Wednesday, November 30, 2022

भारत-पाक रिश्तों के लिए महत्वपूर्ण है पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष की नियुक्ति

पाकिस्तान के अब तक के सेनाध्यक्ष

पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के बाद भारत में इस बात को ज़ोर देकर कहा जा रहा है कि जनरल आमिर मुनीर पुलवामा कांड और कश्मीर में हुई भारत-विरोधी गतिविधियों के मास्टरमाइंड रहे हैं. इससे क्या निष्कर्ष निकाला जाए कि वे भारत-विरोधी हैं? यह बात तो पाकिस्तानी सेना के किसी भी जनरल के बारे में कही जा सकती है.  

अलबत्ता यह देखने की जरूरत है कि वे किन परिस्थितियों में सेनाध्यक्ष बने हैं. परिस्थितियाँ भी उनके दृष्टिकोण को बनाने का काम करेंगी. भारत से जुड़ी ज्यादातर नीतियों के पीछे पाकिस्तानी सेना का हाथ होता है, इसलिए भी उनका महत्व है. सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति.

भारत-विरोध की नीति

पाक-राजनीति और सेना में कोई भी खुलेआम भारत के साथ दोस्ती की बात कहने की सामर्थ्य नहीं रखता. पिछले 75 वर्षों में भारत-विरोध ही पाकिस्तानी विचारधारा का केंद्र-बिंदु बन चुका है. शायद उन्हें इस सवाल से डर लगता है कि भारत से दोस्ती हो सकती है, तो पाकिस्तान बनाने की जरूरत ही क्या थी?

आज के हालात में वहाँ का कोई भी राजनेता या फौजी जनरल खुद को भारत के मित्र के रूप में पेश नहीं कर सकता. पर ऐसा संभव है कि कभी ऐतिहासिक कारणों से पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत के साथ रिश्ते सामान्य किए बगैर देश का हित नहीं है.

औपचारिक रूप से तो पाकिस्तानी राजनेता आज भी कहते हैं कि हम भारत के साथ अच्छे रिश्ते रखना चाहते हैं, पर भारतीय नीतियों के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है. भारतीय नीतियाँ यानी कश्मीर-नीति. पर वे भी कश्मीर को अलग रखकर बात करने को तैयार नहीं हैं. सुलगता कश्मीर पाकिस्तानी-विचारधारा को प्रासंगिक बनाकर रखता है, पर धीरे-धीरे पाकिस्तानी दुर्ग के कंगूरों में दरारें पड़ती जा रही हैं.

बीजेपी के रहते नहीं

इमरान खान ने पिछले हफ्ते ब्रिटेन के अखबार इंडिपेंडेंट से कहा है कि जब तक भारत में बीजेपी का शासन है, तब तक पाकिस्तान के रिश्ते भारत के साथ सुधरेंगे नहीं. यह राजनीतिक बयान है, जिसका कोई मतलब नहीं. बीजेपी के आने के पहले रिश्तों से कौन गुलाब की खुशबू आती थी? मुंबई हमला तो कांग्रेस-सरकार के दौर में हुआ था. 

दूसरी तरफ इमरान खान ने पिछले साल ही फरवरी के महीने में नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ अच्छे रिश्ते बनाने की पेशकश की थी. उसके बाद उनकी सरकार ने भारत के साथ फिर से कारोबार शुरू करने का फैसला किया और एक दिन बाद ही यू-टर्न कर गए. उनके दृष्टिकोण में विसंगतियाँ रहीं और भ्रम साफ नज़र आता रहा. वे अपने देश की राजनीति को संबोधित करके बयान देते रहे हैं, भारत को संबोधित करके नहीं.

नवाज शरीफ की पहल

इमरान की तुलना में हाल के वर्षों में सबसे जोरदार कोशिश 2014 में नवाज शरीफ ने की थी, जब वे कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आए. दिल्ली आए और हुर्रियत के प्रतिनिधियों से मुलाकात नहीं की, जबकि परंपरा चली आ रही थी कि पाकिस्तान के बड़े राजनेता जब भारत आते थे, तो हुर्रियत के प्रतिनिधियों से मिलते थे.

जनवरी 2016 में पठानकोट प्रकरण के बाद भारत और पाकिस्तान सरकारों ने जो बयान जारी किए थे, उनसे लगता था कि दोनों देश काफी हद तक एक पेज पर हैं. उसके पहले यह साफ हो चुका था कि नवाज शरीफ की सरकार और सेना एक पेज पर नहीं है. बाद में नवाज शरीफ को भारत का एजेंट साबित कर दिया गया. आने वाले समय में पाकिस्तान के राजनेता ऐसा जोखिम उठाने से बचेंगे.

सुधार संभव है

इतनी नकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद हालात सुधर भी सकते हैं, बशर्ते सेना और राजनीति दोनों को यह बात समझ में आ जाए कि दक्षिण एशिया में राजनीतिक स्थिरता कायम किए बगैर पाकिस्तान का भला होना संभव नहीं है. ऐसा लगता है कि जनरल कमर जावेद बाजवा पिछले एक-दो वर्षों में ऐसे ही किसी दृष्टिकोण की ओर बढ़ रहे थे.

