभी कोई प्रावधान नहीं है। समान संहिता बनने से हिंदू अविभाजित परिवार
(एचयूएफ़) ख़त्म हो जाएगा। आयकर अधिनियम के तहत एचयूएफ़ को एक अलग इकाई माना जाता
है। इसके तहत टैक्स देनदारियों में कुछ छूट मिलती है। हिंदू-परिवारों में विवाह की
व्यवस्थाएं भी अलग-अलग हैं। दक्षिण भारत में रिश्तेदारियों में भी विवाह संभव हैं।
आदिवासियों की संस्कृति और परंपराएं प्रभावित होंगी। पूर्वोत्तर के राज्यों,
ख़ासतौर पर नगालैंड और मिज़ोरम में भी इसका असर होगा। खासी समुदाय
मातृसत्तात्मक नियमों पर चलता है। इस समुदाय में परिवार की सबसे छोटी बेटी को
संपत्ति का संरक्षक माना जाता है और बच्चों के नाम के साथ माँ का उपनाम लगता है। नए
कानून में व्यवस्था कैसी होगी, यह देखना होगा। जब सब बदलेगा, तो सभी समुदायों में
किसी न किसी प्रकार की प्रतिक्रिया होगी।
गोवा का कानून
गोवा में हिंदू और मुसलमान सभी पर पुर्तगाली
कानून लागू होते हैं। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि गोवा एक
‘बेहतरीन उदाहरण’ है, जहाँ समान नागरिक संहिता, धर्म की परवाह किए बिना सब पर लागू है। यह मामला गोवा के एक परिवार
के सम्पत्ति विवाद से जुड़ा था। गोवा में 2016 तक पुर्तगाली सिविल लॉ लागू था
जिसके मुताबिक गोवा या गोवा से बाहर सम्पत्ति रखने वाले गोवा के मूल निवासियों की
संपत्ति बंटवारा इसी कानून से होता था। सन 2016 में पुर्तगाली सिविल कोड के कई प्रावधानों
को गोवा उत्तराधिकार कानून से बदल दिया गया था। इसी के कुछ प्रावधानों को चुनौती
दी गई थी। अदालत ने इस सवाल पर भी गौर किया कि क्या पुर्तगाली नागरिक संहिता को
विदेशी कानून कहा जा सकता है। पीठ ने कहा कि पुर्तगाली नागरिक संहिता भारतीय संसद
के एक कानून के कारण गोवा में लागू है। इसलिए, वह
कानून जो भले ही विदेशी मूल का हो, भारतीय कानूनों का हिस्सा बना और यह अब
विदेशी कानून नहीं है। गोवा में पंजीकृत विवाह में मुस्लिम पुरुष को बहुविवाह का
अधिकार नहीं है और मुँह-जुबानी तलाक भी स्वीकृत नहीं है।
हरिभूमि में प्रकाशित लेख का परिवर्धित संस्करण
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