Sunday, November 26, 2017

अंततः राहुल का आगमन

अब जब राहुल गांधी का पार्टी अध्यक्ष बनना तय हो गया है, पहला सवाल मन में आता है कि इससे भारतीय राजनीति में क्या बदलाव आएगा? क्या उनके पास वह दृष्टि, समझ और चमत्कार है, जो 133 साल पुरानी पार्टी को मटियामेट होने से बचा ले? क्या अब वे कांग्रेस को इस रूप में तैयार कर पाएंगे जो बीजेपी को परास्त करे और फिर देश को तेजी से आगे लेकर जाए? पिछले 13 साल में राहुल की छवि बजाय बनने के बिगड़ी ज्यादा है। उन्होंने अपने नाम के साथ जाने-अनजाने विफलताओं की लम्बी सूची जुड़ने दी। अब वे अपनी छवि को कैसे बदलेंगे?
राहुल गांधी उन राजनेताओं में से एक हैं, जिन्हें मौके ही मौके मिले। माना कि 2004 में वे अपेक्षाकृत युवा थे, पर उनकी उम्र इतनी कम भी नहीं थी। सचिन पायलट, जितिन प्रसाद और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे उनके सहयोगी काफी कम उम्र में सक्रिय हो गए थे। सन 2004 से 2009 तक उन्होंने काफी अनुभव भी हासिल किया। और लोकसभा चुनाव में चुनाव प्रचार भी किया। फिर उन्होंने देर क्यों की?
यह भी सच है कि पिछले कुछ महीनों से मीडिया में इस बात की चर्चा है कि उनकी छवि में सुधार हुआ है। उनका मजाक कम बन रहा है। दूसरी ओर यह भी कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता में भी कमी आई है। इसके पीछे नोटबंदी, जीएसटी और अर्थ-व्यवस्था में गिरावट को जम्मेदार बताया जा रहा है। पर ये बातें भी मीडिया ही बता रहा है। पर भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा बैरोमीटर चुनाव होता है। लाख टके का सवाल है कि क्या राहुल गांधी चुनाव जिताऊ नेता साबित होंगे? 

