सन 1961 की फिल्म ‘हम हिन्दुस्तानी’ का गीत है, छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी/ नए दौर में लिखेंगे, मिलकर नई कहानी। यह गीत नए दौर और भविष्य की बातें कहता है। यह हम सबके मन की बात भी है। दूसरी तरफ अतीत को लेकर मन में कई तरह के संताप भी हैं। बातें भुलाई नहीं जातीं, फिर भी हम उन्हें प्रयास करके भुलाते हैं, ताकि आगे बढ़ें। यह आसान काम नहीं है, खासतौर से उस जमीन पर जिसका 75 साल पर पहले धार्मिक आधार पर विभाजन हुआ हो और उस बँटवारे के दौरान जबर्दस्त खूँरेज़ी हुई हो। साथ ही दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय पलायन हुआ हो। ऐसे में उम्मीद की जाती है कि पुरानी बातों को लेकर हमारा व्यवहार संतुलित होना चाहिए।
एकता बनाम अनेकता
कभी हम हजारों साल पहले की परिस्थितियों को
आधुनिक मूल्यों की दृष्टि से देखते हैं और कभी नए जमाने पर मध्ययुगीन-मूल्यों को
लागू करने की कोशिश करते हैं। भारतीय समाज की एकता और अनेकता के बीच की कड़ियों को
तोड़ने के सायास-प्रयास भी हो रहे हैं। इन बातों के अनेक पक्ष हैं, सब कुछ
एकतरफा नहीं है। एक नजर डालें पिछले एक-दो महीनों की घटनाओं पर। हनुमान चालीसा
बनाम अजान। अंतर-धर्म विवाह बनाम धर्मांतरण। हिजाब बनाम यूनिफॉर्म। हिन्दी राष्ट्रभाषा
बनाम राजभाषा बनाम अन्य भाषाएं। हिन्दू बनाम हिन्दुत्व। हिन्दुत्व बनाम फासीवाद। बॉलीवुड
बनाम टॉलीवुड। सवर्ण हिन्दू बनाम दलित। कश्मीर और खालिस्तान। जहाँगीरपुरी, करौली,
जोधपुर, बेंगलुरु, उडुपी, पीएफआई, एसडीपीआई, बजरंग दल, धर्म-संसद, शाहीनबाग,
दिल्ली-दंगे वगैरह। और अब ज्ञानवापी, मथुरा, श्रृंगार गौरी, ताजमहल, कुतुब मीनार
के विवाद खड़े हुए हैं। पहचान के सवाल हैं। अपने और पराए की परिभाषाएं हैं। लगता
है कोई हमारे रेशे-रेशे को उधेड़ देना चाहता है। भारत के तीस या चालीस टुकड़े करने
के चीनी और पाकिस्तानी सपने भी हैं।
नए भारत की प्रसव-वेदना
क्या यह नए भारत के जन्म की प्रसव वेदना है या
हमें तोड़ देने की कोई नई साजिश? अंतर्विरोधों को उधेड़ने की कोई योजना।
दोषी क्या हमारी राजनीति है? हमारे खिलाफ बैठी कोई साजिश है या
वास्तविकताओं को स्वीकार न करने की कोई जिद है? वाराणसी
के ज्ञानवापी परिसर का मामला अदालत में है। इस मामले में अदालत के आदेश के बाद
वहाँ एडवोकेट कमिश्नर की टीम ने सर्वेक्षण का काम शुरू किया है। 17 मई को इसकी रिपोर्ट
कोर्ट में पेश की जाएगी। इस सर्वेक्षण को रोकने के लिए अंजुमन ए इंतजामिया मस्जिद की
ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली गई थी, पर अदालत ने सर्वे पर रोक नहीं लगाई
है। प्रश्न है कि सर्वे क्यों और क्यों नहीं? पिछले साल
अगस्त में श्रृंगार गौरी की पूजा अर्चना को लेकर अदालत में एक मामला दायर किया गया
था, जिसमें कहा गया था कि भक्तों को मां श्रृंगार गौरी के
दैनिक दर्शन-पूजन एवं अन्य अनुष्ठान करने की अनुमति देने के साथ ही परिसर में
स्थित अन्य देवी-देवताओं के विग्रहों को सुरक्षित रखा जाए। क्या ऐसा कोई धर्मस्थल
