Sunday, April 2, 2017

राजनीति का बूचड़खाना

उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों के खिलाफ कार्रवाई होने के बाद से देश में गोश्त की राजनीति फिर से चर्चा का विषय है. प्रत्यक्षतः उत्तर प्रदेश सरकार की कार्रवाई न्यायसंगत है, क्योंकि इसके पीछे मई 2015 के राष्ट्रीय ग्रीन ट्रायब्यूनल (एनजीटी) के एक आदेश का हवाला दिया गया है. राज्य के पिछले प्रशासन ने इस निर्देश पर कार्रवाई नहीं की थी. एनजीटी ने निर्देश दिया था कि राज्य में चल रहे सभी अवैध बूचड़खानों को तत्काल बंद किया जाए. यदि यह केवल बूचड़खानों के नियमन का मामला है तो इसे कुछ समय लगाकर ठीक किया जा सकता है. पर यह राजनीति का, खासतौर से धार्मिक भावनाओं से जुड़ी राजनीति का, विषय बन जाने के बाद काफी टेढ़ा मसला बन गया है.

भारत में मांसाहार अवैध नहीं है और न मांस का कारोबार. पर इसके साथ स्वास्थ्य और पर्यावरण के मसले जुड़े हैं, कई तरह की शर्तें भी. उनका पालन होना भी चाहिए. चूंकि हिन्दू धर्म और संस्कृति का शाकाहार से सम्बंध है, इसलिए इस मसले के सांस्कृतिक पहलू भी हैं. देश के अनेक राज्यों में गोबध निषेध है. इन अंतर्विरोधों के कारण इन दिनों उत्तर प्रदेश में मांस के कारोबार को लेकर विवाद खड़ा हुआ है. अब भाजपा शासित कुछ और राज्य बूचड़खानों को लेकर कार्रवाई करने का मन बना रहे हैं.
बूचड़खानों पर कार्रवाई के पीछे स्पष्टतः राजनीतिक कारण हैं. पर क्या पहले कार्रवाई न होने के पीछे भी राजनीतिक कारण नहीं थे? इस सवाल के जवाब के साथ कई अंतर्विरोध नत्थी हैं. हाल में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पूर्व जारी भाजपा के लोक कल्याण संकल्प पत्र में कहा गया है कि विगत शासनकाल में उत्तर प्रदेश में पशु-धन की संख्या में गिरावट हुई है. दुधारू पशुओं की अवैध तस्करी से प्रदेश में डेयरी जैसे उद्योग का विकास नहीं हो रहा है. संकल्प पत्र में कहा गया कि सभी अवैध कत्लखानों को पूरी कठोरता से बंद किया जाएगा और सभी यांत्रिक कत्लखानों पर प्रतिबंध लगाया जाएगा.

राज्य में नई सरकार के काम संभालने के साथ ही बूचड़खाने बंद होने लगे. इससे गोश्त की कीमतें बढ़ीं और अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो गया. प्रदेश के मांस-व्यापारी हड़ताल पर चले गए. बहरहाल 31 मार्च को सरकार और मांस व्यापारियों के बीच बातचीत के बाद यह हड़ताल खत्म हो गई. मांस व्यापारियों के संगठन उपाध्यक्ष हाजी शकील कुरैशी ने बताया कि उनके संगठन ने सभी सदस्यों से अपने लाइसेंस का नवीनीकरण कराने के बाद अपनी दुकानें खोलने को कहा है. उन्होंने आशा व्यक्त की कि नगर निगम के अधिकारी लाइसेंस देने के मामले में तेजी लाएंगे.

मांस व्यापार से जुड़े संगठनों के प्रतिनिधियों ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी से मुलाकात की थी और उनके समक्ष अपनी मांग रखी थी. सरकार ने स्पष्ट किया है कि वह पशु वध और गोश्त व्यापार की गैर-कानूनी गतिविधियों और बिना लाइसेंस की दुकानों को चलने नहीं देगी. हम सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के आदेशों को लागू करने के लिए बाध्य हैं. सरकार ने यह भी कहा है कि आवश्यक अभिलेख के साथ व्यापार में लगे हुए लोगों का उत्पीड़न नहीं किया जाएगा. सवाल है कि क्या सरकार नए बूचड़खानों को लाइसेंस देगी? क्या कारोबारियों को दिक्कत नहीं होगी?