सितम्बर 2012 में प्रतिष्ठित ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने द राहुल प्रॉब्लमशीर्षक आलेख में लिखा, उन्होंने नेता के तौर पर कोई योग्यता नहीं दिखाई है। वे मीडिया से बात नहीं करते, संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं। उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कैसे माना जाए? यह बात आज से पाँच साल पहले लिखी गई थी। इस बीच राहुल की विफलता-सूची और लम्बी हुई है।
सन 2011 में जब सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से विदेश गईं थीं, तब राहुल 41 साल के हो चुके थे। इस उम्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे। तब आधिकारिक रूप से उन्हें पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। पर अन्ना-आंदोलन के उस दौर में राहुल को प्रोजेक्ट करने की हम्मत पार्टी ने भी नहीं की।
सन 2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में उनके प्रयासों के परिणाम अच्छे मिले थे। पर 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में वे सफल साबित नहीं हुए। चुनाव परिणाम आने के बाद से वे पृष्ठभूमि में चले गए। ऐसा वे कई बार करते रहे हैं। उनका अपने कुछ मित्रों को छोड़ मीडिया, लेखकों, पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों या एक्टिविस्टों से सम्पर्क नहीं रहा। संसद में भी उनकी उपस्थिति ऐसी नहीं रही कि उसे याद रखा जाता। 
जनवरी 2013 के जयपुर चंतन शिविर में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर आधिकारिक रूप से सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। वहाँ भी उन्होंने सत्ता को जहर के प्याले का रूपक देकर अपनी अनिच्छा ही व्यक्त की। दूसरी ओर जयपुर प्रसंग के कुछ महीनों के भीतर ही बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी को चुनाव का संचालक और बाद में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया। मोदी और राहुल की रेस वहीं से शुरू हुई। 
राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद एक बड़ा अंतर यह आएगा कि कार्यकर्ता के मन में पार्टी के डबल नेतृत्व को लेकर जो भ्रम था, वह खत्म हो जाएगा। कांग्रेस अब बाउंसबैककरे तो श्रेय राहुल को मिलेगा और डूबी तो जिम्मेदारी भी उनकी होगी। उनके पदारोहण के बाद सम्भव है कि कुछ पुराने नेता असहज हों, पर नए नेता ज्यादा खुलकर काम कर पाएंगे। शायद नए नेता उभरेंगे भी। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरी तरफ इस बात को भुलाया नहीं जा सकता कि पिछले तीन साल से पार्टी के कई नेता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राहुल गांधी के तौर-तरीकों को लेकर असंतोष व्यक्त कर चुके हैं। लगातार चुनावी हारों की वजह से वरिष्ठ नेता बड़ी सर्जरी की हिमायत करते रहे हैं। राहुल के करीबी नेताओं में सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, केसी वेणुगोपाल, दिव्य स्पंदना, आरपीएन सिंह, जितेन्द्र सिंह, रणदीप सुरजेवाला, जितिन प्रसाद, गौरव गोगोई और सुष्मिता देव जैसे कुछ नाम लिए जाते हैं। ये ज्यादातर नए नेता हैं।
इंदिरा गांधी की तरह राहुल करिश्माई नेता नहीं हैं और न पार्टी के पास गरीबी हटाओजैसा कोई जादुई नारा है। मोदी सरकार की नकारात्मक बातों के सहारे गाड़ी चल रही है। पर कब तक? उसकी अपनी इमेज क्या है? पार्टी संगठन की दशा खराब है। इसके पहले 1977, 1989 और 1996 में कांग्रेस पिटी थी। पर उसकी ताकत लोकसभा में कम होने के बावजूद राज्यों की विधानसभाओं में स्थिति बेहतर थी। आज कांग्रेस की स्थिति केवल संसद में ही खराब नहीं है। उसके हाथ से ज्यादातर राज्य निकल चुके हैं। राज्यों में उनके कद्दावर नेता या तो हैं नहीं या उन्हें उभरने नहीं दिया गया।
दूसरी ओर उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी अतीत में इतनी ताकतवर नहीं थी। कांग्रेस मानती है कि जैसे अनुभवहीन सोनिया ने अटल बिहारी वाजपेयी को हराया वैसे ही अनुभवहीन राहुल अब नरेन्द्र मोदी को परास्त करेंगे। दोनों स्थितियों में फर्क है। सोनिया की परीक्षा पहले कभी नहीं हुई थी, जबकि राहुल के माथे पर विफलता का टीका कई बार लग चुका है। फिर भी हमें इंतजार करना होगा। खासतौर से गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों का। चूंकि वे गुजरात के चुनाव के ठीक पहले अध्यक्ष बनने जा रहे हैं, इसलिए उनकी सबसे बड़ी परीक्षा वहीं होगी। वहाँ से साबित होगा कि वे चुनाव जिताऊ नेता हैं या नहीं।
राहुल की एक और परीक्षा 2019 के चुनाव में भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने की है। सोनिया गांधी ने 2004 के चुनाव के पहले गठबंधन बना लिया था। देखना होगा कि क्या राहुल गांधी ऐसी स्थितियाँ पैदा कर पाएंगे कि ज्यादातर चुनाव क्षेत्रों में बीजेपी के उम्मीदवारों के सामने विपक्ष का केवल एक उम्मीदवार खड़ा हो।

राहुल के सामने चुनौतियाँ
·                    गुजरात समेत विधान सभाओं के चुनाव
·                    संगठनात्मक बदलाव·                    पार्टी का क्षेत्रीय विस्तार·                    अपनी ही पार्टी के सीनियर नेता·                    गैर-भाजपा महागठबंधन·                    वैचारिक स्पष्टता·                    जनता से जुड़ाव

बड़ी देर कर दी मेहरबाँ...
चुनाव आयोग के लगातार दबाव के बावजूद पार्टी के आंतरिक चुनाव टलते गए। पार्टी कार्यसमिति ने नवंबर 2016 की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर उनसे पार्टी की कमान संभालने का अनुरोध किया था। उस समय वरिष्ठ पार्टी नेता एके एंटनी ने कहा था कि राहुल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का यह सही समय है। सवाल है कि उन्होंने इतनी देर क्यों की?
पिछले 13 साल में कितनी बार खबरें आईं कि राहुल गांधी पार्टी का नेतृत्व संभालने जा रहे हैं। सक्रिय भूमिका निभाने जा रहे हैं। पर कुछ हुआ नहीं। इस साल के शुरू में कहा जा रहा था कि यूपी के चुनाव हो जाने दीजिए। उसके बाद कहा गया कि 31 अक्तूबर के पहले ही हो जाएगा। फिर खबर आई कि 24 अक्तूबर को कार्यसमिति की बैठक होने जा रही है। उसमें घोषणा हो जाएगी। फिर अनुमान लगाया गया कि शायद 19 नवम्बर को श्रीमती इंदिरा गांधी की 100 वें जन्मदिन पर यह घोषणा होगी। उनकी वजह से पार्टी के चुनाव भी टलते आ रहे हैं।
राहुल गांधी अब इसे एक प्रक्रिया का रूप देना चाहते हैं। पिछले सोमवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में चुनाव कार्यक्रम के रूप में यह घोषणा की गई है। सब जानते हैं कि उनके खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए कोई नहीं आने वाला। सारे राज्यों की प्रदेश कांग्रेस समितियाँ प्रस्ताव पास कर चुकी हैं कि पार्टी अध्यक्ष के बारे में कांग्रेस महासमिति का निर्णय हमें मान्य होगा। वस्तुतः सबने राहुल के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है।



