Monday, November 13, 2017

‘स्मॉग’ ने रेखांकित किया एनजीटी का महत्व

उत्तर भारत और खासतौर से दिल्ली पर छाए स्मॉग के कारण कई तरह के असमंजस सामने आए हैं. स्मॉग ने प्रशासनिक संस्थाओं की विफलता को साबित किया है, वहीं राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के महत्व को रेखांकित भी किया है.
अफरातफरी में दिल्ली-एनसीआर के स्कूलों में छुट्टी कर दी गई. फिर दिल्ली सरकार ने ऑड-ईवन स्कीम को फिर से लागू करने की घोषणा कर दी. यह स्कीम भी रद्द हो गई, क्योंकि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने कुछ ऐसी शर्तें रख दीं, जिनका पालन करा पाना मुश्किल होता.  
जल, जंगल और जमीन
सन 2010 में स्थापना के बाद से यह न्यायाधिकरण देश के महत्वपूर्ण पर्यावरण-रक्षक के रूप से उभर कर सामने आया है. इसके हस्तक्षेप के कारण उद्योगों और कॉरपोरेट हाउसों को मिलने वाली त्वरित अनुमतियों पर लगाम लगी है. खनन और प्राकृतिक साधनों के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगी है.

इसने कई मौकों पर केंद्र सरकार की खिंचाई की है. इसकी शक्तियों को लेकर भी बहस है. खासतौर से आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के अंतर्विरोध भी इस बीच उभर कर आए हैं. पर्यावरण का सीधा रिश्ता ग्रामीण और जनजातीय जीवन से भी है. जल, जंगल और जमीन तीनों इससे जुड़े हैं.
पर्यावरण-संरक्षक
एनजीटी की जरूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि पर्यावरण का दायरा काफी विस्तृत है और एक अलग किस्म की विशेषज्ञता की उसके लिए दरकार है. सन 1984 में भोपाल गैस त्रासदी के बाद इस बात को खासतौर से महसूस किया गया.
दिसम्बर 1985 में दिल्ली के श्रीराम फूड्स एंड फर्टिलाइजर प्लांट में गैस लीक हुई. राउरकेला स्टील प्लांट में विस्फोट हुआ. औद्योगिक दुर्घटनाओं के अलावा शहरीकरण और औद्योगिक विस्तार के कारण पर्यावरण के सवाल अक्सर उठने लगे. सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसे न्यायाधिकरण की जरूरत को रेखांकित किया, जो पर्यावरण के मसलों की जटिलता को देखते हुए न्यायिक हस्तक्षेप करे.
विधि आयोग की 186वीं रिपोर्ट में भी इसके गठन की सिफारिश की गई थी. जून 1992 में रिओ डी जेनेरो में आयोजित यूएनसीईपी सम्मेलन के घोषणापत्र की भावना ने भी इसके गठने के लिए प्रेरित किया.
वैश्विक पहल
सन 2010 में संसद ने इसकी स्थापना के लिए अधिनियम पास किया. यह एक नई अवधारणा थी, क्योंकि इसके पहले दुनिया में न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया ने ही पर्यावरण से जुड़े मसलों के लिए विशेष अदालतें बनाईं थीं.
अब कार्बन क्रेडिट्स का प्रचलन बढ़ रहा है. इसलिए आने वाले समय में ऐसी न्यायिक व्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण साबित होगी.
इस न्यायाधिकरण में न केवल देश के वरिष्ठतम न्यायाधीश सदस्य हैं, बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी हैं. न्यायाधिकरण का दायरा पर्यावरण के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य को होने वाला नुकसान भी है.
यह न्यायाधिकरण दीवानी प्रक्रिया की जगह स्वयं निर्धारित प्राकृतिक न्याय के नियमों पर काम करता है. वन (संरक्षण), जैविक विविधता, पर्यावरण (संरक्षण), जल एवं वायु जैसे मामले इसके दायरे में हैं. इसके बहुमत सदस्यों का फैसला बाध्यकारी और अंतिम होता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
व्यापक अधिकार
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश लोकेश्वर सिंह पंटा इसके पहले अध्यक्ष थे और 20 दिसम्बर 2012 से जस्टिस स्वतंत्र कुमार इसके अध्यक्ष हैं. एनजीटी का स्वतंत्र स्वरूप इसकी खासियत है. इसे नियमों-कानूनों का उल्लंघन करने वालों को सज़ा, उन पर जुर्माना लगाने और प्रभावित लोगों को मुआवजे का आदेश देने का अधिकार है. सज़ा का यह अधिकार काफी व्यापक है. सश्रम कारावास जैसी सख्त सज़ा भी सुना सकता है.
हाल में एनजीटी के कई फैसले सुर्खियों में रहे हैं. इनमें दिल्ली में 10 साल से ज्यादा पुराने डीजल वाहनों के प्रवेश पर रोक से जुड़ा फैसला भी है. मार्च 2015 में न्यायाधिकरण ने आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन पर 5 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था.
इसके पहले दिल्ली और उत्तर प्रदेश में यमुना नदी के 52 किलोमीटर लम्बे यात्रा पथ को उसने संरक्षित ज़ोन घोषित किया था. एनजीटी कई बार सरकारों से काफी कड़े सवाल करता है.
ओवररीच तो नहीं?
एनजीटी की पहलकदमी सरकारों के लिए परेशानी का सबब बनती रही है. ऑड-ईवन की शर्तों को लेकर दिल्ली सरकार ने इसे दबे-छिपे व्यक्त भी किया है.
कुछ विश्लेषकों ने सवाल उठाया भी है कि एनजीटी ने ऐसे मौके पर कड़ी शर्तें लगाना जरूरी क्यों समझा, जब इमर्जेंसी थी? यह अदालती ओवररीच तो नहीं. दिल्ली सरकार को अपने फैसले को लागू करने का मौका क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? 
केन्द्र सरकार को भी एनजीटी से शिकायत रही है. इसके अधिकारों को सीमित करने की कोशिशें हो भी रहीं हैं. पर्यावरण कानूनों में बदलाव के लिए सन 2014 में गठित टीएसआर सुब्रह्मण्यम ने ट्रायब्यूनल की शक्तियों में कमी लाने का सुझाव भी दिया था.
इस साल वित्त विधेयक के रास्ते सरकार ने इस कानून में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं. इन बदलावों में न्यायाधिकरण के अध्यक्ष की नियुक्ति से जुड़े नियम भी शामिल हैं.
जून में न्यायाधिकरणों की नियुक्तियों से सम्बद्ध अधिसूचना जारी हुई थी. इन बदलावों की दिशा भविष्य में देखने को मिलेगी और शायद वह ज्यादा बड़े राजनीतिक विवाद का विषय बनेगी.

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