Wednesday, September 16, 2015

नेपाल के बहाने सेक्युलर-संवाद

नेपाल में संविधान सभा की पुष्टि के बाद धर्म-निरपेक्षता शब्द चर्चा का विषय बन गया है. खासतौर से भारत में जहाँ यह एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में सामने आ रहा है. उदार, अनुदार, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी जैसे शब्द हमारे यहाँ पश्चिम से आए हैं. इनमें धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा भी शामिल है, जिसे लेकर समूचे दक्षिण एशिया में भ्रम की स्थिति है. भारतीय राजनीति में इसे गैर-हिंदू (गैर-सांप्रदायिक) अवधारणा के रूप में पेश किया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे मुस्लिम परस्त, छद्म विचार के रूप में पेश किया जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि भारत की धार्मिक बहुलता को देखते हुए धर्म-निरपेक्षता अनिवार्यता है. पर धर्म-निरपेक्षता को केवल सामाजिक संतुलनकारी विचार मानने से उसका मतलब अधूरा रह जाता है. इसे सर्वधर्म-समभाव तक सीमित करना इसके अर्थ को संकुचित बनाता है.

भारत के मुसलमान धर्म-निरपेक्ष राजनीति के पक्षधर हैं, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में धर्म-निरपेक्षता को नास्तिकता का समानार्थी साबित किया जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी इसे छद्म धर्म-निरपेक्षता कहती है. नेपाल की संविधान सभा ने तकरीबन सर्वानुमति से देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित कर तो दिया है, पर लगता है कि वहाँ के राजनीतिक दल जनता को इसका मर्म समझाने में नाकामयाब रहे हैं. वहाँ  की राजनीति एक हद तक भारतीय राजनीति के प्रभाव में रहती है. इसीलिए वहाँ के मुख्य राजनीतिक दलों ने धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था का समर्थन किया है. यदि वहाँ के संविधान में धर्म-निरपेक्षता शब्द नहीं होता तो क्या होता?

भारत में सन 1976 में 42 वें संविधान संशोधन के मार्फत संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता शब्द जोड़े गए. इसका मतलब यह नहीं कि सन 1947 से 1976 तक हमारी व्यवस्था धर्म-निरपेक्ष नहीं थी. वस्तुतः यह शब्द नहीं जोड़ा जाता तब भी हमारी व्यवस्था धर्म-निरपेक्ष थी. संविधान संशोधन आपतकाल के दौरान किया गया था. सन 77 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद संविधान के 43वें और 44वें संविधान संशोधनों के मार्फत तमाम बातें बदली गईं, पर धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद शब्द नहीं बदले गए. बावजूद इसके हमने इन शब्दों के अर्थ पर गहराई से कभी विचार नहीं किया.

नेपाल में केवल धर्म-निरपेक्ष शब्द को हटाने की माँग क्यों की गई थी? जनता के मन में डर पैदा किया गया कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब नास्तिकता है. इसलिए संविधान में हिंदू शब्द जोड़ने की माँग की गई. इसका फायदा उठाकर वहाँ राजशाही को पुनर्स्थापित करने वाली ताकतों का एजेंडा भी सामने आया है. राजशाही की वापसी का मतलब है लोकतंत्र की समाप्ति. संविधान सभा के फैसले के बाद वहाँ धर्म-निरपेक्ष शब्द को लेकर चल रही बहस खत्म नहीं होगी. पर स्वस्थ बहस के लिए जरूरी है सामाजिक जागरूकता. जागरूकता की अनुपस्थिति में भावनाएं भड़कने का मौका बना रहता है.  

सोमवार को संविधान सभा के इस निर्णय की जानकारी बाहर आने के बाद काठमांडो की सड़कों पर भगवा झंडों के साथ जुलूस निकाले गए. देश के संघीय स्वरूप को लेकर तराई में मधेशी समुदाय का आंदोलन पहले से चल रहा है. हिंदूवादी राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी-नेपाल के अध्यक्ष कमल थापा ने संविधान सभा में नेपाल को हिंदू राष्ट्र फिर से बनाने की मांग को लेकर अनुच्छेद चार में संशोधन का प्रस्ताव दिया था. 601 सदस्यों की सभा में इसे जरूरी 10 फीसदी मत नहीं मिले. पर लगता है कि धर्म-निरपेक्षता को हिंदू-विरोधी अवधारणा साबित करने वालों को भी सफलता मिल रही है. देश के संघीय ढाँचे को लेकर पहले से आंदोलन चल रहा है.

