अब जब राहुल गांधी का
पार्टी अध्यक्ष बनना तय हो गया है, पहला सवाल जेहन में आता है कि इससे भारतीय
राजनीति में क्या बड़ा बदलाव आएगा? क्या राहुल के पास वह
दृष्टि, समझ और चमत्कार है, जो 133 साल पुरानी इस पार्टी को मटियामेट होने से बचा
ले? पिछले 13 साल
में राहुल की छवि बजाय बनने के बिगड़ी ज्यादा है. क्या वे अपनी छवि को बदल पाएंगे?
सितम्बर 2012 में
प्रतिष्ठित ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने ‘द राहुल प्रॉब्लम’ शीर्षक आलेख में लिखा, उन्होंने नेता के तौर पर कोई योग्यता
नहीं दिखाई है. वे मीडिया से बात नहीं करते, संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते
हैं. उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कैसे माना जाए? यह बात आज से पाँच साल
पहले लिखी गई थी. इस बीच राहुल की विफलता-सूची और लम्बी हुई है.
सन 2004 में जब मनमोहन
सिंह प्रधानमंत्री बने तब राहुल अपेक्षाकृत युवा थे. उसके बाद से उन्हें नेता
बनाने की कोशिशें चल रहीं हैं. सन 2011 में जब सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से
विदेश गईं थीं, तब राहुल 41 साल के हो
चुके थे. इस उम्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे. तब आधिकारिक रूप से उन्हें
पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. अन्ना-आंदोलन के कारण वह समय राहुल को
प्रोजेक्ट करने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सका.
सन 2009 में लोकसभा चुनाव
के दौरान उत्तर प्रदेश में उनके प्रयासों के परिणाम अच्छे मिले थे. पर 2012 में
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में वे सफल साबित नहीं हुए. चुनाव परिणाम आने के
बाद से वे पृष्ठभूमि में चले गए. ऐसा वे कई बार करते रहे हैं. उनका अपने कुछ
मित्रों को छोड़ मीडिया, लेखकों, पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों या
एक्टिविस्टों से सम्पर्क नहीं रहा. संसद में भी उनकी उपस्थिति ऐसी नहीं रही कि उसे
याद रखा जाता.
जनवरी 2013 के जयपुर चंतन
शिविर में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर आधिकारिक रूप से सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी
घोषित कर दिया गया. वहाँ भी उन्होंने सत्ता को ‘जहर के प्याले’ का रूपक देकर अपनी
अनिच्छा ही व्यक्त की. दूसरी ओर जयपुर प्रसंग के कुछ महीनों के भीतर ही बीजेपी ने
नरेन्द्र मोदी को चुनाव का संचालक और बाद में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित
कर दिया. मोदी और राहुल की रेस वहीं से शुरू हुई.
युवा राहुल के प्रति शुरू में एक प्रकार का रहस्य था. सन
2004 में शायद कम उम्र होने के कारण उन्हें उतारना उचित नहीं समझा गया. पर 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश का उनका ग्राउंडवर्क
दिखाई पड़ा. उन्होंने देशभर का दौरा किया और यहाँ की समस्याओं को समझने की कोशिश
भी की. पर उनकी राजनीतिक पहलकदमी में निरंतरता कभी नजर नहीं आई.
राहुल गांधी ने हाल में
बर्कले में देश की ‘खानदानी राजनीति’ पर लम्बा स्पटीकरण दिया,
जिसकी कोई जरूरत नहीं थी. कांग्रेस का नकारात्मक पहलू यह नहीं है कि वह खानदानी
पार्टी है. पार्टी कार्यकर्ता मानता है कि सिर्फ ‘परिवार’ ही पार्टी को जोड़कर रख सकता है, तो ठीक. सवाल खानदान का
नहीं, बल्कि इस बात का है कि
क्या राहुल इस काम को करने में समर्थ हैं? क्या कार्यकर्ता को भरोसा
है कि पार्टी की नैया को राहुल पार लगाएंगे?
