हाल में मशहूर पहलवान
सुशील कुमार तीन साल बाद राष्ट्रीय कुश्ती चैम्पियनशिप में उतरे और गोल्ड मेडल जीत
ले गए। उन्हें यह मेडल एक के बाद एक तीन लगातार वॉकओवरों के बाद मिला। शायद उनके
वर्ग के पहलवान उनका इतना सम्मान करते हैं कि उनसे लड़ने कोई आया ही नहीं। सुशील
कुमार का चैम्पियन बनना मजबूरी थी। वैसे ही राहुल गांधी के पास अब कांग्रेस पार्टी
की अध्यक्षता स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। पर महत्वपूर्ण अध्यक्ष
बनना नहीं, इस पद का निर्वाह है।
लगातार बड़ी विफलताओं के
बावजूद राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने का आग्रह कांग्रेस पार्टी के हित में होगा या
नहीं, इसे देखना होगा। राहुल गांधी जिस दौर में अध्यक्ष बनने जा रहे हैं, वह
कांग्रेस का सबसे खराब दौर है। यदि वे यहाँ से कांग्रेस की स्थिति को बेहतर बनाने
में कामयाब नहीं हुए तो यह कदम आत्मघाती भी साबित हो सकता है। दिक्कत यह है कि
कांग्रेस केवल परिवार के सहारे राजनीति में बने रहना चाहती है।
बड़ी संख्या में लोगों को
पार्टी का परिवारोन्मुखी होना सहज लगता है। उन्हें लगता है कि परिवार की धुरी न हो
तो पार्टी बिखर जाएगी। यह धारणा आधुनिक लोकतंत्र से मेल नहीं खाती और ऐतिहासिक
घटनाक्रम भी इसकी गवाही नहीं देता। कांग्रेस पार्टी के भीतर अध्यक्ष पद को लेकर
सामान्यतः आम सहमति रही है। पर तीन चुनाव ऐसे हुए हैं, जिनमें टकराव हुआ और उसने
पार्टी-संरचना को प्रभावित किया।
सन 1939 में सुभाष बोस और
पट्टाभि सीतारमैया के बीच हुए चुनाव के परिणाम को गांधी ने अपनी हार बताया था। उसके
बाद 1950 में पुरुषोत्तम दास टंडन और जेबी कृपालानी के बीच चुनाव के बाद टंडन और
जवाहर लाल नेहरू के बीच कड़वाहट हुई थी। इसके बाद जून 1997 में सीताराम केसरी, शरद
पवार और राजेश पायलट के बीच चुनाव हुआ, जिसमें केसरी की जीत हुई।
केसरी के चुनाव के बाद
संयुक्त मोर्चा सरकार का पतन हुआ। दूसरी ओर पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों ने सोनिया
गांधी से आग्रह करना शुरू किया कि वे राजनीति में सक्रिय हों। सोनिया गांधी पार्टी
की प्राथमिक सदस्य बनीं। फरवरी 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए। कांग्रेस कार्यसमिति
की अपील पर उन्होंने चुनाव प्रचार में भाग लेना भी मंजूर किया। पूर्व राष्ट्रपति
प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब ‘कोलीशन ईयर्स’ ने उस दौर की कांग्रेसी
राजनीति में वरिष्ठ नेताओं के टकराते हतों की ओर इशारा किया है। शायद केसरी के मन
में संयुक्त मोर्चा सरकार को गिराकर प्रधानमंत्री बनने की मनोकामना थी।
दूसरी ओर 1998 में अटल
बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। इसके समांतर कांग्रेस पार्टी के भीतर लगातार कुछ चल
रहा था। सीताराम केसरी को हटाकर उनकी जगह सोनिया गांधी को लाने के प्रयास शुरू हुए
और अंततः अप्रेल 1998 में वे पार्टी अध्यक्ष बन गईं। उधर 1999 में वाजपेयी की
सरकार जयललिता के हाथ खींच लेने के कारण गिर गई। तब पहली बार सोनिया गांधी के
नेतृत्व में सरकार बनाने की मुहिम शुरू हुई। पर कांग्रेस को दूसरे दलों का
पर्याप्त समर्थन नहीं मिल पाया और सरकार बनाने के इरादे पूरे नहीं हुए।
उधर 1999 के चुनाव के बाद
सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनाओं पर बात होने लगी थी। ऐसे में
उनका विदेशी मूल का मसला उनकी पार्टी के भीतर से उठा। कांग्रेस कार्यसमिति के तीन
सदस्यों ने बयान दिया कि विदेशी मूल के व्यक्ति को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा
सकता। प्रणब मुखर्जी के अनुसार शायद शरद पवार के मन में प्रधानमंत्री बनने की
कामना थी।
दूर से लगता है कि पार्टी
के अंदरूनी ज्वालामुखी तभी शांत रहेंगे, जब कोई बड़ी ताकत उनको काबू में रखे। यानी
परिवार। वास्तव में यह भी शॉर्टकट है। वरिष्ठ नेताओं का एक तबका परिवार के साथ जुड़कर
