Friday, February 16, 2018

भारत के 'नव मध्य वर्ग' का मिथक

आसिया इस्लाम

ज़रूरी डिग्रियों व कौशल के अभाव में लोग मध्यवर्गीय दिखाई पड़ने वाली ऐसी नौकरियों के भंवर में फंस गए हैं, जिनके कामकाजी हालात मजदूरों जैसे हैं.

दावोस में हुए हालिया वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के प्लेनरी सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जोरदार स्वागत हुआ. फोरम के संस्थापक क्लॉस श्वाब ने उनका परिचय ऐसे देश के नेता के तौर पर कराया, जिसकी छवि गतिशीलता और उम्मीदों से दमक रही है. अपनी तरफ से मोदी जी ने साझे भविष्य का एक ऐसा दृष्टिकोण पेश किया जो असमानता, गरीबी, बेरोजगारी और अवसरों की कमी की दरारों को पाट सकता है.

दौरे से ऐन पहले मोदी जी ने भारत को पूरी दुनिया के आकर्षण के केंद्र के रूप में पेश किया. जब मोदी भारत को उभरती हुई वैश्विक शक्ति के तौर पर परोस रहे थे, करीब उसी वक्त नीति आयोग (दुर्भाग्य से जिसका नेतृत्व स्वयं मोदी जी करते हैं) ने देश में बेरोजगारी की भयावह स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की. इसी समय 'असर 2017' रिपोर्ट ने खुलासा किया कि शिक्षा तथा युवाओं को पेशेवर प्रशिक्षण देने के लिए चलाए जा रहे अनेक कार्यक्रम बेअसर साबित हुए हैं. विश्व बैंक के हाल के एक बयान के मुताबिक़ भारत के 1% सबसे धनवान लोग देश की 73% सम्पत्ति पर काबिज हैं. कुल मिलाकर देश के भविष्य की तस्वीर बहुत अच्छी नहीं दिखाई देती.
मोदी जी एक और बात लगातार कह रहे हैं कि "अगर कोई आपके ऑफिस के सामने 'पकौड़े' का ठेला लगाता है, तो क्या उसे आप रोजगार नहीं मानेंगे? ऐसे आदमी की 200 रुपए रोज की कमाई किसी खाते में दिखाई नहीं देती. सच तो यह है कि बड़ी संख्या में लोग किसी न किसी रोजगार से जुड़े हैं." इस किस्म के अनौपचारिक और अनिश्चित काम को फायदेमंद रोजगार के रूप में पेश करने पर प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना होना स्वाभाविक है. मगर बड़बोले दावों का क्या करें, जिनमें कहा जाता रहा कि 1990 दशक से चली निजीकरण और सीधे विदेशी निवेश की मुहिम से औपचारिक रोजगार की बाढ़ आ जाएगी?
पकौड़ा रोजगार

दुर्भाग्य से, पकौड़ा रोजगार, यानी अनौपचारिक, अनिश्चित और आधी-अधूरी कमाई वाले रोजगार- की स्थितियां नुक्कड़ पर चाय-पकौड़े का ठेला लगाने तक सीमित नहीं हैं. भारत की विकास कथा का कितना भी बखान कीजिए, देश में बहुसंख्य नौकरियों का यही हाल है. इनमें भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े और दुनिया के सबसे तेज़ी से बढ़ रहे सेवा क्षेत्र की औपचारिक नौकरियां भी शामिल हैं.

अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की सफलता को दर्शाने वाले आंकड़े- ऊंची वृद्धिदर, प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी, सेवा क्षेत्र का तीव्र विकास- आम आदमी के रोजमर्रा के संघर्ष को बड़ी चालाकी से छुपा देते हैं. यहां तक कि रोजगारशुदा कहे जाने वाले लोगों की मुश्किलें भी इनकी चकाचौंध में नज़र नहीं आतीं.