गुलाबी क्रांति का मसला

मांस के कारोबार के विवाद की भूमि उत्तर प्रदेश जरूर है, पर शुरुआत इसके पहले हो गई थी. केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद गोमांस को लेकर झगड़ा खड़ा हुआ. सन 2015 में महाराष्ट्र में गणेश पूजा के दौरान मांस की बिक्री पर रोक लगा दी गई. ऐसी ही रोक राजस्थान में भी लगी. फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गोमांस की अफवाह के बाद एक परिवार पर हमला हुआ और एक सदस्य की हत्या कर दी गई. यह मसला बिहार विधानसभा चुनाव में उछाला गया. इसके पहले सन 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने नवादा की एक सभा में कहा, मनमोहन सिंह सरकार हरित क्रांति की जगह गुलाबी क्रांति (मांस उत्पादन) पर ज्यादा जोर दे रही है.

आम धारणा है कि मांस का व्यापार गैर-हिंदू विशेषकर मुसलमान करते हैं पर तथ्य यह है कि देश के सबसे बड़े चार मांस निर्यातक हिंदू है. देश में पशुधन के संवर्धन और संरक्षण से जुड़ा विषय राज्य की सूची में है. ज्यादातर राज्यों में गोबध पर पाबंदी है. केवल केरल, पश्चिम बंगाल, अरुणाचल, मिजोरम, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम में यह पाबंदी नहीं है. कुछ राज्यों में सरकार से अनुमति लेकर और कुछ शर्तों के साथ गाय का बध किया जा सकता है. ज्यादातर राज्यों में बध के लिए जानवरों को दूसरे राज्यों में ले जाने पर पाबंदी है, पर अवैध रूप से यह आवागमन चलता रहता है.

शाकाहारी बनाम मांसाहारी भारत

सामान्य धारणा है कि भारत शाकाहारी देश है, पर यह बात पूरी तरह सही नहीं है. सन 2003 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य संगठन ने एक सर्वे किया था जिसके मुताबिक भारत में 42 फीसदी लोग शाकाहारी हैं और इसके पीछे आर्थिक और धार्मिक कारण हैं. पहली नज़र में हमें शाकाहारी देश माना जाता है, पर आंकड़े कुछ और बात कहते हैं. भारत में मांसाहारी लोग 60 प्रतिशत के आसपास हैं. कई लोग ऐसे भी हैं जो मांसाहारी तो हैं लेकिन मंगलवार को मांस नहीं खाते या फिर गुरुवार को शाकाहारी बन जाते हैं. इन दिनों नवरात्र चल रहे हैं. काफी लोग इन दिनों मांसाहार नहीं करते.

पिछले साल देश के 21 बड़े राज्यों के 15 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों के बीच किए गए रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने एक सर्वे किया जिसके मुताबिक तेलंगाना में करीब 99 फीसदी लोग मांसाहारी हैं. पश्चिम बंगाल दूसरे स्थान पर है जहां के 98.7 फीसदी पुरुष और 98.4 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं. इसके बाद आंध्र प्रदेश का नंबर है, जहां के 98.4 फीसदी पुरुष और 98.1 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं. झारखंड सातवें और बिहार आठवें नंबर पर है. उत्तर प्रदेश का नंबर 16वां है, जहाँ 55 फीसदी पुरुष और 50.8 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं.

राजधानी दिल्ली 14वें नंबर पर है, जहाँ 63.2 फीसदी पुरुष और 57.8 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं. सबसे कम मांसाहारी आबादी राजस्थान में है, जहाँ 26.8 फीसदी पुरुष और 23.4 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं. राजस्थान के बाद हरियाणा, पंजाब और गुजरात हैं. हरियाणा में 31.5 फीसदी पुरुष और 30 फीसदी महिलाएं, पंजाब में 34.5 फीसदी पुरुष और 32 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं. गुजरात में 39.9 फीसदी पुरुष और 38.2 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं.

मांस के कारोबार में भी भारत पीछे नहीं है. वर्ष 2014-15 के दौरान भारत ने 24 लाख टन मीट निर्यात किया जो कि दुनिया में निर्यात किए जाने वाले मांस का 58.7 फीसदी है. विश्व के 65 देशों को किए गए इस निर्यात में सबसे ज्यादा मांस एशिया में (80 फीसद) व बाकी अफ्रीका को भेजा गया. वियतनाम अपने कुल मांस आयात का 45 फीसद हिस्सा भारत से मंगाता है. भारत का मांस सस्ता होता है क्योंकि यहां दूध न देने वाले या बूढ़े पशुओं का बध करते हैं, जबकि बाहरी देशों में मांस के लिए ही पशुओं को पाला जाता है, जिनके रखरखाव का खर्च काफी होता है.

