नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के कम से कम तीन बड़े नेताओं को खुले तौर पर अंगीकार किया है। ये तीन हैं गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री। मोदी-विरोधी मानते हैं कि इन नेताओं की लोकप्रियता का लाभ उठाने की यह कोशिश है। बीजेपी के नेता कहते हैं कि गांधी ने राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भंग कर देने की सलाह दी थी। बीजेपी की महत्वाकांक्षा है कांग्रेस की जगह लेना। इसीलिए मोदी बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं। आर्थिक नीतियों के स्तर पर दोनों पार्टियों में ज्यादा फर्क भी नहीं है। पिछले साल अरुण शौरी ने कहीं कहा था, बीजेपी माने कांग्रेस+गाय।
महात्मा गांधी के पौत्र गोपालकृष्ण गांधी देश की ‘सामाजिक बहुलता’ के पुजारी और नरेंद्र मोदी के ‘राजनीतिक हिन्दुत्व’ के मुखर विरोधी हैं। पिछले हफ्ते उन्होंने अपने एक लेख में लिखा, जाने-अनजाने कांग्रेस की पटेल से किनाराकशी गलती थी, और हिन्दुत्व का सोच-समझकर पटेल को अंगीकार करना अभिशाप है। कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से कभी नहीं कहा कि वह पटेल से किनाराकशी कर रही है। तब यह सवाल क्यों उठा? गोपालकृष्ण गांधी ने लिखा है कि सरदार पटेल पूरे देश के और हर समुदाय के नेता थे। दूसरी ओर वामपंथियों का बड़ा तबका उन्हें साम्प्रदायिक मानता है।
कांग्रेस पार्टी में शुरू से ही कई तरह की ताकतें सक्रिय थीं। उसमें वामपंथी थे, तो दक्षिणपंथी भी थे। पटेल का निधन 1950 में हो गया। वे ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति में रहते तो शायद बातें साफ होतीं, पर उनके जीवन के अंतिम वर्षों की घटनाओं पर निगाह डालें तो साफ नजर आता है कि कांग्रेस के भीतर तीखे वैचारिक मतभेद थे। प्रकारांतर से ये मतभेद बाद के वर्षों में दूसरे रूप में सामने आए। सन 1969 के बाद कांग्रेस ‘पारिवारिक’ पार्टी के रूप में तबदील हो गई।
भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई। उसके एक साल पहले पटेल का निधन हो चुका था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों की धारणा है कि पटेल की बात को मान लिया गया होता, तो जनसंघ बनती ही नहीं। सरदार पटेल ने संघ को कांग्रेस का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने कहा था, संघ के लोग चोर नहीं हैं, वे भी देशभक्त हैं। वे अपने देश को प्यार करते हैं। आप डंडे से संघ को खत्म नहीं कर पाएंगे। पटेल की पहल पर 10 नवम्बर 1949 को कांग्रेस कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पास किया, जिससे संघ के कांग्रेस में प्रवेश का रास्ता साफ होता था। यह प्रस्ताव जिस समय पास हुआ जवाहर लाल नेहरू विदेश में थे। नेहरू के वापस आने के बाद अगले ही हफ्ते 17 नवम्बर को वह प्रस्ताव खारिज हो गया।
कांग्रेस पार्टी में शुरू से ही कई तरह की ताकतें सक्रिय थीं। उसमें वामपंथी थे, तो दक्षिणपंथी भी थे। पटेल का निधन 1950 में हो गया। वे ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति में रहते तो शायद बातें साफ होतीं, पर उनके जीवन के अंतिम वर्षों की घटनाओं पर निगाह डालें तो साफ नजर आता है कि कांग्रेस के भीतर तीखे वैचारिक मतभेद थे। प्रकारांतर से ये मतभेद बाद के वर्षों में दूसरे रूप में सामने आए। सन 1969 के बाद कांग्रेस ‘पारिवारिक’ पार्टी के रूप में तबदील हो गई।
भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई। उसके एक साल पहले पटेल का निधन हो चुका था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों की धारणा है कि पटेल की बात को मान लिया गया होता, तो जनसंघ बनती ही नहीं। सरदार पटेल ने संघ को कांग्रेस का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने कहा था, संघ के लोग चोर नहीं हैं, वे भी देशभक्त हैं। वे अपने देश को प्यार करते हैं। आप डंडे से संघ को खत्म नहीं कर पाएंगे। पटेल की पहल पर 10 नवम्बर 1949 को कांग्रेस कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पास किया, जिससे संघ के कांग्रेस में प्रवेश का रास्ता साफ होता था। यह प्रस्ताव जिस समय पास हुआ जवाहर लाल नेहरू विदेश में थे। नेहरू के वापस आने के बाद अगले ही हफ्ते 17 नवम्बर को वह प्रस्ताव खारिज हो गया।