यह मान्यता खासी लोकप्रिय है कि निजीकरण और विदेशी निवेश ने नौजवानों, और ख़ास तौर पर महिलाओं के लिए रोजगार के बेशुमार अवसर पैदा किए हैं (क्यों न हो, महिला सशक्तीकरण का अगर कोई गढ़ बताया जाता है तो वह अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही है! क्यों हैं न?). इस मान्यता का लोकप्रिय होना शायद इतना आश्चर्यजनक भी नहीं. भारतीय नगरों में तेज़ी से उभर रहे चमचमाते मॉल व कैफे में स्मार्ट तरीके से ख़ास ढब की पोशाकों में कार्यरत लड़कियों को देखकर लग सकता है कि हम विकास कर रहे हैं. लेकिन उनकी मुस्कराहट, अंगरेजी हाव-भाव और गर्म पेय उनकी वास्तविक स्थितियों को छुपा देते हैं. उनकी स्थितियां, मोदी जी के अर्थपूर्ण रोजगार यानी अनौपचारिक स्व-रोजगार में लगे लोगों से ज़रा भी अलग नहीं हैं.

यह छुपी हुई सच्चाई तब प्रकट हुई जब मैंने 2017 में सपन्न दक्षिणी दिल्ली के कैफे और मॉल में काम करने वाली नवयुवतियों के हालात पर एक शोध किया. ये युवतियां औसतन 8000 रुपए प्रतिमाह पाती हैं. इस पगार पर इनका परिवार भी निर्भर है. इतना कमाने के लिए उन्हें अमूमन ओवरटाइम काम करना पड़ता है, जिसके एवज में उन्हें अलग से कोई पैसा नहीं मिलता. अकसर उन्हें 6 दिन के वेतन पर हफ्ते में सातों दिन काम करना पड़ता है. अगर हम महीने कि 25 दिन भी गिनें तो उन्हें दिल्ली राज्य के लिए निर्धारित न्यूतम मजदूरी भी नहीं मिलती है.

भँवर में जीवन

2017 की शुरुआत में दिल्ली राज्य में सत्तासीन आम आम आदमी पार्टी ने न्यूनतम मासिक मजदूरी में एक तिहाई की बढ़ोतरी करते हुए इसे अकुशल, अर्ध कुशल और कुशल श्रमिकों के लिए क्रमशः 13,350 रुपए, 14,968 रुपए और 16,182 रुपए कर दिया. दिल्ली सरकार के इस कदम के खिलाफ कर्मियों की एक याचिका का जवाब देते हुए उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की- "क्या किसी आदमी के लिए 13,000 रुपए में गुज़ारा करना संभव है? एक आदमी रोजाना 100 रुपए बस भाड़े में खर्च करता है. महीने में यह 3000 रुपए हो जाता है. आप खाएंगे क्या? जिन्दा रहने के लिए खाना तो पड़ता ही है. इसके लिए भी रोज कम से कम 50 रुपए चाहिए. 13000 रुपए की राशि बहुत कम है. यह अपर्याप्त है."

इन कामगारों का भावनात्मक श्रम, जिसका कहीं ज़िक्र नहीं होता, उनके भीषण शारीरिक दोहन के पीछे छुप जाता है. दिन भर खड़े रहने से सूज गई उनकी टांगें रात की नींद का इंतज़ार करती हैं ताकि अगली सुबह के लिए खुद को तैयार कर सकें. उनकी कमाई की अपर्याप्तता कई मौकों पर जाहिर हो जाती है- महंगे किराए के कारण मेट्रो में सफ़र न कर पाने में. किसी डिग्री की पूरी फीस न चुका पाने में. या फिर 5000 रुपए किराए वाले एक बेड-रूम के फ़्लैट के मकान मालिक से मोलभाव करने में. ये सब वे स्थितियां हैं, जिन से उबर पाने की उम्मीद ये कामकाजी लड़कियां नहीं कर सकतीं क्योंकि उनके पास बहुत कम विकल्प बचते हैं.

