Tuesday, July 11, 2023

महाराष्ट्र में ‘पवार-राजनीति’ की विसंगतियाँ


महाराष्ट्र में चल रहे घटनाक्रम का असर राष्ट्रीय-राजनीति और खासतौर से 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी पर भी पड़ेगा। लोकसभा सीटों के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद देश में महाराष्ट्र दूसरा सबसे बड़ा राज्य है, जहाँ से 48 सीटें हैं। इस घटनाक्रम का गहरा असर विरोधी-एकता के प्रयासों पर भी पड़ेगा। शरद पवार विरोधी-एकता की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। हालांकि अभी स्थिति पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, पर लगता इस घटना से महा विकास अघाड़ी की राजनीति पर भी सवालिया निशान लग गए हैं।

फिलहाल एनसीपी की इस बगावत की तार्किक-परिणति का इंतज़ार करना होगा। क्या अजित पवार दल-बदल कानून की कसौटी पर खरे उतरते हुए पार्टी के विभाजन को साबित कर पाएंगे? क्या उन्हें 36 या उससे ज्यादा विधायकों का समर्थन प्राप्त है?  क्या वे एनसीपी के नाम और चुनाव-चिह्न को हासिल करने में सफल होंगे? कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि यह शरद पवार का ही डबल गेम है। प्रकटतः उनकी राजनीतिक संलग्नता कहीं भी हो, वे बीजेपी के संपर्क में हमेशा रहे हैं। बीजेपी ने उनकी मदद से ही राज्य में शिवसेना की हैसियत कमज़ोर करने में सफलता प्राप्त की थी। इस समय उनकी समस्या अपनी बेटी को उत्तराधिकारी बनाने के कारण हुई है।

एनसीपी का विभाजन क्यों हुआ? क्या यह बीजेपी का ऑपरेशन लोटस है? है भी तो क्यों है? राज्य में उनकी सरकार तो चल ही रही है। उन्हें संख्याबल नहीं चाहिए। अलबत्ता इससे विरोधी-एकता के प्रयासों में अडंगा जरूर लग सकता है।  शरद पवार अपने ही घर में उलझ जाएंगे, तो वे राष्ट्रीय-राजनीति में सक्रिय नहीं हो सकेंगे। पर देखना यह भी है कि उन्हें अपने उत्तराधिकारी की घोषणा इसी समय क्यों करनी पड़ी, जब लोकसभा और राज्य की विधानसभा के चुनाव करीब आ रहे हैं?  उन्होंने ऐसा किया भी तो क्या इसके लिए अपने वरिष्ठ सहयोगियों से परामर्श किया था या नहीं?

एमवीए की विसंगतियों की पहली झलक पिछले साल शिवसेना में हुए विभाजन के रूप में प्रकट हुई। दूसरी झलक अब दिखाई पड़ी है। ताजा बदलाव का बीजेपी और एकनाथ शिंदे की शिवसेना पर भी असर होगा। तीनों पार्टियाँ इस अंतर्विरोध को किस प्रकार सुलझाएंगी, यह देखना होगा। एकनाथ शिंदे भले ही इस समय मुख्यमंत्री हों, पर राजनीति का गणित उन्हें किसी भी समय अपने पद से हटने को मजबूर कर सकता है। उनके पास विकल्प क्या हैं, यह भी देखना-समझना होगा।

अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे बड़े नेताओं की बग़ावत ने उस पार्टी को विभाजित कर दिया है, जिसे शरद पवार ने खड़ा किया था। इसके दो कारण समझ में आते हैं। एक, दीर्घकालीन राजनीतिक हित और दूसरे व्यक्तिगत स्वार्थ। यह विभाजन केवल पार्टी का ही नहीं है, बल्कि पवार परिवार का भी है। शरद पवार ने अपनी विरासत भतीजे को सौंपने के बजाय अपनी बेटी को सौंपने का जो फैसला किया, उसकी यह प्रतिक्रिया है। पार्टी के कार्यकर्ता इस फैसले से आश्वस्त नहीं थे। वे सत्ता के करीब रहना चाहते हैं, ताकि उनके काम होते रहें।

अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल और अन्य नेताओं के खिलाफ चल रही ईडी वगैरह की कार्रवाई को भी एक कारण माना जा रहा है। प्रफुल्ल पटेल ने एक राष्ट्रीय दैनिक को बताया कि बगावत के दो प्रमुख कारण रहे। एक, शरद पवार स्वयं अतीत में बीजेपी की निकटता के हामी रहे हैं.. और दूसरे उनकी बेटी अब उनके सारे निर्णयों की केंद्र बन गई हैं और वे अपने फैसले को सब पर थोप रहे हैं। ईडी की कार्रवाई के बारे में उन्होंने कहा, एजेंसियों को मेरे खिलाफ कुछ मिला नहीं है। यों भी ईडी के मामलों से सामान्य कार्यकर्ता प्रभावित नहीं होता। उनकी दिलचस्पी तो अपने काम कराने में होती है।