पटेल का अंगीकार केवल मोदी के दिमाग की उपज नहीं है और ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ आज की अवधारणा नहीं है। पिछले साल बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि पार्टी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ से आशय क्या है। इसके अनुसार पार्टी का लक्ष्य कांग्रेस को केवल चुनाव में हराना ही नहीं है, बल्कि इसका मतलब है ‘कांग्रेस ब्रांड’ की राजनीति से मुक्ति। ‘ब्रांड’ से एक आशय ‘परिवार’ से भी है।
बीजेपी को कांग्रेस की जगह लेनी है तो उसे सांस्कृतिक बहुलता, सहभागिता, समावेशन और व्यापक जनाधार को भी अपनाना होगा। सरदार पटेल सांस्कृतिक बहुलता और समावेशन के पक्षधर भी थे। पर उनकी पहचान आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद को मूर्त रूप देने वाले राजनेता के रूप में है। नरेन्द्र मोदी ने पटेल जयंती के अवसर पर कहा कि उन्होंने देश की आजादी और उसकी एकता को सुनिश्चित करने के लिए अपना जीवन खपा दिया। मोदी ने इसके साथ ही कांग्रेस पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा, इस महापुरुष के नाम को मिटा देने का प्रयास किया गया या फिर उन्हें छोटा दिखाने का प्रयास भी हुआ, लेकिन पटेल तो पटेल थे। कोई शासन उन्हें स्वीकृति दे या न दे, कोई राजनीतिक दल उनके महत्व को स्वीकार करे या न करे, यह देश और इस देश की युवा पीढ़ी एक पल भी पटेल को भूलने को तैयार नहीं है।
व्यावहारिक राजनीति में आज कांग्रेस पार्टी खुद को सवा सौ साल पुरानी पार्टी कहती जरूर है, पर उसका सारा जोर नेहरू की विरासत पर होता है। नेहरू और उनके समकालीन नेताओं के वैचारिक मतभेद को सकारात्मक रूप से पेश करने की कोशिश पार्टी ने भी नहीं की। नेहरू और पटेल के बीच वैचारिक मतभेद थे। दोनों नेताओं की आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक सवालों पर एक राय नहीं थी। फिर भी दोनों ने इन मतभेदों को कभी बढ़ाया नहीं।
पटेल और नेहरू के बीच के पत्राचार को पढ़ने से यह भी पता लगता है कि मतभेद इस हद तक आ गए थे कि दोनों में से एक सक्रिय राजनीति से हटने की बात सोचने लगा था। पर दोनों को राष्ट्रीय परिस्थितियों का भी एहसास था। विभाजन के फौरन बाद वह काफी नाजुक समय था। जब तक गांधी जीवित थे, ये अंतर्विरोध सुलझते रहे। नेहरू-पटेल और गांधी के बीच एक बैठक प्रस्तावित थी, जो कभी हो नहीं पाई और गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद पटेल ज्यादा समय जीवित रहे नहीं और इतिहास की धारा दूसरी दिशा में चली गई। इतना साफ है कि दोनों ने अपने मतभेदों को इतना नहीं बढ़ाया कि रिश्ते टूट जाएं। दोनों ने एक-दूसरे को सम्मान दिया।
सरदार पटेल को ज्यादा समय तक काम करने का मौका नहीं मिला। देशी रियासतों को भारतीय संघ का हिस्सा बनाने में उनकी सबसे बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा संविधान की रचना में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था। मौलिक अधिकारों, प्रधानमंत्री की भूमिका, राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया और कश्मीर को लेकर नेहरू के साथ उनके मतभेद संविधान सभा में भी प्रकट हुए। बीआर आम्बेडकर के समर्थकों में पटेल भी एक थे और एक मौके पर उन्हें कानून मंत्री पद से हटाए जाने के प्रयासों का उन्होंने विरोध भी किया था।
कांग्रेस ने पटेल से किनाराकशी की या नहीं की, इसे लेकर अलग राय हैं। इस बात को छिपाया नहीं जा सकता कि उन्हें भारत रत्न का सम्मान देने में देरी हुई। सन 1954 में जब पहली बार भारत रत्न का सम्मान दिया जा रहा था, तब उनकी याद क्यों नहीं आई? और 1991 में याद क्यों आई?
