(प्रणय रॉय पर किशन पटनायक ने यह लेख 1994 में लिखा था। अब जब प्रणय रॉय के नियंत्रण से एनडीटीवी के बाहर होने की खबर आई है, इस आलेख को पढ़ना रोचक होगा। इस लेख की पृष्ठभूमि उस दौर की है, जब प्रणय रॉय देश के नए मीडिया के प्रारंभिक सूत्रधार के रूप में उभर रहे थे। किशन पटनायक, प्रखर समाजवादी चिन्तक, लेखक एवं राजनेता थे। उन्होंने समाजवादी जन-परिषद की नींव रखी और सामयिक वार्ता नाम की एक पत्रिका शुरू की। उनकी तीन किताबें छपी हैं : किसान आंदोलन–दशा और दिशा, भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि और विकल्पहीन नहीं है दुनिया। इन तीनों किताबों का कॉपीराइट फ्री है और गूगल लाइब्रेरी में ये उपलब्ध हैं।)
काश के अंग्रेजी न जानने वाले लोग प्रणय राय को नहीं जानते
होंगे। लेकिन प्रणय राय को जानना जरूरी है क्योंकि वह एक नयी सामाजिक घटना का
प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रणय राय की प्रसिद्धि शुक्रवार को दूरदर्शन पर चलने वाले
साप्ताहिक विश्वदर्शन कार्यक्रम से बनी है। जिस अंदाज से कोई जादूगर तमाशा (शो)
दिखाता है, उसी अंदाज से
टीवी दर्शकों का ध्यान केंद्रित करके दूरदर्शन द्वारा चुने हुए समाचारों या
वक्तव्यों के प्रति श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करके रखना दूरदर्शन की एक खास विधा बन
गयी है। प्रीतीश नंदी का शो, प्रणय राय का साप्ताहिक विश्वदर्शन (द वर्ल्ड दिस वीक) आदि
इस विधा के श्रेष्ठ प्रदर्शन हैं।
देश के बुद्धिजीवियों में ऐसे लोग शायद बिरले ही होंगे, जो अत्यंत बुद्धिशाली होने के साथ-साथ बीच बाजार में तमाशा भी कर सकें। ऐसे बिरले प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों की तलाश टेलीविजन व्यवसायियों को रहती है। उनके माध्यम से टेलीविजन के प्रदर्शन-व्यवसाय को कुछ बौद्धिक प्रतिष्ठा मिल जाती है, जिससे बहुत-से भद्दे और अश्लील कार्यक्रमों को चलाना सम्मानजनक भी हो जाता है।
जब शुक्रवार के विश्वदर्शन कार्यक्रम के चलते प्रणय राय
टीवी के दर्शकों के प्रिय हो गये, तब उनको सरकार की आर्थिक नीतियों के बारे में सूचना देने का
कार्यक्रम दिया गया। पिछले साल के बजट से नयी अर्थनीति का यह दूरदर्शन-प्रयोग शुरू
हुआ, और इस साल उसकी
अवधि और उस पर पैसा काफी बढ़ा दिया गया है (संभवतः एक विदेशी कंपनी इसके लिए पैसा
दे रही है)। फरवरी, 1994 की 28 तारीख की शाम को वित्तमंत्री ने जो बजट भाषण संसद में दिया, उसका सीधा प्रसारण किया
गया। भाषा की जटिलता के कारण बहुत कम लोग बजट की बातों को समझ पाते हैं, ज्यादातर लोग इंतजार करते
हैं कि कोई उस बजट की व्याख्या करके उन्हें सुनाये। जो लोग अंग्रेजी जानते हैं और
बजट को समझकर दूसरों को भी समझाना चाहते हैं, ऐसे मत-निर्माता समूह (ओपीनियन
मेकर्स) – व्यापारी, प्राध्यापक, लेखक, पत्रकार, राजनैतिक नेता आदि बजट की व्याख्या तत्काल सुनने के लिए
