मजाज़ की दो लाइनें हैं, बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना/ तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है। दुनिया की जगह पाकिस्तान पढ़ें, तब हम इससे अपने मतलब भी निकाल सकते हैं। शहबाज़ शरीफ के प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही कयास लगने लगे थे कि इमरान का हटना क्या भारत से रिश्तों के लिहाज से अच्छा होगा? नरेंद्र मोदी के बधाई संदेश से अटकलों को और बल मिला, गोकि मोदी 2018 में इमरान के प्रधानमंत्री बनने पर भी ऐसा ही बधाई संदेश दे चुके हैं। ऐसी औपचारिकताओं से गहरे अनुमान लगाना गलत है। भारत से रिश्ते सुधारना फिलहाल पाकिस्तानी वरीयता नहीं है। हाँ, उनकी सेना के दृष्टिकोण में आया बदलाव ध्यान खींचता है।
रिश्ते सुधरने से दोनों देशों और उनकी जनता का बेशक
भला होगा, पर तभी जब राजनीतिक लू-लपेट कम हो। पूरे दक्षिण एशिया पर यह बात लागू
होती है। इस इलाके के लोगों को आधुनिकता और इंसान-परस्ती की जरूरत है, धार्मिक और
मज़हबी दकियानूसी समझ की नहीं। पाकिस्तान में आ रहे बदलाव पर इसलिए नजर रखने के
जरूरत है। फिलहाल रिश्तों को सुधारने का राजनीतिक-एजेंडा दोनों देशों में दिखी नहीं
पड़ता, बल्कि ‘दुश्मनी का बाजार’ गर्म है।
सुधार हुआ भी तो राजनयिक-रिश्तों की बहाली से
इसकी शुरुआत हो सकती है। अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद पहले
पाकिस्तान ने और उसके बाद भारत ने अपने हाई-कमिश्नरों के वापस बुला लिया था। जो भी
हल्का-फुल्का व्यापार हो रहा था, उसे बंद कर दिया गया। इन रिश्तों की बहाली के लिए
भी पहल पाकिस्तान को करनी होगी, क्योंकि उन्होंने ही दोनों फैसले किए थे। पर उनकी
शर्त है कि अनुच्छेद 370 के फैसले को भारत वापस ले, जिसकी उम्मीद नहीं।
सेना की दृष्टि
पाकिस्तानी सेना मानती है कि अनुच्छेद 370 भारत
का अंदरूनी मामला है, हमें इसपर जोर न देकर कश्मीर समस्या के समाधान पर बात करनी चाहिए।
शहबाज़ शरीफ ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में भारत के साथ रिश्तों को सुधारने की
बात कही है। पर वे चाहते हुए भी जल्दबाजी में कदम नहीं बढ़ाएंगे, क्योंकि इसमें
उनके राजनीतिक-जोखिम भी जुड़े हैं। पर उसके पहले पाकिस्तानी राजनीति की कुछ
पहेलियों को सुलझना होगा।
शरीफ सरकार खुद में पहेली है। वह कब तक रहेगी और चुनाव कब होंगे? नवम्बर में जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल खत्म हो रहा है। उनकी जगह नया सेनाध्यक्ष कौन बनेगा और उसकी नियुक्ति कौन करेगा? शरीफ या चुनाव के बाद आने वाली सरकार? इमरान खान चाहते हैं कि चुनाव फौरन हों, पर चुनाव आयोग का कहना है कि कम से कम छह महीने हमें तैयारी के लिए चाहिए। इस सरकार के कार्यकाल अगस्त, 2023 तक बाकी है, पर इसमें शामिल पार्टियों की इच्छा है कि चुनाव हो जाएं। अक्तूबर तक चुनाव नहीं हुए, तो सेनाध्यक्ष का फैसला वर्तमान सरकार को ही करना होगा।
सेना-प्रमुख
कौन?
