Monday, September 12, 2011

साम्प्रदायिक हिंसा कानून के राजनीतिक निहितार्थ


साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ प्रस्तावित कानून की भावना जितनी अच्छी है उतना ही मुश्किल है इसका व्यावहारिक रूप। यह कानून अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए बनाया जा रहा है। पर इसका जितना प्रचार होगा उतना ही बहुसंख्यक वर्ग इसके खिलाफ जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस को इससे राजनीतिक लाभ मिले, पर भाजपा को भी तो मिलेगा। इस कानून के संघीय व्यवस्था के संदर्भ में भी कुछ निहितार्थ हैं। इसका नुकसान किसे होगा? बहरहाल इस कानून की भावना जो भी हो इसे सामने लाने का समय ठीक नहीं है। 



यूपीए दो की सरकार बनने के बाद लगा कि भाजपा के दिन लद गए। अटल बिहारी वाजपेयी के नेपथ्य में जाने के बाद पार्टी के पास मंच पर कोई दूसरा नेता नहीं बचा। पिछले दो साल से पार्टी की नैया हिचकोले खा रही है। पिछले साल झारखंड में शिबू सोरेन के साथ लेन-देन के शुरूआती झटकों के बाद पार्टी के नेतृत्व में सरकार बन गई। कर्नाटक में अच्छी भली सरकार बन गई थी, पर येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं की दोस्ती रास नहीं आई। सन 2009 के अंत में एकदम अनजाने से नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तब लगा कि इसे चलाने वालों का सिर फिर गया है। पर वक्त की बात है कि इसे प्रणवायु मिलती रही। इसमे पार्टी की अपनी भूमिका कम दूसरों की ज्यादा है। पिछले डेढ़ साल से भाजपा को यूपीए सरकार प्लेट में रखकर मौके दे रही है। पता नहीं अन्ना-आंदोलन में इनका कितना हाथ था, पर ये फायदा उठा ले गए। और अब सरकार संसद के शीत सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ जो विधेयक पेश करने वाली है, उसका फायदा कांग्रेस को मिले न मिले, भाजपा को ज़रूर मिलेगा।

पिछले शनिवार को राष्ट्रीय एकता परिषद की 13 वीं बैठक में प्रस्तावित साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों की प्रतिक्रिया यूपीए के खिलाफ गई। बैठक में पाँच मुख्यमंत्री शामिल नहीं हुए। नरेन्द्र मोदी का शामिल न होना समझ में आता है, क्योंकि यह विधेयक गुजरात जैसी परिस्थिति को सामने रखकर ही बनाया गया है। पर ममता बनर्जी, मायावती, जयललिता और नीतीश कुमार की अनुपस्थिति माने रखती है। विधेयक के खिलाफ भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री तो बोले ही उड़ीसा के नवीन पटनायक भी बोले, जिनके भाजपा के साथ रिश्ते टूट चुके हैं।

सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की के प्रस्तावित कानूनों से मनमोहन सिंह की सरकार आमतौर पर पहले ही असहमत रहती है। इस असहमति के कारण खाद्य सुरक्षा पर कानून नहीं बन पा रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून संसद में पेश तो हो गया है, पर वह किस रूप में और कब पास होगा, कहना मुश्किल है। जन लोकपाल बिल पहले से गले की हड्डी बना है। साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ सन 2005 का एक बिल पहले से राज्य सभा में पड़ा है। उसके मुकाबले एनएसी के इस ड्राफ्ट बिल के तेवर काफी तीखे हैं और राजनीतिक निहितार्थ काफी गहरे हैं। यूपीए को इस मामले में सीपीएम तक का समर्थन तक नहीं मिला है।

सीपीएम साम्प्रदायिकता के खिलाफ कानून बनाने के पक्ष में हैं, पर यह मामला देश की संघीय भावना के खिलाफ भी जा रहा है। साम्प्रदायिक हिंसा को वस्तुतः कानून-व्यवस्था का मामला माना जाता है, जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है। प्रस्तावित विधेयक से यह मामला सीधे केन्द्र सरकार के पाले में आ गया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में इस विधेयक पर विचार के दौरान संविधान के अनुच्छेद 355 और 356 के अधीन कार्रवाई करने की सलाह भी दी गई। यानी यदि राज्यों में साम्प्रदायिक हिंसा रोकने में दिक्कत हो तो केन्द्र हस्तक्षेप करे। मोटे तौर पर इसका संदर्भ गुजरात के अनुभव से है, इसके निहितार्थ दूसरे भी हैं।

