पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के लिए सैयद आसिम मुनीर के नाम को स्वीकृति देकर कई तरह की आशंकाओं को खत्म कर दिया। आशंका थी कि वे अड़ंगा लगाएंगे। पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष का पद राजनीतिक-दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि सेना अब कह रही है कि हमारी दिलचस्पी राजनीति में नहीं है, पर वहाँ की व्यवस्था में सेना की भूमिका खत्म नहीं होगी। खासतौर से वहाँ की विदेश-नीति और भारत के साथ रिश्ते सेना तय करती है। देखना होगा कि आसिम मुनीर की राजनीतिक-दृष्टि क्या है? उनसे किस प्रकार के प्रशासनिक-राजनीतिक परिवर्तन की आशा है? क्या इमरान खान नहीं चाहते थे कि वे सेनाध्यक्ष बनें? यदि हाँ, तो क्यों? उनके आने से दक्षिण एशिया में तनाव कम होगा या बढ़ेगा? भारत के साथ रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा वगैरह।
शुरुआती हिचक
गुरुवार 24 नवंबर को पाकिस्तान की सूचना मंत्री
मरियम औरंगजेब ने एक ट्वीट में कहा कि प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने लेफ्टिनेंट
जनरल साहिर शमशाद मिर्जा को जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ का अध्यक्ष और लेफ्टिनेंट जनरल सैयद
आसिम मुनीर को सेनाध्यक्ष नियुक्त करने का फैसला किया है। सांविधानिक व्यवस्था के
अनुसार राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री के फ़ैसले पर मुहर लगानी चाहिए, पर पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने इसके पहले कहा था कि राष्ट्रपति
अपना फैसला करने के पहले मुझसे परामर्श करेंगे। इस वजह से अंदेशा था। अल्वी साहब
इमरान खान की पार्टी पीटीआई से आते हैं। वे चाहते तो इस नियुक्ति को करीब एक महीने
तक टाल भी सकते थे। ऐसा होने पर वे और ज्यादा विवादास्पद हो जाते, साथ ही इमरान
खान की पार्टी पीटीआई के साथ सेना के रिश्ते खराब हो जाते।
नियुक्ति का महत्व
देश के नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति 29 नवंबर तक
हो जानी चाहिए। उस दिन जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल समाप्त होने वाला है।
उसके दो दिन पहले 27 नवंबर को ही ले जनरल आसिम मुनीर का कार्यकाल खत्म हो रहा है। बहरहाल
गुरुवार को ही लाहौर में इमरान खान और राष्ट्रपति की मुलाकात हुई और शाम को
राष्ट्रपति ने इस्लामाबाद आकर अपनी स्वीकृति दे दी। राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी इसके
पहले एक विवादास्पद काम कर चुके हैं। इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ अविश्वास मत के सफल
होने के बाद शहबाज़ शरीफ़ को उन्होंने शपथ नहीं दिलाई। राष्ट्रपति भवन से ख़बर आई
कि राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी की तबीयत अचानक बिगड़ गई है जिसके कारण वे शपथ नहीं
दिलवा सकेंगे। अंततः सीनेट चेयरमैन सादिक संजरानी ने नए प्रधानमंत्री को शपथ
दिलाई। बाद में जब परवेज़ इलाही को पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलवाने
की बात आई तो उन्होंने रातोंरात राष्ट्रपति भवन में परवेज़ इलाही को शपथ दिलाई।
इमरान और सेना
2018 के चुनाव में सेना ने धाँधली करके इमरान
को प्रधानमंत्री बनाया, पर इमरान भस्मासुर साबित हुए और उनकी हरकतों के कारण सेना
ने उनसे दूरी बना ली। आसिम मुनीर के बारे में कहा जाता है कि जब वे आईएसआई के
प्रमुख थे, तब उन्होंने इमरान से उनकी पत्नी बुशरा बीबी की शिकायतें की थीं। बुशरा