उत्सुक रहते हैं। ये लोग लगभग दो लाख होंगे जो करीब 50 लाख या शायद एक करोड़
पढ़े-लिखे लोगों तक अपनी बात पहुंचाते हैं। ये सारे लोग 28 फरवरी की शाम सात बजे से
रात दस बजे तक अपने-अपने घरों में टेलीविजन देख रहे थे। इस बार की बजट व्याख्या दो
किस्तों में करीब डेढ़ घंटे चली और एक घंटा तो खुद वित्तमंत्री मनमोहन सिंह प्रणय
राय के पास बैठे रहे और सवालों के जवाब देते रहे। सवाल सचित्र आ रहे थे – लंदन, हांगकांग और न्यूयॉर्क से; मुंबई, कलकत्ता और बेंगलूर से।
अनुमान है कि प्रणय राय को इस ‘शो’ के लिए करीब दस लाख रुपये मिले होंगे।
प्रणय राय दूरदर्शन की सेवा शुरू करने से पहले दिल्ली में
अर्थशास्त्र की एक प्रसिद्ध अध्ययन और अनुसंधानशाला में प्रोफेसर थे (दिल्ली में
प्रोफेसरों को बहुत अच्छी तनख्वाह मिलती है)। वे न सिर्फ एक अच्छे विद्वान थे, बल्कि प्रगतिशील धारा से
भी उनका घनिष्ठ संबंध था तथा उनके निबंधों में प्रगतिशीलता का रुझान स्पष्ट रूप से
परिलक्षित होता था। अध्ययन, अनुशीलन और अनुसंधान के कार्यक्षेत्र को छोड़कर प्रणय राय
दूरदर्शन के कार्यक्रम के निर्माता बन गये। एक सामाजिक घटना के तौर पर इसका महत्व
इस बात में है कि तीक्ष्ण बुद्धि के एक प्रगतिशील बुद्धिजीवी को अपना मध्यवर्गीय
जीवन-स्तर काफी ऊंचा होते हुए भी अध्ययन और अनुसंधान के कार्यकलाप को छोड़ देने
में कोई झिझक नहीं हुई और काफी नाम तथा धन कमाने के लिए (यानी एक प्रचलित जायज
उद्देश्य के लिए) वह खुशी-खुशी दूरदर्शन का एक तमाशगीर (यह एक मराठी शब्द है, जिसे ‘शो मैन’ के लिए हम
व्यवहार कर रहे हैं) बन गया।
28 फरवरी को यह
बजट-दर्शन बहुत ही कुशलतापूर्वक दिखाया गया। एक मशहूर व्यापार-पत्रिका के संपादक
को पास बैठाकर उसे बजट पर बातचीत के द्वारा प्रणय राय ने बजट की मुख्य बातें बता
दीं। जाहिर था कि इस शुरुआती बातचीत का उद्देश्य बजट संबंधी चर्चा के मुख्य
बिंदुओं को तय करना था और ये बिंदु उदारीकरण के मानदंड से चिन्हित किये गये थे।
जिन चार-पांच मुख्य बातों को प्रणय राय ने रेखांकित किया, बाद के पूरे
बजट-कार्यक्रम में सिर्फ उनकी पुष्टि की जा रही थी। बजट में अत्यधिक घाटे, सीमा-शुल्क में भारी
रियायत, अंतर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोष के ऋण की समय से पहले अदायगी आदि इसकी मुख्य बातें थीं। सारी बातचीत
इन्हीं तीन-चार मुद्दों पर केंद्रित रही। जब देश के महानगरीय व्यवसायियों की बारी
आयी तो उन्होंने भी इन्हीं बातों को कुछ नम्रता पूर्वक रखा। मुंबई के शेयर बाजार
से खबर आयी कि भाव गिर रहा है। मगर क्यों? इसलिए कि व्यापारियों ने
‘इससे भी बढ़िया’ बजट की उम्मीद कर रखी थी। लेकिन कोई खास परेशानी की बात नहीं।
कुल मिलाकर बजट ‘सही दिशा’ में चल रहा है। शेयर बाजार कुछ दिनों में फिर अपनी
रफ्तार में आ जाएगा। वित्तमंत्री ने एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा भी कि
‘रातोंरात सब कुछ’ नहीं हो जाएगा।
