विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषण के कारण दिल्ली में
सालाना 10,000 से 30,000 मौतें होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 सबसे
प्रदूषित शहरों की सूची में 13 भारत के शहर हैं। इनमें राजधानी दिल्ली सबसे ऊपर
है। उस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली की हवा में पार्टिकुलेट मैटर पीएम 2.5 की मात्रा
प्रति घन मीटर 150 माइक्रोग्राम है। पर पिछले बुधवार को एनवायरनमेंट पल्यूशन बोर्ड
के मुताबिक दिल्ली की हवा में प्रति घन मीटर 200 माइक्रोग्राम पीएम 2.5 प्रदूषक
तत्व दर्ज किए गए। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की सेफ लिमिट से 8 गुना ज्यादा है। 25
माइक्रोग्राम को सेफ लिमिट मानते हैं।
सन 2014
में विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वे ने दुनियाभर के 1,600 देशों में से दिल्ली
को सबसे ज्यादा दूषित करार दिया था। बार-बार लगातार इन बातों की प्रतिध्वनि सुनाई
पड़ रही है। सवाल है कि हमने इस सिलसिले में किया क्या है? पिछले कुछ दिन से एक तरफ दिल्ली में प्रदूषण
का अंधियारा फैला तो दूसरी तरफ सरकारों और सरकारी संगठनों की बयानबाज़ी होने लगी।
समस्या प्रदूषण है या उसकी राजनीति? यह सिर्फ इस
साल की समस्या नहीं है और आने वाले दिनों में यह बढ़ती ही जाएगी। क्या हम एक-दूसरे
पर दोषारोपण करके इसका समाधान कर लेंगे?
यह केवल दिल्ली की समस्या नहीं है। हाँ दिल्ली इसके
केन्द्र में है। इतनी बड़ी आबादी, इतने बड़े ट्रैफिक और एक बड़े खेतिहर इलाके के
करीब होने के नाते दिल्ली की यह विशिष्ट समस्या बन गई है। दिल्ली की दूसरी समस्या
है दिल्ली और केन्द्र सरकार की तीन साल से चली आ रही तनातनी। इस तनातनी में पंजाब,
हरियाणा, यूपी और राजस्थान की सरकारें भी शामिल हो गईं हैं। ‘स्मॉग’ बढ़ते ही दिल्ली सरकार ‘पैनिक मोड’ में आ गई। स्कूलों में छुट्टी कर दी गई और
आनन-फानन ‘ऑड-ईवन’ स्कीम को फिर से लागू करने की घोषणा हो गई,
बगैर यह देखे कि समस्या क्या है और उसका समाधान कहाँ है।
दिल्ली सरकार की अफरा-तफरी को लेकर नेशनल ग्रीन
ट्रायब्यूनल ने जो फटकार लगाई है, उसपर ध्यान देने की जरूरत है। इन दिनों जो
समस्या खड़ी हुई है, उसके पीछे उत्तर भारत के खेतों में लगी आग का हाथ बताया जा
रहा है। यह आग पहली बार नहीं लगी। सैकड़ों साल से किसान पुआल जलाते रहे हैं। चूंकि
माहौल में पहले से काफी धुआँ है, इसलिए खेतों का धुआँ उसे बढ़ा रहा है। पूरब से
नमी वाली हवा और पश्चिम से खेतों के धुएं का मिलन होने से यह परिस्थिति पैदा हुई
है।
समाधान पड़ोसी खेतों और दिल्ली शहर दोनों में खोजना
चाहिए। इसके लिए संस्थाएं बनी हैं। राजनीति का काम है, इन संस्थाओं को पुष्ट करना
और उनके सुझाए रास्ते पर चलना। पर, हाल में दिल्ली और पड़ोसी राज्यों के
मुख्यमंत्रियों के बीच ट्विटर पर जो संवाद चला है, उससे स्थिति हास्यास्पद हो गई।
समस्या सिर पर आ गई तब संवाद शुरू हुआ। उसके लिए मंच मिला भी तो सोशल मीडिया।
एनजीटी
ने दिल्ली सरकार से सवाल किया कि आपने किस आधार पर ‘ऑड-ईवन’ का फैसला कर लिया? पिछले साल सेंट्रल पल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (सीपीसीबी) ने एनजीटी को