साम्प्रदायिक हिंसा कानून के इस मसौदे में अल्पसंख्यक समूहों को ग्रुप के रूप में पहचाना गया है। ये अल्पसंख्यक समूह धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। इन समूहों की रक्षा के लिए यह कानून प्रस्तावित है। इसके तहत अनुसूचित जाति-जनजाति समूहों की रक्षा के उपबंध भी हैं। अल्पसंख्यक समूहों को लक्ष्य करके की गई हिंसा के खिलाफ इस कानून में कठोर कार्रवाई की व्यवस्था है। इसमें यह भी व्यवस्था है कि यदि किसी पर हिंसा का आरोप लगता है तो उसके लिए साक्ष्य आरोप लगाने वाले को नहीं देने हैं, बल्कि जिसपर आरोप है उसे अपने निर्दोष होने के प्रमाण देने हैं। हालांकि कानून का उद्देश्य बहुसंख्यकों के हमलों से अल्पसंख्यकों को बचाना है, पर उन इलाकों में जहाँ संख्या का अंतर ज्यादा नहीं है, किस तरह कार्रवाई होगी, यह स्पष्ट नहीं।

भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि इस कानून का अर्थ है कि साम्प्रदायिक हिंसा केवल बहुसंख्यक वर्ग ही करता है। देश के साम्प्रदायिक दंगों के आँकड़े भी यही बताते हैं कि अस्सी से नब्बे प्रतिशत दंगा-पीड़ित मुसलमान और कुछ जगहों पर ईसाई होते हैं। ऐसे में पुलिस का व्यवहार भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ होता है। इसकी वजह यह भी है कि पुलिस में अल्पसंख्यकों की संख्या बेहद कम है। देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को सुरक्षित रखने के लिए अल्पसंख्यकों के मन में विश्वास भरने की ज़रूरत है।

पर क्या इस कानून का विपरीत सर नहीं होगा। इस कानून का नाम अल्पसंख्यक समूहों की रक्षा का कानून होता तो बेहतर था। इस कानून का लाभ कांग्रेस उठा पाएगी या नहीं, पर भारतीय जनता पार्टी अपने बिछुड़े हुए हिन्दू आधार को वापस पाने की कोशिश ज़रूर करेगी। कानून का उद्देश्य वर्ग विशेष के खिलाफ दुर्भावना, घृणा और दुष्प्रचार रोकने के लिए भी सरकार को विशेष अधिकार प्राप्त होंगे। पर इसके नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का प्रयास भी हो सकता है। देश में साम्प्रदायिक सद्भाव तैयार करने के लिए राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सद्भाव प्राधिकरण भी बनाने का प्रस्ताव है। इसके सात में से चार सदस्य इन अल्पसंख्यक समूहों के होंगे। प्राधिकरण के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी इन समूहों के होंगे।

असुरक्षित अल्पसंख्यक मन को संतोष देने के लिए यह विचार सही है, पर इसकी व्यावहारिकता के बारे में ज्यादा विचार नहीं किया गया है। अल्पसंख्यक समूहों की सुरक्षा की जिम्मेदारी बहुसंख्यक समूहों की भी होती है। यदि शुरूआत से ही हम उन्हें दो समूहों में बाँट देंगे, तब इसके दुष्परिणाम भी होंगे। बेहतर हो कि इसके उपबंधों पर खुली बहस हो और राजनीतिक नफा-नुकसान देखने की कोशिश न हो। पर हमारे देश में क्या ऐसा होता है? या हो सकता है?

2 comments:

  1. सरजी इससे किसी का भला नहीं होगा, हां देश बर्बाद जरूर हो जाएगा। यह एक और फूट डालों और राज करो की राजनीति है और कुछ नहीं।

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  2. Anonymous10:55 AM

    dharmik sadbhav manisk bhavna hai. jodne ke bajay tod kar laabh kamnae ki rajneeti ho rahi hai. itihas gavah hai yah hamesha se hota raha hai. satta ke liye dharm ka istemaal karna(Aurangjeb-Dara)karke apni isthiti ko majboot rakhna. rajneeti trak chor chuki hai aur desh ke bahusankhyak budhijivi comment karke apna Itishri samajh lete hai.

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