सेना के नेतृत्व ने इमरान को दिया समर्थन वापस
ले लिया है, पर नए अफसरों के बीच उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है। इमरान चाहते हैं
कि जनरल फैज़ हमीद सेनाध्यक्ष बनें। यह बात छिपी नहीं है कि उन्होंने 2018 के
चुनाव में इमरान की मदद की थी। वे सेनाध्यक्ष नहीं बन पाए, तब क्या होगा? सेनाध्यक्ष की भूमिका कश्मीर-समस्या के समाधान से भी जुड़ी है।
नवाज शरीफ की पहल इसलिए विफल हुई थी, क्योंकि
सेना साथ नहीं थी। पिछले साल फरवरी में नियंत्रण रेखा पर लागू युद्ध-विराम से लगता
है कि इस वक्त सेना का रुख नरम है, पर सरकार असमंजस में है। सत्ता से बाहर हुए
इमरान खान अनाप-शनाप बोल रहे हैं। इमरान की वापसी हुई, तो अमेरिका और पश्चिमी
देशों के साथ रिश्ते प्रभावित होंगे। शरीफ सरकार को इमरान ‘इम्पोर्टेड’ बता रहे हैं। देश की राजनीति नाजुक मोड़ पर है।
पिछले दो-ढाई दशक में रिश्तों में बड़े मोड़
तभी आए जब पीपीपी या पीएमएल-एन में से कोई पार्टी सत्ता में थी, या फिर मुशर्रफ-सरकार
थी। 1997 में कम्पोज़िट डायलॉग की घोषणा और 1998 में लाहौर बस यात्रा। मुशर्रफ के
साथ आगरा शिखर-सम्मेलन और उसके बाद चार-सूत्री समझौते की सम्भावनाएं। मुशर्रफ का
समझौता लागू कराने के लिए दोनों देशों की सहमति और शांति के माहौल की जरूरत है।
2010 के बाद कारोबारी रिश्ते बढ़े थे और बैंकिग के रिश्तों और एक-दूसरे देश में
निवेशकों के पूँजी निवेश की सम्भावनाएं बनीं भी थीं, पर किसी न किसी मोड़ पर
अड़ंगा लगा। और कुछ नहीं तो सैनिकों की गर्दनें काटने का प्रकरण हो गया।
मुम्बई हमला
यह सब नवम्बर 2008 में मुम्बई हमले के बावजूद
हुआ। नवम्बर 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने न्यूजवीक से एक
इंटरव्यू में कहा था, कश्मीर में अब हम कोई नई सीमा रेखा खींचने के पक्ष में नहीं
हैं। अगस्त 2010 में उन्होंने कहा, अगर
सभी पार्टियों में कश्मीर को स्वायत्तता देने पर सहमति बन जाती है, तो संविधान के दायरे में रहते हुए इस पर विचार किया जा सकता है।
2014 में भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने
के बाद जब नवाज शरीफ को शपथ-ग्रहण समारोह में बुलावा भेजा गया, तब पाकिस्तान में
इस बात पर बहस हुई कि जाएं या न जाएं। बहरहाल वे जोखिम उठाकर आए। उनकी इस बात के
लिए आलोचना हुई कि उन्होंने भारत आकर कश्मीर का मसला नहीं उठाया और हुर्रियत के
नेताओं से मुलाकात भी नहीं की। पर तब भी यह लगता था कि पाकिस्तानी सिविल सोसायटी
का एक तबका भारत से रिश्ते सुधारने के पक्ष में तब भी था और आज भी है।
दिसम्बर 2014 में आर्मी पब्लिक स्कूल, पेशावर के हत्याकांड ने नागरिकों के मन में खून-खराबे को लेकर आंशिक
वितृष्णा पैदा की थी, पर उस हत्याकांड के अपने ही अंतर्विरोध मानने के बजाय
पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ने उसे भारत की कार्रवाई माना। आंतरिक हिंसा के अलावा
पाकिस्तान इस दौरान आर्थिक रूप से लगातार ढलान पर उतरता चला गया। नवाज शरीफ के साथ
नरेंद्र मोदी के संवाद को पाकिस्तानी सेना का समर्थन नहीं मिला और जनवरी 2016 को
पठानकोट हवाई अड्डे पर हुए हमले के बाद स्थितियाँ बदल गईं।
पाकिस्तानी सेना आज मानती है कि कश्मीर पर अपने
बुनियादी स्टैंड पर कायम रहते हुए भी हमें भारत के साथ कारोबारी रिश्तों को
सुधारना चाहिए। पर वहाँ अभी राजनीतिक-स्थिरता नहीं है। शहबाज़ शरीफ की सरकार इमरान
विरोधी राजनीति की देन है। इसमें शामिल समूह एक-दूसरे के विरोधी हैं। बेमेल पार्टियों
की ऐसी सरकार इससे पहले पाकिस्तान में कभी सत्ता में नहीं आई थी।
इन बातों को देखते हुए भारत की ओर से भी
जल्दबाजी की उम्मीद नहीं है। इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में
चुनावों को देखते हुए मोदी सरकार कश्मीर पर कड़ा रवैया बनाए रखेगी। ऐसे में फौरन
रिश्तों में सुधार की बात सोचना जल्दबाजी होगी। ट्रैक-टू वगैरह चलेंगे। ज्यादा से
ज्यादा राजनयिक रिश्तों और कारोबार की बहाली होगी।
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