है या वहाँ विग्रह हैं? इसका पता लगाने के लिए सर्वेक्षण की जरूरत है।
धर्मस्थलों की रक्षा
भारत में मंदिर-मस्जिद से जुड़ा कोई एक विवाद नहीं
है। सबसे ज्यादा चर्चा राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद की हुई, जो 2019 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद थम गया था। भारत का इतिहास
धर्मस्थलों के निर्माण और ध्वंस का इतिहास भी है। सिद्धांततः हमें सब कुछ भूलकर
आगे बढ़ना चाहिए था, पर यह जिम्मेदारी किसी एक धर्म के अनुयायियों की नहीं है। 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की
कांग्रेस सरकार ने पूजा स्थल कानून बनाया था। यह कानून कहता है कि 15 अगस्त 1947
से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा
स्थल में नहीं बदला जा सकता। अयोध्या का मामला उस वक्त कोर्ट में था इसलिए उसे इस
कानून से अलग रखा गया था। क्या उस कानून के मद्देनज़र अब नए मामलों को उठाने की
अनुमति देनी चाहिए? अभी किसी धर्मस्थल को बदलने की माँग नहीं है, बल्कि यह पता लगाने का
प्रयास है कि क्या कोई ऐसा मंदिर पहले से है, जो किसी तहखाने में बंद है? मंदिर साबित हुआ, तो क्या होगा? क्या
खुले मन से इस बात को स्वीकार कर लिया जाएगा?
राजनीतिक प्रश्न
यह मामला यही नहीं रुकेगा। क्या यह 2024 के चुनाव का मुद्दा बनेगा? दूसरी तरफ सवाल है कि क्या इसका विरोध बीजेपी-विरोधी राजनीति का हिस्सा है? विचार इस बात पर भी करना चाहिए कि बीजेपी को समर्थन क्यों मिल रहा है? हिन्दुओं के सवालों के जवाब किसके पास हैं? भारतीय समाज की सहिष्णुता को लेकर भी सवाल हैं। ऐसे मसले आपसी बातचीत से सुलझ क्यों नहीं जाते? अयोध्या का मामला 1989 या 1947 या उसके भी पहले सुलझ क्यों नहीं गया? अब जब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो गया है, तब तीन तरह की प्रतिक्रियाएं हैं। सबसे आगे है मंदिर समर्थकों का विजय-रथ, उसके पीछे है लिबरल-सेक्युलरवादियों की निराश सेना। वे मानते हैं कि हार्डकोर हिन्दुत्व के पहियों के नीचे देश की बहुलवादी, उदार संस्कृति ने दम तोड़ दिया है। दूसरी तरफ उनके भीतर से यह आवाज भी आती है कि 'बहुलवादी, उदार संस्कृति' नहीं थी। हिन्दू-दृष्टि हिंसक और अन्याय से भरी है।
असहाय मुसलमान?
वामपंथी मानते हैं कि मुसलमान आज त्याज्य
(कास्टअवेज़) हैं, बेघरबार राजनीतिक रूप से अनाथ। उनके प्रति खुली नफरत जीवन के
हरेक क्षेत्र में है। व्यक्तिगत रूप से मुसलमानों से किसी की नाराजगी नहीं है, पर
सामूहिक रूप से मुस्लिम-समाज की एक व्यवस्था है। कहा जाता है कि भारतीय उदारवादियों को हिन्दू और मुस्लिम
दोनों तरह की साम्प्रदायिकता पर प्रहार करने चाहिए। प्रतिष्ठित इतिहासकार धर्म
कुमार ने नब्बे के दशक में लिखा था, भारतीय इतिहास का धर्मनिरपेक्षतावादी संस्करण
न केवल गम्भीर रूप से दोषपूर्ण है, बल्कि व्यावहारिक
दृष्टि से खराब है, क्योंकि इसके कारण बहुत से उन हिन्दुओं के
मन में उसके प्रति विरक्ति का भाव पैदा होता है, जो अन्यथा
धर्मनिरपेक्ष नीति के समर्थक हैं।
मुस्लिम उदारवाद?