प्रफुल्ल पटेल से जब पूछा गया कि 23 जून को पटना में हुई विरोधी-एकता की बैठक में आप भी तो गए थे, उन्होंने कहा, पटना में जो तस्वीर उभरी वह उत्साहजनक नहीं थी। वहाँ मौजूद सब कह रहे थे कि मोदी का मुकाबला करेंगे… कौन और कैसे, इसकी कोई योजना नहीं बता रहा था। अजित पवार ने क्या विचारधारा से समझौता किया है, इसके जवाब में प्रफुल्ल पटेल का कहना है कि शरद पवार की विचारधारा को लेकर पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक भ्रम की स्थिति में हैं। वे लगातार बीजेपी के संपर्क में रहे हैं। 2014 में उन्होंने बीजेपी सरकार को बाहर से समर्थन देने की पेशकश की थी। 2019 में जब अजित पवार ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, वह उनकी पूरी जानकारी में ली थी। जब एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना में टूट हो रही थी, तब पवार साहब ने मुझसे, जयंत पाटील और अजित पवार से कहा कि देखो क्या हमारा बीजेपी के साथ गठबंधन हो सकता है, पर तब तक देर हो चुकी थी। शिंदे का टाई-अप हो चुका था।

अब जब उनकी उम्र 82 के ऊपर हो चुकी है, तब क्या उन्होंने अपनी बेटी की वजह से अजित पवार की उपेक्षा करके गलती कर दी है? हालांकि अजित पवार के तंज के जवाब में शरद पवार ने कहा है, न तो टायर्ड और न रिटायर्ड, पर सब जानते हैं कि वे स्वस्थ नहीं हैं और एनसीपी को भविष्य में सक्रिय रहने के लिए नेता की जरूरत होगी। पार्टी का आधार महाराष्ट्र में है और सुप्रिया सुले की तुलना में अजित पवार का महाराष्ट्र में आधार बेहतर है। पार्टी के भीतर वे काफी लोकप्रिय हैं। तब उन्होंने अजित पवार की उपेक्षा क्यों की?

निश्चित रूप से शरद पवार का पार्टी में भारी सम्मान है, पर भविष्य को लेकर कार्यकर्ताओं की चिंता भी समझ में आती है। प्रफुल्ल पटेल के अनुसार 30 जून को अजित पवार के निवास पर हुई बैठक में 41 विधायकों ने एक हलफनामे पर दस्तखत किए थे। उसी रोज वह दस्तावेज चुनाव आयोग को सौंप दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि अजित पवार एनसीपी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

इस साल मई में शरद पवार ने एनसीपी अध्यक्ष से इस्तीफ़ा देने की पेशकश तो मंच पर उनकी पत्नी, बेटी और भतीजा अजित पवार उनके साथ बैठे थे। इस्तीफे के बाद पार्टी में उनके उत्तराधिकारी का सवाल उठा और अंततः उन्होंने इस्तीफा वापस ले लिया। उसी समय समझ में आ गया था कि उत्तराधिकारी को लेकर संशय है। इसके कुछ दिन बाद उन्होंने पार्टी के 25वें स्थापना दिवस 10 जून को पार्टी के दो कार्यकारी अध्यक्षों के नाम घोषित किए। सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल। इनके कार्यों का विभाजन इस प्रकार किया गया कि महाराष्ट्र समेत सभी प्रमुख कार्य सुप्रिया सुले के हिस्से में आए।

इस प्रकार शरद पवार ने साफ तौर पर यह स्पष्ट कर दिया कि भविष्य में एनसीपी की कमान सुप्रिया सुले के पास होगी।

ज़ाहिर है कि अजित पवार के लिए साफ संदेश था कि अपने लिए रास्ता खोजो। उनके लिए यह बड़ा धक्का था। उन्हें ज़मीन से जुड़ा नेता माना जाता है, जिनकी महाराष्ट्र में पकड़ है, पर शरद पवार उन्हें अपनी विरासत सौंपना नहीं चाहते। पर ऐसा करके उन्होंने जोखिम भी मोल लिया है। यदि अजित पवार अपना वर्चस्व साबित करने में सफल हुए, तो यह शरद पवार की पराजय होगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो सुप्रिया सुले निर्विवाद रूप से पार्टी की नेता बन जाएंगी। 

सवाल शरद पवार के तौर-तरीकों का भी है। 1999 में जब सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर शरद पवार ने कांग्रेस छोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया, तभी अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें सुझाव दिया कि आप एनडीए में आ जाएं। उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, पर बीजेपी के साथ उन्होंने रिश्तों के बनाकर रखा। 2004 में हालांकि वे यूपीए सरकार के महत्वपूर्ण घटक के रूप में शामिल हुए, पर उनका बीजेपी से भी संपर्क जारी रहा।

पवार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने यूपीए और मोदी के बीच संपर्क-सेतु कायम किया था। महाराष्ट्र में बीजेपी का शिवसेना से गठबंधन था, जिसमें शिवसेना भारी पड़ती थी। 2014 में शिवसेना ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा, पर बीजेपी की ताकत और बढ़ गई। उस मौके पर शरद पवार ने बीजेपी की सरकार को बाहर से समर्थन देने का वायदा कर दिया। इससे शिवसेना में घबराहट फैल गई और उसे न केवल सरकार में शामिल होना पड़ा, बल्कि बहुत कुछ खोना भी पड़ा। उनकी इन विसंगतियों की भी अब परीक्षा है।

कोलकाता के दैनिक वर्तमान में 10 जुलाई, 2023 को प्रकाशित

 

 

 

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