बताया था कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं कि दिल्ली में ‘ऑड-ईवन’ से वाहन प्रदूषण पर कोई असर पड़ा हो। सुप्रीम कोर्ट ने कभी नहीं कहा कि
सरकार ऑड-ईवन लागू करे। जबकि सुप्रीम कोर्ट में अनेक सुझाव दिए गए थे, उनपर कुछ
नहीं हुआ। अब जब हालात सुधरने लगे हैं तब इसे लागू करने की बात कर रहे हैं। इससे
तो लोगों की परेशानी बढ़ेगी।
राष्ट्रीय
राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण से जुड़ी आपातकालीन व्यवस्थाओं का अनुश्रवण करने वाली
एजेंसी एनवायरनमेंट पल्यूशन (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल) अथॉरिटी (ईपीसीए) ने भी ऐसी
कोई सलाह नहीं दी थी। इस एजेंसी के कार्यदल में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
और एनसीआर से जुड़े राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के प्रतिनिधि शामिल हैं।
यह कार्यदल मानता है कि प्रदूषण ‘सीवियर+’ के स्तर को पार कर गया है, जिसके बाद ऑड-ईवन
को लागू किया जा सकता है, पर कार्यदल ने ऐसी सिफारिश इसलिए नहीं की, क्योंकि मौसम
दफ्तर ने कहा है कि वातावरण में नमी कम होने जा रही है।
मसला
ऑड-ईवन का नहीं है, बल्कि यह देखने का है कि हमने ऐसी समस्या से निपटने के लिए
क्या उपाय किए हैं। जब सलाह देने वाली एक एजेंसी है तो सरकार एकतरफा फैसले क्यों
कर रही है? एनजीटी ने हरियाणा सरकार से पूछा है कि
आप पुआल जलाने से क्यों नहीं रोक पाए? पंजाब सरकार
को भी इस विषय में जवाब देना होगा। पुआल को खेती का अतिरिक्त संसाधन मानें तो वह
उपयोगी है। उसे जलाकर किसान अपना नुकसान ही करते हैं। उससे खाद और बिजली बनाई जा
सकती है। खाद बनाने के लिए उपकरण यदि किसान खुद खरीद नहीं सकते तो सामुदायिक स्तर
पर उन्हें खरीदना चाहिए। ऐसे दूरगामी उपाय करने ही होंगे। यह काम सरकारें ही
करेंगी।
दिल्ली सरकार को भी बजाय अस्थायी उपायों के स्थायी
उपायों के बारे में सोचना चाहिए। हवाओं का रुख बदलने के बाद दिल्ली पर छाया कुहासा
छँट भी जाए, पर पार्टिकुलेट
मैटर का स्तर फिर भी सेफ लेवल पर नहीं आ जाएगा। इसलिए दिल्ली को बड़े स्तर पर
प्रदूषण फैलाने वाले कारकों पर नजर रखनी ही होगी। मसलन ताप बिजलीघर, डीजल वाहन,
बड़े निर्माण और पुआल या दूसरे बायोमास का दहन वगैरह।
दिल्ली
सरकार ने पंजाब और हरियाणा से सवाल किया है, पर क्या उसने अपने देहाती इलाकों में
पुआल दहन को रोकने की कोशिश की है? सेंटर फॉर
साइंस एंड एनवायरनमेंट की डायरेक्टर जनरल सुनीता नारायण का कहना है कि सरकारों को
उत्सर्जन रोकने के लिए बड़े कदम उठाने होंगे। ईपीसीए ने इसके ही सुझाव दिए हैं। सीएसई की
अनुमिता रॉयचौधुरी का कहना है कि स्कूल बंद करने से नुकसान ही होगा, क्योंकि
छुट्टी होने पर बच्चे बाहर खेलने के लिए निकलेंगे।
सीएसई
ने इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाया है कि सन 2013 के बाद से दिल्ली में बसों के
इस्तेमाल में हर साल 9 फीसदी की कमी आती जा रही है। पिछले तीन साल से दिल्ली में
एक भी नई बस नहीं खरीदी गई है। दिल्ली मेट्रो सारे यात्रियों को नहीं ले जा सकती। सवाल
है सरकार कर क्या रही है?
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन डॉ. सालिम अली - राष्ट्रीय पक्षी दिवस - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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