जब बजट-कार्यक्रम का सारा समय अंतर्राष्ट्रीय और महानगरीय
व्यापारियों से बातचीत में चला गया, तब प्रणय राय को (या दूरदर्शन को) याद आया कि कुछ साधारण
आदमियों से यानी किसान, महिला, युवा और उपभोक्ता नागरिक से भी बजट संबंधी बातचीत दिखायी
जाए, नहीं तो
बजट-कार्यक्रम शायद अधूरा रह जाएगा।
शुरू में देश के महानगरों के व्यवसायी-संगठनों आदि की
प्रतिक्रिया बतायी गयी। लेकिन बाद में जब वित्तमंत्री आ गये, तो उनसे बातचीत करने और
सवाल पूछने के लिए हमारे दूरदर्शन का द्वार विश्व के लिए खुल गया और बजट का
ग्लोबीकरण हो गया। लंदन, वाशिंगटन और हांगकांग में बैठे हुए विदेशी व्यापारियों ने
सीमा-शुल्क घटाने के वायदे को पूरा करने के लिए धन्यवाद देते हुए मनमोहन सिंह के
मुंह पर यह पूछा कि इतना घाटा क्यों रखा गया है? बरकरार राजकीय अनुदानों
को खत्म क्यों नहीं किया गया? घाटे के परिणामस्वरूप मूल्य आदि की अस्थिरता के कारण क्या
विदेशी व्यापारियों का उत्साह कम नहीं हो जाएगा? सारी दुनिया के सामने उन
विदेशी व्यापारियों द्वारा भारत सरकार के बजट पर भारत सरकार के वित्तमंत्री से इस
तरह के सवाल पूछने का इसके सिवा क्या अर्थ क्या है कि हमारे बजट को धनी देशों के
व्यापारियों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह होना चाहिए। यह उदारीकरण के मानदंड से
बजट की समीक्षा थी। एक किसान को दिखाया गया, जो बुजुर्ग था और विलायती
ढंग से सूत पहने हुए था। उसके अंग्रेजी बोलने में व्याकरण की कोई गलती नहीं थी और
उसका अंग्रेजी उच्चारण भी बढ़िया था। यह दूरदर्शन पर नयी आर्थिक नीति के किसान की
छवि थी। उसने सिर्फ एक सवाल पूछा और मनमोहन सिंह के जवाब के बाद वह शांत हो गया।
जब कार्यक्रम समाप्त होने में बस एक-दो मिनट बाकी रह गया था, तब जल्दी में बेंगलूर
महानगर के किसी दफ्तर में कुछ लोगों को दिखाया गया (कुछ साधारण आदमियों और
उपभोक्ताओं को दिखाना था)। एक बेरोजगार युवक की हैसियत से जिससे बेरोजगारी के
संबंध में सवाल पूछना था, उसने बेरोजगारी का नाम तो लिया मगर सवाल यह पूछा कि घाटे के
बजट को देखकर पूंजी-निवेश करने वाले हतोत्साहित होंगे तो रोजगार कैसे बढ़ेगा।
बिलकुल अंत में एक-दो सेकंडों में एक महिला ने उपभोक्ताओं से संबंधित एक सवाल रखा
और वित्तमंत्री का जवाब पाकर संतुष्ट हो गयी। उसे महिला और उपभोक्ता दोनों की
भूमिकाओं में दिखाकर प्रणय राय ने सोचा होगा कि पूरे समाज को उन्होंने बजट से जोड़
दिया और देश के सभी वर्गों की प्रतिक्रिया भी आ गयी।
जिस तरह इंडिया टुडे का संपादक कुछ महानगरों के
विद्यार्थियों से बातचीत का हवाला देकर देश की युवा पीढ़ी के बारे में एक खास तरह
का निष्कर्ष और एक खास तरह की छवि प्रचारित करने की कोशिश करता है, ठीक उसी तरह की कोशिश
दूरदर्शन पर प्रणय राय कर रहे हैं। सर्वप्रथम हांगकांग और अमरीका के व्यापारी, दूसरे क्रम में मुंबई और