सच यह है कि हमने हिन्दुओं की आक्रामकता पर
ध्यान दिया है, मुसलमानों के दृष्टिकोण पर नहीं दिया। मुसलमानों के बीच भी आधुनिक
समझ वाले लोग हैं। वास्तविक अल्पसंख्यक वे हैं। मुसलमानों का नेतृत्व साम्प्रदायिक
समझ के लोगों के हाथों में है। दूसरी ओर हिन्दुओं के भीतर पुनरुत्थानवादी ताकतें
सिर उठा रही हैं। जरूरत इस बात की है कि मुसलमानों के भीतर आधुनिकतावादी तत्व आगे
आएं और वे हिन्दुओं के उदारवादी तत्वों के साथ मिलकर आगे की राह बनाएं। ऐसा नहीं हो
रहा है। उदारवादियों को दोनों तरह की कट्टरता का विरोध करना चाहिए। क्या मुसलमानों
के बीच भी वैचारिक उदारता से जुड़ी कोई बहस है? क्या
वह चलनी नहीं चाहिए?
राष्ट्र-राज्य का मंदिर
जब अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसला
आया तब एक बात कही जा रही थी कि भारतीय ‘राष्ट्र-राज्य के मंदिर’ का
निर्माण सर्वोपरि है और इसमें सभी धर्मों और समुदायों की भूमिका है। हमें इस देश
को सुंदर और सुखद बनाना है। अदालत ने इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद सभी
पक्षों से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। इसके पहले
अदालत ने कोशिश की थी कि मध्यस्थता समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई हल
निकल जाए। ऐसा होता, तो और अच्छा होता। अदालत ने ऐसी कोशिशें क्यों कीं?
कट्टरपंथी
अलगाव
पिछले चार दशकों में कम से कम पाँच घटनाक्रमों
ने जनता का ध्यान खींचा है। खालिस्तानी आंदोलन, मंदिर, मंडल और कश्मीर। इन चार
बातों के बीच में शाहबानो वाला मामला हुआ। किसान आंदोलन के दौरान लालकिले पर हुए
हमले ने भी औसत हिन्दू के मन को झकझोरा था। हमारे लिबरल-सेक्युलर नैरेटिव के
अंतर्विरोध भी इन परिघटनाओं से जुड़े हुए हैं। कश्मीर में पाकिस्तानी आईएसआई की
साजिश के पहले दौर में हालांकि काफी संख्या में कश्मीरी मुसलमानों की मौत भी हुई,
पर करीब तीन लाख पंडितों के पलायन का असर शेष भारत पर काफी गहरा पड़ा। इसके बाद
हुर्रियत के माध्यम से एक धीमी आँच घाटी में जला दी गई। सन 2010 की गर्मियों में
पत्थर मार आंदोलन शुरू हुआ। भारतीय संविधान को फाड़ने और तिरंगे को जलाने की
घटनाएं हुईं। कश्मीर बहुत बड़ा टेस्ट केस था। देश का अकेला राज्य जहाँ मुसलमानों
का स्पष्ट बहुमत है। ऐसे राज्य के नागरिक भारत की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के
संरक्षक के रूप में खड़े होते, तो देश के बहुमत पर नैतिक दबाव पड़ता। लिबरल तबके
को देश के मुसलमानों को साथ लेकर उस आंदोलन के विरोध में खड़ा होना चाहिए था।
वामपंथी अहंकार
उदार हिंदू मानस भारत को धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में ही देखता है और इसकी रक्षा भी उसे ही करनी है। पर बीजेपी के राजनीतिक हिंदुत्व का विरोध करने की हड़बड़ी में लिबरल तबके ने अपनी कमीज पर ‘हिंदू-विरोध’ के दाग लगते नहीं देखे। शाहबानो से लेकर कश्मीर घाटी और ट्रिपल तलाक तक, उसकी छवि मुस्लिम कट्टरता के समर्थक की बनी। वामपंथी तबके को अपनी वैचारिक श्रेष्ठता का अहंकार भी है। देश का सेक्युलर प्रोजेक्ट ऐतिहासिक पराजय के कगार पर खड़ा है, तो इसके लिए उसे किसी दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए।
हरिभूमि में प्रकाशित
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