राहुल के अध्यक्ष बनने के
बाद एक बड़ा अंतर यह आएगा कि कार्यकर्ता के मन में पार्टी के ‘डबल नेतृत्व’ को लेकर जो भ्रम था, वह
खत्म हो जाएगा. कांग्रेस अब ‘बाउंसबैक’ करे तो श्रेय राहुल को मिलेगा और डूबी तो जिम्मेदारी भी उनकी
होगी. उनके पदारोहण के बाद सम्भव है कि कुछ पुराने नेता असहज हों, पर नए नेता
ज्यादा खुलकर काम कर पाएंगे. शायद नए नेता उभरेंगे भी. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया
है. अलबत्ता दो-तीन कारणों से कांग्रेस के सामने चुनौती भारी है-
इंदिरा गांधी की तरह
राहुल करिश्माई नेता नहीं हैं और न पार्टी के पास ‘गरीबी हटाओ’ जैसा कोई जादुई नारा है. इस वक्त पार्टी मोदी सरकार की
नकारात्मक बातों का सहारा ले रही है. पर इतने भर से काम चलने वाला नहीं है. उसे
अपनी इमेज अलग बनानी चाहिए. पार्टी संगठन की दशा बहुत खराब है और उसे ठीक करना
बड़ा भारी काम है. इसके पहले 1977, 1989 और 1996 में कांग्रेस पिटी थी. पर उसकी
ताकत लोकसभा में कम होने के बावजूद राज्यों की विधानसभाओं में स्थिति बेहतर थी. आज
कांग्रेस की स्थिति केवल संसद में ही खराब नहीं है. उसके हाथ से ज्यादातर राज्य
निकल चुके हैं. साथ ही राज्यों में उनके कद्दावर नेता या तो हैं नहीं या उन्हें
उभरने नहीं दिया गया.
दूसरी ओर उसके मुख्य
प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारतीय जनता पार्टी इतनी ताकतवर पहले कभी नहीं थी. कांग्रेस
मानती है कि जैसे अनुभवहीन सोनिया ने अटल बिहारी वाजपेयी को हराया वैसे ही
अनुभवहीन राहुल अब नरेन्द्र मोदी को परास्त करेंगे. पर दोनों बातों में फर्क है.
सोनिया गांधी की परीक्षा पहले कभी नहीं हुई थी, जबकि राहुल के माथे पर विफलता का
टीका कई बार लग चुका है. फिर भी हमें इंतजार करना होगा. खासतौर से गुजरात,
कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों का. कुछ राज्यों में
कांग्रेस सफलता पाने में सफल हुई तो वहाँ के स्थानीय नेतृत्व को उभरने का मौका भी
मिलेगा. चूंकि वे गुजरात के चुनाव के ठीक पहले अध्यक्ष बनने जा रहे हैं, इसलिए
उनकी सबसे बड़ी परीक्षा वहीं होगी.
राहुल की एक और परीक्षा 2019
के चुनाव में भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने की है. सोनिया गांधी ने 2004 के चुनाव के
पहले गठबंधन बना लिया था. देखना होगा कि क्या राहुल गांधी ऐसी स्थितियाँ पैदा कर
पाएंगे कि ज्यादातर चुनाव क्षेत्रों में बीजेपी के उम्मीदवारों के सामने विपक्ष का
केवल एक उम्मीदवार खड़ा हो. इस वक्त ज्यादातर क्षेत्रीय क्षत्रप अपेक्षाकृत कमजोर
हैं. मुलायम सिंह अब मुख्यधारा में नहीं हैं, पर अखिलेश अब राहुल के साथ हैं. लालू
यादव कमजोर हैं, पर उनका परिवार राहुल के साथ है. मायावती प्रभावहीन हैं, ममता
बनर्जी भी दबाव में हैं. नवीन पटनायक को भी साथ में लाया जा सकता है.
inext में प्रकाशित
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