बीबी की प्रसिद्धि इस बात में है कि वे झाड़-फूँक करती हैं और जिन्नात उनके कब्जे
में हैं। उनके तंत्र-मंत्र से ही इमरान प्रधानमंत्री बने हैं। बहरहाल आसिम मुनीर
की शिकायत के कुछ समय बाद ही उन्हें आईएसआई प्रमुख के पद से हटाकर फैज़ हमीद को
आईएसआई चीफ बना दिया गया। पाकिस्तानी मीडिया के अनुसार इमरान आसिम मुनीर को आर्मी
चीफ़ बनाने के खिलाफ थे। चूँकि उन्होंने बतौर डीजी आईएसआई उनको हटाया था, इसलिए उन्हें
डर था कि आगे जाकर दिक्कतें होंगी। डर यह भी है कि चुनाव के दौरान सेना उनके खिलाफ
भूमिका निभाएगी। आसिम मुनीर अच्छे अफसर माने जाते हैं, पर
इस वक्त उन्हें राजनीतिक रूप से विवादास्पद मान लिया गया है।
नए सवाल
सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के बाद अब राजनीति से जुड़े नए सवाल खड़े होंगे। उसके पहले देखना होगा कि इमरान खान, फौरन चुनाव कराने के लिए जिस आंदोलन को चला रहे हैं, वह कहाँ तक जाता है। पहले उनकी मंशा थी कि नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के पहले ही चुनाव हो जाएं। उन्हें उम्मीद है कि वे जीतकर आएंगे। ऐसा हो नहीं पाया, पर वे किसी न किसी रूप में अपना चुनाव-अभियान जारी रखेंगे। पीएमएल (नून) की सरकार की कोशिश है कि देश में स्थिरता आनी चाहिए। स्थिरता आई भी है। आर्थिक स्थितियाँ कुछ बेहतर हुई हैं, विदेशी रिश्ते भी बेहतर हुए हैं। पर क्या इन सब बातों की बदौलत इमरान खान को रोक पाएंगे? इमरान जिस भावनात्मक रथ पर सवार हैं, उसका मुकाबला करना आसान नहीं है।
भारत के लिए संदेश
मंगलवार 29 नवंबर को जनरल कमर जावेद बाजवा अपने
पद से मुक्त हो जाएंगे और जनरल आसिम मुनीर पदभार ग्रहण कर लेंगे। जनरल बाजवा पाकिस्तान
की सेना के छह साल तक सर्वेसर्वा रहे। उनका कार्यकाल नवंबर, 2019
तक ही था, लेकिन बाद सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों के आधार पर
उन्हें तीन साल का सेवा विस्तार दिया गया था। जनरल मुनीर उनके विश्वस्त सहयोगियों
में रहे हैं। इसलिए संभावना है कि वे जनरल बाजवा की परंपरा को ही आगे बढ़ाएंगे। पाकिस्तान
की भारत से जुड़ी नीतियों के संदर्भ में कुछ बातें साफ समझ ली जानी चाहिए। वहाँ की
राजनीति और सेना में कोई भी खुलेआम भारत के साथ दोस्ती की बात कहने की सामर्थ्य
नहीं रखता। पिछले 75 वर्षों में वहाँ की जनता के मन में इतना जहर भर दिया गया है
कि भारत-विरोध ही पाकिस्तानी विचारधारा बन चुकी है।
बाजवा की नीतियाँ
जनरल कमर जावेद बाजवा के कार्यकाल में दो
अंतर्विरोधी बातें देखने को मिलीं। उनके कार्यकाल में भारत-विरोधी गतिविधियाँ अपने
चरम पर थीं और उनके ही कार्यकाल में पिछले साल फरवरी में नियंत्रण रेखा पर
गोलाबारी बंद करने का समझौता हुआ। इतना ही नहीं जनरल बाजवा ने कहा कि हमें कश्मीर
के मसले को पीछे रखकर भारत से बात करनी चाहिए। पर उनके और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ
के रिश्ते तल्ख रहे। तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर
बनाने के लिए बातचीत की पेशकश की, जिसमें सेना ने अड़ंगा लगाया। इतना ही नहीं
इमरान खान को कुर्सी पर बैठाने और नवाज शरीफ के खिलाफ मुकदमा चलाने और उन्हें जेल
भेजने में भी सेना की भूमिका रही। फिर इमरान को अपदस्थ करने और नवाज शरीफ की
पार्टी को सत्तारूढ़ करने में भी सेना का परोक्ष हाथ रहा है। जुलाई 2015 में रूस