कलकत्ता के व्यापारिक संघ और शेयर बाजार, तीसरे क्रम में सूट-बूट पहने हुए भूस्वामी और
चौथे क्रम में कुछ हद तक महानगरीय खाते-पीते मध्यम वर्ग के लोग। बाकी सभी लोग और
समूह बजट के लिए बिलकुल अप्रासंगिक क्यों हो गये हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें
मिल सकता है, यदि हम प्रणय राय
को एक नये किस्म के बुद्धिजीवी वर्ग के उभार के प्रतिनिधि के रूप में देखें, जिसका जनता से लगाव खत्म
हो चुका है।
यहां हम प्रणय राय को एक व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक घटना के
रूप में देखने की कोशिश करें, क्योंकि प्रणय राय की वर्तमान भूमिका कोई अकेली दुर्घटना
नहीं है। इसकी व्याप्ति काफी बढ़ गयी है। एक मध्यवर्गीय प्रतिभा-संपन्न बुद्धिजीवी, जिसका अपनी युवावस्था में
प्रगतिशीलता की तरफ झुकाव हो जाता है, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित शिक्षा-केंद्र में
प्राध्यापक था। उसे तनख्वाह के रूप में अच्छी रकम मिलती थी, जिससे वह आर्थिक रूप से
सुरक्षित था। अपने प्रगतिशील रुझान के कारण वह जनसाधारण से जुड़ाव महसूस करता था।
चार-पांच साल पहले टेलीविजन के माध्यम से एक नयी विज्ञापनी संस्कृति का अनुप्रवेश
होता है। देश की अर्थनीति में ऐसे परिवर्तन तेजी से होने लगते हैं कि वह
मध्यवर्गीय उच्च-शिक्षित, मेधावी, प्रगतिशील रुझान वाला युवा बुद्धिजीवी अब मध्यवर्गीय न रहकर
साल में पच्चीस-तीस लाख की कमाई कर सकता है। टेलीविजन और नयी अर्थनीति का संयोग
उसके लिए अपने को विज्ञापित करने और साथ ही प्रचुर धन हासिल करने का आकर्षण पैदा
कर देता है। वह इसकी गिरफ्त में आ जाता है और उस पर धन की हविस तथा आधुनिक मीडिया
की चकाचौंध हावी हो जाती है। उसका सामाजिक लगाव छूट जाता है। भारत के करोड़ों
साधारण जन उसके लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां उसको काफी धन
देकर उसकी मेधा का इस्तेमाल करने के लिए होड़ लगाती हैं। इस बात की होशियारी बरती
जाती है कि उसे पता न चले कि वह एक बिकाऊ माल है। इसलिए उसे ऐसे ही काम में लगाया जाता
है, जिसमें उसे यही
आभास हो कि चमत्कारी ढंग से एक बौद्धिक कार्य में लगा हुआ है। वह स्वयं को
खुशी-खुशी बेच सके, इसके लिए यह जरूरी है कि उसके काम की एक बौद्धिक छवि हो तथा
वह स्वयं के बारे में यह धारणा बना सके कि देश आगे बढ़ रहा है। प्रणय राय के इस
तरीके देश को आगे बढाने के लिए यह जरूरी है कि करोड़ों साधारण जनों को अप्रासंगिक
मानकर देश के बारे में सोचा जाए।
नयी आर्थिक नीति तथा आधुनिक संचार माध्यमों के संयोग से एक
नये बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हो रहा है। इस वर्ग के पहले उभार में वे महानगरीय
बुद्धिजीवी हैं,
जो अपने को
विज्ञापन का हिस्सा बनाने के लिए और करोड़ों साधारण जनों को अप्रासंगिक मानने के
लिए तैयार हो गये हैं।
किशन जी जिंदाबाद ।
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