मंगलवार 29 नवंबर को जनरल बाजवा अपने पद से मुक्त हो गए और जनरल आसिम मुनीर पदभार ग्रहण कर लिया. जनरल बाजवा पाकिस्तान की सेना के छह साल तक सर्वेसर्वा रहे. उनका कार्यकाल नवंबर, 2019 तक ही था, लेकिन बाद सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों के आधार पर उन्हें तीन साल का सेवा विस्तार दिया गया था. इन छह वर्षों में पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान की विसंगतियाँ काफी खुलकर सामने आई हैं.

बाजवा सिद्धांत

जनरल मुनीर जनरल बाजवा के विश्वस्त सहयोगियों में रहे हैं. इसलिए संभावना है कि वे जनरल बाजवा की परंपरा को आगे बढ़ाएंगे. पाकिस्तान की भारत से जुड़ी नीतियों के संदर्भ में कुछ बातें साफ समझ ली जानी चाहिए. जनरल बाजवा के कार्यकाल में भारत-विरोधी गतिविधियाँ चरम पर थीं और उनके ही कार्यकाल में पिछले साल फरवरी में नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी बंद करने का समझौता हुआ.

इतना ही नहीं जनरल बाजवा ने ही कहा कि हमें कश्मीर के मसले को पीछे रखकर भारत से बात करनी चाहिए. पर प्रधानमंत्री के रूप में ऐसी कोशिश करने वाले नवाज शरीफ से उनके रिश्ते तल्ख रहे. तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने के लिए बातचीत की पेशकश की, जिसमें सेना ने अड़ंगा लगाया.

इमरान खान को कुर्सी पर बैठाने और नवाज शरीफ के खिलाफ मुकदमा चलाने और उन्हें जेल भेजने में भी सेना की भूमिका रही. फिर इमरान को अपदस्थ करने और नवाज शरीफ की पार्टी को सत्तारूढ़ करने में भी सेना का परोक्ष हाथ रहा है.

उफा से पठानकोट तक

जुलाई 2015 में रूस के उफा शहर में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का एक लिखित मजमून तैयार हुआ. उसे पाकिस्तानी सेना के हस्तक्षेप से रद्द कर दिया गया. उफा में यह भी तय हुआ था कि नरेंद्र मोदी नवंबर 2016 में पाकिस्तान में होने वाले सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे.

25 दिसंबर 2015 को नरेंद्र मोदी काबुल से वापसी के समय लाहौर में रुके थे. यह अनौपचारिक यात्रा थी. नवाज शरीफ के परिवार में एक शादी थी, जिसमें शामिल होने के इरादे से मोदी लाहौर में उतरे थे.

तब तक तय हो चुका था कि 15 जनवरी 2016 को दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक में भविष्य के विचार-विमर्श की रूपरेखा बनाई जाएगी. रिश्तों को पटरी पर लाने की वह पहली बड़ी औपचारिक कोशिश थी. विदेश-सचिवों की वह प्रस्तावित बैठक कभी नहीं हुई.

वह बैठक जरूर होती, पर 25 दिसंबर 2015 को मोदी की लाहौर-यात्रा के एक हफ्ते बाद 2 जनवरी 2016 को पठानकोट पर हमला हुआ. इस हमले ने कहानी बदल दी. न तो विदेश-सचिवों की बैठक हुई और न पाकिस्तान में सार्क शिखर सम्मेलन हुआ. इसके बाद की कहानियाँ सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा कांड के रूप में लिखी गईं.

मुनीर की पहचान

जब पुलवामा का हमला हुआ, उस समय आईएसआई के प्रमुख आसिम मुनीर ही थे, जो अब सेनाध्यक्ष बने हैं. वे भारत-विरोधी गतिविधियों के विशेषज्ञ माने जाते हैं. एक तरह से देखा जाए, तो बाजवा और उनके कार्यकाल में दोनों देशों के बीच कड़वाहट पैदा हुई थी.

आमिर मुनीर देश के पहले ऐसे सेनाध्यक्ष होंगे, जो आईएसआई और मिलिट्री इंटेलिजेंस दोनों खुफिया एजेंसियों के प्रमुख रह चुके हैं. उन्हें बहुत सी बातों की जानकारी है. पर स्वाभाविक रूप से उनसे भारत-प्रेम की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्हें पाकिस्तानी हित देखने हैं. अलबत्ता पाकिस्तान के हित क्या हैं, इसे लेकर कुछ नई बातें सामने आई हैं.