प्रधानमंत्री की तस्वीर सस्ती दर की इन्टरनेट सेवा देने वाले रिलायंस जिओ के विज्ञापन में उभरती है. वे नौजवानों तक स्मार्टफोन और 4जी सिम पहुंचाने की बात करते हैं लेकिन उनके लिए अच्छी शिक्षा, घर और बुनियादी ढांचे का कहीं अता-पता नहीं है. जैसा कि हम विश्वास करते हैं, और सरकार चाहती है हम विश्वास करें कि ये सब विकासमान मध्य वर्ग की तस्वीरें हैं मगर वास्तविकता हमारी मान्यताओं को ध्वस्त कर देती है. ये नौज़वान और उनके परिवार ज़रूरी डिग्रियों व कौशल प्रशिक्षण के अभाव में मध्यवर्गीय दिखाई पड़ने वाली ऐसी नौकरियों के भंवर में फंस गए हैं, जिनके कामकाजी हालात मजदूरों जैसे हैं.
औपचारिक रोजगार
युवाओं के लिए रोजगारोन्मुख प्रशिक्षण के लिए किए जा रहे सरकारी निवेश और सुरक्षित व न्यायोचित पगार वाले काम के बीच कोई सामंजस्य नहीं दिखाई पड़ता. कई सारे लोग सस्ते सरकारी केन्द्रों या स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे कंप्यूटर व इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की शिकायत करते देखे जा सकते हैं. इस तरह के प्रशिक्षण से कोई काम मिलता नहीं दिखाई दे रहा है. जैसा कि मेरे एक शोध उत्तरदाता ने बताया, "वे पढ़ाई के बारे में पूछते हैं- बीए, एमए... लेकिन इसके लिए पैसा खर्च नहीं करना चाहते. यह सरकार के हाल हैं. वे कामगारों को टाई-सूट पहनाकर पेश कर सकते हैं लेकिन अगर आप उनसे बात करेंगे तो आपको उनकी आर्थिक बदहाली का पता चलेगा.

कोई आश्चर्य नहीं कि ये नवयुवतियां या नौजवान और उनके परिवार के लोग 'सरकारी नौकरी' का सपना देखते हैं. हफ्ते में सातों दिन काम करते हुए भी वे परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. उत्तर प्रदेश में वर्ष 2015 में 25 लाख लोगों ने चपरासी के 600 पदों के लिए आवेदन किया था. सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण को परम्परागत लगाव बताकर कोई खारिज कर सकता है, मगर हकीकत में यह स्थायित्व की गारंटी देने वाले सुरक्षित रोजगार के अभावों का ही संकेत है. चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी (स्थाई रोजगार की निम्नतम श्रेणी) में मेरे उत्तरदाताओं की मौजूदा पगार से दोगुनी तनख्वाह मिलती है. सुरक्षित नौकरी, प्रोविडेंट फंड और पेंशन का आकर्षण तो है ही.

जहां अनौपचारिक रोजगार भारत की तस्वीर को बिगाड़ने वाले मान लिए जाते हैं, हमें देश में पैदा हो रहे या भविष्य में होने की संभावना वाले औपचारिक रोजगारों की परिस्थितिओं पर भी ध्यान देना चाहिए. यह दोहराना ज़रूरी हो जाता है कि कम भुगतान, शोषण और नौकरी की अनिश्चितता जैसी जिन स्थितियों का जिक्र नवयुवतियां कर रही हैं, वह देश में रोजगार के अपेक्षाकृत उजले हिस्से की तस्वीरें हैं. इन नौकरियों को अनौपचारिक, नियमित, सवेतन बताया जाता है लेकिन इनकी वास्तविकता कुछ और ही कहानी बयान करती है.

आधी-अधूरी नौकरियां और शोषण के बादल देश के अधिकांश रोजगार अवसरों पर छाये हुए हैं. चमक के साथ उभर रहे वैश्विक मिजाज़ के शहरी इलाकों के हाल भी अलग नहीं हैं. ऐसे में यह सवाल वाजिब हो जाता है कि किस किस्म के आर्थिक और सामजिक भविष्य की उम्मीद हम कर रहे हैं? हमें टिकाऊ, सुरक्षित और न्यायोचित पगार वाले रोजगार की ज़रूरत है. अनौपचारिक और मामूली पगार वाले औपचारिक कामों पर 'अर्थपूर्ण रोजगार' का लेबल लगाने के बजाय सरकार को चाहिए कि वह देश की बेहाल बहुसंख्या के लिए दूरगामी सामाजिक व आर्थिक सम्भावनाओं की तलाश करे.

आसिया इस्लाम केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गेट्स केम्ब्रिज स्कॉलर हैं. यहां वह समाजशास्त्र में पीएच.डी. कर रही हैं. अपने शोध में वह नगरीय भारत में बनने वाली वर्गीय व लैंगिक संरचनाओं पर काम कर रही हैं.
अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय



1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दादा साहेब फाल्के और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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