अपने हित साध रहा था। इसमें केवल जुड़े रहने तक की बात नहीं है। यहाँ ‘व्यक्तिगत वफादारी’ ज्यादा महत्वपूर्ण है।
यह सामंती समझ है।
परिवार का फॉर्मूला लम्बे
समय तक काम नहीं आने वाला। पार्टी कांग्रेस हो या बीजेपी उनके भीतर कई तरह के
टकराव हैं। सत्ता-प्राप्ति के बाद वे टकराव बढ़ते हैं। महत्वपूर्ण है उन टकरावों
या अंतर्विरोधों का शमन। आधुनिक राजनीति को इन अंतर्विरोधों का संगठन के भीतर हल
खोजना होगा। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद हालांकि कांग्रेस ने खुला आत्मचिंतन नहीं
किया, पर पार्टी के भीतर कई स्तरों पर इस बात को लेकर चर्चा हुई थी कि अब क्या
होगा। उस चर्चा में यह बात भी शामिल थी कि क्या पार्टी का नेतृत्व अनिवार्य रूप से
नेहरू-गांधी खानदान के हाथ में होना चाहिए।
भीतर-भीतर तमाम बातें कही
जाती हैं, पर खुलेआम सब मानते हैं कि पार्टी को बचाए और बनाए रखने के लिए ‘परिवार’ की धुरी जरूरी है। क्यों
जरूरी है, इसे किसी ने स्पष्ट नहीं किया है। बस मान लिया। सच यह है कि 1998 में
सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद 1999 के चुनाव में कांग्रेस की स्थिति सुधरी
नहीं और खराब हुई थी। सन 2004 में दशा सुधरने की वजह सन 1999 से 2003 के बीच का
अंतर्मंथन था।
कांग्रेस जब संकट में
होती है, तो वह सोचना शुरू करती
है। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने
के लिए था। 4-4 सितम्बर 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते
वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। अलबत्ता 7-9 जुलाई 2003 के शिमला शिविर का
फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि उस शिविर से
कांग्रेस ने किसी सुविचारित रणनीति को तैयार किया। कांग्रेस ने पचमढ़ी में तय किया
था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए। शिमला में
कांग्रेस को गठबंधन का महत्व समझ में आया। पर 2014 की हार के बाद पार्टी के रुख
में बुनियादी बदलाव नहीं आया है। उसे नई वास्तविकताओं की ओर ध्यान देना चाहिए।
अक्तूबर 2014 में बरखा
दत्त के साथ एक बातचीत में पी चिदंबरम ने विनम्रता से कहा कि सम्भव है भविष्य में
नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन जाए। पर इस वक्त पार्टी
का मनोबल बहुत गिरा हुआ है और सोनिया गांधी और राहुल को ही पार्टी का भविष्य तय
करना चाहिए। उन्होंने पार्टी में आंतरिक परिवर्तन करने का अनुरोध भी किया। पर यह
अनुरोध भी सोनिया और राहुल से था।
राहुल गांधी अब पार्टी
अध्यक्ष बनने जा रहे हैं। पर वे चुनाव की प्रक्रिया पूरी करके ही अध्यक्ष बनना
चाहते हैं। सवाल है, क्यों? हाल में बर्कले में उन्होंने भारत में खानदान की भूमिका पर
स्पष्टीकरण दिया था। उनका कहना था कि भारत में ऐसा ही चलता है। भारत में ही नहीं,
सारी दुनिया में ऐसा ही चलता है। व्यापारी पिता का बेटा व्यापारी होता है, फौजी
अफसर का बेटा फौजी। पर राष्ट्राध्यक्ष की भूमिका में सत्ता का हस्तांतरण राजतंत्र
में होता है या उत्तर कोरिया जैसी तानाशाही में।
कांग्रेस ही नहीं, कोई भी
पार्टी अपने भीतर के मामलों का निपटारा आमराय से करना चाहेगी। पर मत-विभाजन लोकतांत्रिक
प्रक्रिया है। पार्टी को जनता से जुड़ने के तरीकों पर विचार करना चाहिए। राहुल
गांधी के पदारोहण के फौरन बाद गुजरात के चुनाव होने जा रहे हैं। इसके परिणामों से झलक मिलेगी कि
देश किस तरफ जा रहा है। इंदिरा गांधी नए विचार और नई ऊर्जा के साथ सामने आईं थीं। उस
ऊर्जा को कांग्रेस से नरेंद्र मोदी ने छीन लिया है। मोदी का करिश्मा कब तक चलेगा,
पता नहीं। सवाल है कि क्या राहुल के पास करिश्मा है? सिर्फ परिवार जादू की
छड़ी नहीं है। जवाब देने का वक्त आ गया है।
हरिभूमि में प्रकाशित
सारगर्भित सटीक जानकारी से भरा विचारणीय आलेख...
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