पाकिस्तानी अंतर्विरोध

पाकिस्तान ने खुद को अफगानिस्तान में फँसाकर मुसीबत मोल ले ली है. पाकिस्तानी समाज अपेक्षाकृत संतुलित और उदारवादी रहा है. वहाँ कट्टरपंथ को राजनीतिक कारणों से हवा दी गई. दक्षिण एशियाई सामाजिक-संस्कृति का ही यह असर था कि किसी इस्लामी देश की पहली महिला शासनाध्यक्ष बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान में बनीं.

पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान अब एक और संधिकाल से गुजर रहा है. उनकी नई रक्षा-नीति में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था ही सबसे बड़ी सुरक्षा है. कहा जा रहा है कि जनरल आसिम मुनीर को सेनाध्यक्ष बनाने में नवाज शरीफ की भूमिका है. बहरहाल अब देश का सैनिक-प्रतिष्ठान बदलाव की प्रक्रिया में है. पुराने अफसरों की जगह नए अफसर आ रहे हैं.

सेना में असंतोष

सेनाध्यक्ष की नियुक्ति में हालांकि किसी अफसर की वरिष्ठता की उल्लंघन नहीं हुआ है, फिर भी कुछ अटकलें हैं. लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा को जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ का अध्यक्ष और लेफ्टिनेंट जनरल सैयद आसिम मुनीर को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया है. दोनों ही मुनीर सबसे वरिष्ठ अफसर थे.

बताया जा रहा है कि सेना के चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल अज़हर अब्बास ने समय से पहले सेवामुक्त होने का फैसला किया है. यह खबर एक पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल जियो न्यूज़ ने दी है. इस खबर की आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है.

ले.जन. अब्बास का नाम उन छह अफसरों की सूची में था, जिसे सेना ने प्रधानमंत्री को सौंपा था. तीन अन्य नाम थे ले.जन. नौमान महमूद, ले.जन. फैज़ हमीद और ले.जन. मोहम्मद आमिर. इस सूची में सबसे सीनियर आसिम मुनीर थे, पर उनके बाद अज़हर अब्बास का नाम ही था. उन्हें अप्रेल में रिटायर होना है.

आमिर मुनीर 27 नवंबर को रिटायर होते, तो अब्बास ही जनरल कमर जावेद बाजवा के बाद दूसरे नंबर पर होते. बताया जा रहा है कि छह की सूची में शामिल दो और लेफ्टिनेंट जनरल भी शायद समय से पहले रिटायरमेंट ले लेंगे. ऐसी अटकलें अतीत में भी लगती रही हैं.  

सेना बनाम सरकार

मुशर्रफ के बाद से पाकिस्तान में सरकार और सेना एक पेज पर नहीं रहे. पर पिछले साल फरवरी में जनरल बाजवा ने पाकिस्तानी एयरफोर्स एकेडमी में कहा कि यह वक्त है कि हमें हरेक दिशा में शांति के प्रयास करने चाहिए. पाकिस्तान और भारत कश्मीर विवाद का समाधान कर लेना चाहिए.

मार्च, 2021 में प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान के थिंकटैंक नेशनल सिक्योरिटी डिवीजन के दो दिन के इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग का उद्घाटन करते हुए कहा कि हम भारत के साथ रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. इसी कार्यक्रम में बाद में जनरल बाजवा ने कहा, ''अब अतीत को भुला कर आगे बढ़ने का समय आ गया है." अप्रेल के महीने में पाकिस्तान की कैबिनेट ने भारत से चीनी और कपास के आयात का फैसला किया और अगले ही दिन यू-टर्न कर लिया.

इमरान का जुनून

इस पहेली को तभी बूझा जा सकेगा, जब यह समझ में आएगा कि इमरान खान चाहते क्या हैं उनके सेना से रिश्ते क्यों बिगड़े?  क्या पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के भीतर कोई वैचारिक उमड़-घुमड़ चल रही है? पाकिस्तान को अमेरिका और चीन के रिश्तों का संतुलन भी बैठाना है. इसमें भी इमरान खान फेल हुए थे.

पाकिस्तान को पश्चिमी देशों ने बनाया और उसे राजनीतिक-समर्थन दिया. कश्मीर की समस्या को संयुक्त राष्ट्र में उलझाने में सबसे बड़ी भूमिका पश्चिमी देशों की रही है. कुछ साल पहले तक माना जाता था कि पाकिस्तान में सेना के बाद दूसरी सबसे बड़ी ताकत अमेरिका है. पर इमरान खान इन दोनों के खिलाफ खड़े हो गए. क्यों?

इमरान के पीछे भारी भीड़ चल रही है. सवाल है कि क्या उनकी वापसी होगी?  इमरान खान जिस पाकिस्तान की परिकल्पना कर रहे हैं, वह कट्टरपंथी आँधियों से घिरा होगा. दूसरी तरफ पाकिस्तानी प्रशासन अपनी समस्याओं से जूझ रहा है. अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे रास्ते पर वापस आ रही है. काफी बातें अभी अंदर ही अंदर हैं. उनके बाहर आने का इंतजार कीजिए.

 आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

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