बीजेपी को कांग्रेस की जगह लेनी है तो उसे सांस्कृतिक बहुलता, सहभागिता, समावेशन और व्यापक जनाधार को भी अपनाना होगा। सरदार पटेल सांस्कृतिक बहुलता और समावेशन के पक्षधर भी थे। पर उनकी पहचान आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद को मूर्त रूप देने वाले राजनेता के रूप में है। नरेन्द्र मोदी ने पटेल जयंती के अवसर पर कहा कि उन्होंने देश की आजादी और उसकी एकता को सुनिश्चित करने के लिए अपना जीवन खपा दिया। मोदी ने इसके साथ ही कांग्रेस पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा, इस महापुरुष के नाम को मिटा देने का प्रयास किया गया या फिर उन्हें छोटा दिखाने का प्रयास भी हुआ, लेकिन पटेल तो पटेल थे। कोई शासन उन्हें स्वीकृति दे या न दे, कोई राजनीतिक दल उनके महत्व को स्वीकार करे या न करे, यह देश और इस देश की युवा पीढ़ी एक पल भी पटेल को भूलने को तैयार नहीं है।
व्यावहारिक राजनीति में आज कांग्रेस पार्टी खुद को सवा सौ साल पुरानी पार्टी कहती जरूर है, पर उसका सारा जोर नेहरू की विरासत पर होता है। नेहरू और उनके समकालीन नेताओं के वैचारिक मतभेद को सकारात्मक रूप से पेश करने की कोशिश पार्टी ने भी नहीं की। नेहरू और पटेल के बीच वैचारिक मतभेद थे। दोनों नेताओं की आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक सवालों पर एक राय नहीं थी। फिर भी दोनों ने इन मतभेदों को कभी बढ़ाया नहीं।
पटेल और नेहरू के बीच के पत्राचार को पढ़ने से यह भी पता लगता है कि मतभेद इस हद तक आ गए थे कि दोनों में से एक सक्रिय राजनीति से हटने की बात सोचने लगा था। पर दोनों को राष्ट्रीय परिस्थितियों का भी एहसास था। विभाजन के फौरन बाद वह काफी नाजुक समय था। जब तक गांधी जीवित थे, ये अंतर्विरोध सुलझते रहे। नेहरू-पटेल और गांधी के बीच एक बैठक प्रस्तावित थी, जो कभी हो नहीं पाई और गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद पटेल ज्यादा समय जीवित रहे नहीं और इतिहास की धारा दूसरी दिशा में चली गई। इतना साफ है कि दोनों ने अपने मतभेदों को इतना नहीं बढ़ाया कि रिश्ते टूट जाएं। दोनों ने एक-दूसरे को सम्मान दिया।
सरदार पटेल को ज्यादा समय तक काम करने का मौका नहीं मिला। देशी रियासतों को भारतीय संघ का हिस्सा बनाने में उनकी सबसे बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा संविधान की रचना में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था। मौलिक अधिकारों, प्रधानमंत्री की भूमिका, राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया और कश्मीर को लेकर नेहरू के साथ उनके मतभेद संविधान सभा में भी प्रकट हुए। बीआर आम्बेडकर के समर्थकों में पटेल भी एक थे और एक मौके पर उन्हें कानून मंत्री पद से हटाए जाने के प्रयासों का उन्होंने विरोध भी किया था।
कांग्रेस ने पटेल से किनाराकशी की या नहीं की, इसे लेकर अलग राय हैं। इस बात को छिपाया नहीं जा सकता कि उन्हें भारत रत्न का सम्मान देने में देरी हुई। सन 1954 में जब पहली बार भारत रत्न का सम्मान दिया जा रहा था, तब उनकी याद क्यों नहीं आई? और 1991 में याद क्यों आई?
विचारणीय चर्चा
ReplyDeleteराजनीति में समय देख धमाका करने की आदत पुरानी है
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