नेपाल एकमात्र राजनीतिक सत्ता है जहाँ सवर्ण हिंदू संख्या में आबादी के करीब एक तिहाई हैं. आम जीवन पर वहाँ हिंदू धर्म गहरा प्रभाव है. राजनेताओं और अफसरों से लेकर पुलिसकर्मियों तक-किसी को अपनी हिंदू पहचान प्रदर्शित करने में हिचक नहीं होती. लोग जनवरी-फरवरी वाली अंग्रेजी तारीखों का नहीं, हिंदू पंचांग की तिथियों का इस्तेमाल करते हैं. वहाँ साप्ताहिक छुट्टी का दिन रविवार नहीं होकर शनिवार होता है. ज़्यादातर सार्वजनिक अवकाश हिंदू त्यौहारों पर होते हैं. जीवनशैली पूरी तरह हिंदूम. है. सरकारी विभाग नियमित रूप से मंदिरों और पारंपरिक अनुष्ठानों के लिए बजट जारी करते हैं. बावजूद इसके वहाँ हिंदूवादी राजनीति नहीं है. पिछले चुनावों में यह बात बार-बार साबित हुई. इसका एक बड़ा कारण यह है कि समाज में बड़े स्तर पर धार्मिक बहुलता नहीं है. खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज को छेड़े बगैर भी धर्म-निरपेक्ष काम करती है.

फिलहाल हमें इंतजार करना होगा कि संविधान सभा के फैसले पर जनता की प्रतिक्रिया किस प्रकार की है. नेपाल में लोग धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब धर्म को मानने की स्वतंत्रता तक ही सीमित रखते हैं., प्रचार की कामना या धर्मांतरण को लेकर बहस नहीं है, जो भारत में है. भारतीय संविधान के निर्माण के वक्त भी यह सवाल उठा था. हमारे संविधान के अनुच्छेद 25(1) के अनुसार लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों का अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा.इसमें प्रचार शब्द को लेकर संविधान सभा में काफी बहस हुई. इसे हटाने का प्रस्ताव किया गया, पर अंततः यह शब्द कायम रहा.

इतने भारी बहुमत से धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को स्वीकृति मिल जाने के बावजूद राजनीतिक दल मानते हैं कि जनता को हिंदू शब्द से मोह है. माओवादी नेता पुष्पदहल कमल यानी प्रचंड ने कुछ महीने पहले माना था कि नए संविधान को अंतिम रुप देते समय धर्म-निरपेक्ष शब्द को बदलने का विचार चल रहा है क्योंकि यह आम लोगों की भावनाओं को आहत करता है. प्रचंड ने कहा, हमने लोगों की राय लेने के दौरान पाया कि लोग धर्म-निरपेक्षता शब्द के इस्तेमाल से बहुत आहत हैं. जुलाई में जनमत संग्रह के दौरान ज्यादातर नेपाल-वासियों ने संविधान में 'धर्म-निरनेक्षता' के बजाय 'हिंदू' अथवा 'धार्मिक स्वतंत्रता' शब्द को शामिल करने को तरजीह दी थी.

धर्मनिरपेक्षता राजनीतिक अवधारणा है. यानी राज-व्यवस्था के केंद्र में धार्मिक नियम नहीं होते. पर यह केवल राजनीतिक दर्शन नहीं है. यह सामाजिक परिघटना भी है, जिसमें व्यक्ति के जीवन का केंद्रीय विषय धर्म नहीं रहता. भले ही व्यक्ति आस्तिक हो. धार्मिकता की जगह वैज्ञानिकता और आधुनिकता लेती है. दुनिया के सारे धर्म अपने-अपने वक्त में नैतिकता और मानवीयता का संदेश लेकर आए थे, पर समय बदल रहा है. हमारे पास दुनियाभर के अनुभवों का सार है. इसलिए सामाजिक जीवन में इन मानवीय अनुभवों को केंद्रीय स्थान मिलना चाहिए. 

हिंदू, मुस्लिम या ईसाई संस्कृति अपनी जगह हैं. पर उनके समानांतर वैश्विक संस्कृति भी जन्म ले रही है. इन संस्कृतियों का पारस्परिक मेल-जोल भी होता है. भारत के मुसलमानों की संस्कृति अरब मुसमानों की संस्कृति जैसी ही नहीं है. दूसरी ओर धार्मिकता अंध-विश्वास के रूप में सामने आ रही है. प्रमाण हैं नित नए पैदा होते स्वामी और महात्मा, जो पाखंड की ढपली बजा रहे हैं. आधुनिकता कई तरह की परंपरागत मान्यताओं को तोड़कर नई मान्यताएं स्थापित कर रही है. धार्मिकता की आड़ में ऐसी ताकतें सिर उठा रहीं हैं, जिनके हितों पर चोट लग रही है. आधुनिकता आपको निरीश्वरवादी बनने को नहीं, विवेकशील बनने को कहती है.

प्रभात खबर में प्रकाशित

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