के उफा शहर में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का एक लिखित मजमून तैयार हुआ। उसे
पाकिस्तानी सेना के हस्तक्षेप से रद्द कर दिया गया। उफा में यह भी तय हुआ था कि
नरेंद्र मोदी नवंबर 2016 में पाकिस्तान में होने वाले सार्क शिखर सम्मेलन में भाग
लेंगे। 25 दिसंबर 2015 को नरेंद्र मोदी काबुल से वापसी के समय लाहौर में रुके। यह
अनौपचारिक यात्रा थी। नवाज शरीफ के परिवार में एक शादी थी, जिसमें
शामिल होने के इरादे से मोदी लाहौर में उतरे थे। तब तक तय हो चुका था कि 15 जनवरी
2016 को दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक में भविष्य के विचार-विमर्श की
रूपरेखा बनाई जाएगी।
पठानकोट से पुलवामा
मुशर्रफ के बाद से पाकिस्तान में सरकार और सेना
एक पेज पर नहीं रहे। पर पिछले साल फरवरी में जनरल बाजवा ने पाकिस्तानी एयरफोर्स
एकेडमी में कहा कि यह वक्त है कि हमें हरेक दिशा में शांति के प्रयास करने चाहिए।
पाकिस्तान और भारत कश्मीर विवाद का समाधान कर लेना चाहिए। मार्च, 2021 में
प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान के थिंकटैंक नेशनल सिक्योरिटी डिवीजन के दो
दिन के इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग का उद्घाटन करते हुए कहा कि हम भारत के साथ
रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। इसी कार्यक्रम में बाद में जनरल बाजवा ने
कहा, ''अब अतीत को भुला कर आगे बढ़ने का समय आ गया
है।" उनका यह भी कहना था कि अनुच्छेद 370 भारत का अपना मामला है। उसे लेकर हमें कठोर रेखा नहीं खींचनी चाहिए। अप्रेल, 2021 में पाकिस्तान की कैबिनेट ने भारत से चीनी और कपास के
आयात का फैसला किया और अगले ही दिन यू-टर्न कर लिया। ऐसा ही नवाज शरीफ के कार्यकाल
में हुआ था, जब 25 दिसंबर 2015 को मोदी की लाहौर यात्रा के एक हफ्ते बाद 2 जनवरी
2016 को पठानकोट पर हमला हुआ। इस हमले ने सारी कहानी बदल दी। पाकिस्तान में सार्क
सम्मेलन कभी नहीं हो पाया। फरवरी 2019 में पुलवामा का हमला हुआ।
आसिम मुनीर क्या करेंगे?
जब पुलवामा का हमला हुआ, उस समय आईएसआई के
प्रमुख आसिम मुनीर ही थे, जो अब सेनाध्यक्ष बने हैं। वे भारत-विरोधी गतिविधियों के
विशेषज्ञ माने जाते हैं। एक तरह से देखा जाए, तो बाजवा और उनके कार्यकाल में दोनों
देशों के बीच गहरी कड़वाहट पैदा हो गई थी। उनसे भारत-प्रेम की उम्मीद नहीं की जा
सकती है। पर पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान संधिकाल से गुजर रहा है। उनकी नई
रक्षा-नीति में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था ही सबसे बड़ी सुरक्षा है। कहा जा रहा
है कि जनरल आसिम मुनीर को सेनाध्यक्ष बनाने में नवाज शरीफ की भूमिका है। नवाज शरीफ
पाकिस्तान के पहले ऐसे बड़े राजनेता हैं, जिनकी व्यापारिक पृष्ठभूमि है। हाल के वर्षों में उन्होंने ही भारत से रिश्ते बनाने कीसंजीदा कोशिश की थी। संभव है कि उफा से शुरू हुई प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कोशिश अब हो। पाकिस्तान को अमेरिका और चीन के रिश्तों का संतुलन भी बैठाना है। इसमें भी इमरान खान फेल हुए
थे। सवाल है कि क्या इमरान की वापसी होगी? इमरान
खान जिस पाकिस्तान की परिकल्पना कर रहे हैं, वह कट्टरपंथी आँधियों से घिरा होगा। वे मानते हैं कि भारत के साथ रिश्ते तभी सुधरेंगे,
जब बीजेपी का शासन खत्म होगा। ऐसी शर्तों पर क्या कहा जाए। बहरहाल आगे-आगे देखिए
होता है क्या।
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