गाय का महत्त्व

भारत के खेतिहर समाज में परम्परा से गाय बेहद महत्त्वपूर्ण प्राणी है. उसे पवित्रता का जो स्थान मिला है, उसे देखते हुए स्वतंत्रता से पहले ही सन 1940 में कांग्रेस की एक समिति ने देश के स्वतंत्र होने के बाद गोसंरक्षण को महत्त्वपूर्ण स्थान देने की सलाह दी थी. ऐसा माना जाता है कि संविधान सभा में डॉ राजेंद्र प्रसाद के हस्तक्षेप से संविधान में अनुच्छेद 48 जोड़ा गया, जिसमें राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों के तहत ‘गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए’ के लिए राज्य को निर्देश दिए गए हैं.

पौराणिक कथा है कि सागर मंथन में सबसे पहले हलाहल निकला, जिसे शिव ने कंठ में धारण किया. इसके बाद निकली कामधेनु, जो सारी मनोकामनाओं को पूरा करती थी. कामधेनु महर्षि वशिष्ठ को दी गई, जिन्होंने उसके लिए अलग से गोलोक बनाया. कामधेनु ने जिस बछिया को जन्म दिया, उसका नाम था नंदिनी. गाय के साथ राम और कृष्ण दोनों की कहानियाँ जुड़ी हैं. वैद्य धन्वंतरि ने गाय के दूध, घी, दही, गोमूत्र और गोबर से प्रसिद्ध औषधि ‘पंचगव्य’ तैयार की.

हमारे खेतिहर समाज की संस्कृति गोसंवर्धन के इर्द-गिर्द विकसित हुई है. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत अध्यापक सर मोनियर विलियम्स ने ‘संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी’ में काउ यानी गाय के 72 पर्यायवाची दिए हैं. इसे समझा जा सकता है कि गाय कितने रूपों में हमारे जीवन का हिस्सा रही है. इस सांस्कृतिक महत्त्व के इर्द-गिर्द एक राजनीति ने भी जन्म लिया है. यह राजनीति गाय-समर्थक है वहीं इस राजनीति के समांतर दूसरी राजनीति विकसित हो रही है.

पिछले साल देश के कई इलाकों से गो-रक्षा के नाम पर लोगों पर हमलों की खबरें मिलीं. सामान्यतः इन हमलों के शिकार या तो दलित हुए या मुसलमान. इस अर्थ में गो-रक्षा ने राजनीतिक ध्रुवीकरण में भी मदद की. उत्तर प्रदेश में आई नई सरकार पशु-धन की रक्षा के संदर्भ में गो-धन से जुड़े फैसले कर रही है. इसके अंतर्विरोधों का सामना भी उसे करना है, इसलिए कुछ समय इंतजार करके देखना चाहिए कि योगी सरकार इस मामले को किस तरह निपटाती है.

महात्मा गांधी गो-रक्षा के पैरोकार थे, पर 25 जुलाई 1947 की प्रार्थना सभा में उन्होंने गोबध को लेकर कुछ बातें कहीं थीं, जो गौर करने लायक हैं. उनकी सलाह थी कि जबरन कोई कानून किसी पर थोपा नहीं जा सकता. उन्होंने कहा, ‘मेरा गो-सेवा का व्रत बहुत पहले से लिया हुआ है, मगर जो मेरा धर्म है, वह हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों का भी हो, यह कैसे हो सकता है?’

हाल के वर्षों में हिंदुत्व की जिस राजनीति को लेकर बहस चल निकली है, उसके बीज कांग्रेस के भीतर हैं. कांग्रेस के पराभव की पड़ताल करते वक्त यह देखने की जरूरत है कि इस पार्टी ने जिस व्यापक वैचारिक जमीन पर इस पार्टी को खड़ा किया, उसमें दरारें आजादी के पहले से थीं. वस्तुतः गोश्त केवल हमारी खाद्य प्राथमिकताओं से ही नहीं जुड़ा है. इसके आर्थिक निहितार्थ भी हैं. पर उन सबसे ज्यादा यह व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय राजनीति का एक हिस्सा है. और यह राजनीति अभी दूर तक जाएगी.
प्रभात खबर में प्रकाशित

http://epaper.prabhatkhabar.com/1156424/RANCHI-City/City#page/16/2





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