कांग्रेस अध्यक्ष: 47 से अब तक
आजादी के पहले की कांग्रेस स्वतंत्रता आंदोलन की पार्टी थी, आजादी के बाद सत्ताधारी दल। दोनों उद्देश्यों की भिन्नता उसकी कार्यशैली में भी देखी जा सकती है। पार्टी के पिछले 133 साल में 59 नेताओं ने अलग-अलग समय पर इसके अध्यक्ष का दायित्व संभाला है। स्वतंत्रता के बाद से 17 व्यक्ति इसके अध्यक्ष बने हैं। सन 1947 के बाद के 70 वर्षों में पार्टी का अध्यक्ष पद 38 वर्षों तक नेहरू-गांधी परिवार के पास रहा है। सोनिया गांधी सन 1998 से अबतक अध्यक्ष हैं। कांग्रेस के इतिहास में सबसे लम्बी अवधि वाली पार्टी अध्यक्ष।
आजादी के ठीक पहले 1947 में जिस वक्त आचार्य कृपालानी पार्टी अध्यक्ष बने, तब कांग्रेस पार्टी कद्दावर राष्ट्रीय नेताओं की पार्टी थी। पार्टी और प्रधानमंत्री की भूमिका को लेकर सबसे पहले सवाल उस दौर में ही खड़ा हुआ। आचार्य कृपालानी की राय थी कि सरकार को महत्वपूर्ण निर्णय करने के पहले पार्टी से भी मंत्रणा करनी चाहिए। नेहरू का कहना था कि व्यापक नीतिगत मसलों पर यह बात लागू होती है, रोजमर्रा मसलों में यह सम्भव नहीं। बाद में यह सिद्धांत बन गया।
आचार्य कृपालानी के बाद पट्टाभि सीतारमैया पार्टी अध्यक्ष बने, जो मध्यमार्गी और नरम मिजाज के थे। उनके बाद अगले पार्टी अध्यक्ष पद को लेकर नेहरू और पटेल के बीच मतभेद उभरे। पटेल ने पुरुषोत्तम दास टंडन का समर्थन किया। दूसरे प्रत्याशी थे आचार्य कृपालानी और शंकरराव देव। नेहरू का इन दोनों के प्रति खास झुकाव नहीं था, पर वे टंडन के विरोध में थे। नेहरू के विरोध के बावजूद टंडन जीते। इसके बाद तल्खी काफी बढ़ गई। तल्खी रफी अहमद किदवई को कार्यसमिति में शामिल करने के सवाल पर थी। नेहरू ने कार्यसमिति की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
अंततः टंडन ने भी इस्तीफा दिया और 1951 में नेहरू जी पार्टी अध्यक्ष बने। नेहरू 1954 तक अध्यक्ष रहे। उनके बाद यूएन ढेबर आए और फिर इंदिरा गांधी। आलोचकों का मानना है कि नेहरू ने अपनी बेटी को उत्तराधिकारी बनाने की व्यवस्था तभी कर ली थी। इंदिरा गांधी के बाद नीलम संजीव रेड्डी और के कामराज अध्यक्ष बने।
साठ के दशक में नेहरू के सामने चुनौतियाँ खड़ी होने लगी थीं। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए ही पार्टी नेतृत्व ने कामराज योजना को लागू किया। 10 अगस्त 1963 को कांग्रेस महासमिति ने कामराज योजना को मंजूरी दी। के कामराज उस वक्त मद्रास के मुख्यमंत्री थे। 1962 के चीनी हमले के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू व्यक्तिगत रूप से व्यथित थे। वे बीमार भी रहने लगे थे। पार्टी में उनकी जगह लेने वालों की मनोकामनाएं उजागर हो रही थीं।
नेहरू के व्यक्तिगत करिश्मे से कांग्रेस तीन चुनाव जीत चुकी थी, पर लगभग हर राज्य में बड़े नेताओं के बीच रस्साकशी चलने लगी थी। सरकारी कुर्सी पर सबकी निगाहें थीं। कांग्रेस प्लान नेहरू जी की मंजूरी से आया जिसके तहत छह केन्द्रीय मंत्रियों और छह राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफे दिए। बावजूद इसके कांग्रेस कमजोर होती गई। पर नेहरू ने पार्टी पर नियंत्रण नहीं खोया। कांग्रेस के पास उस वक्त प्रदेश स्तर पर ऊँचे कद वाले नेता थे। यह बात अच्छी थी, पर केन्द्रीय नेता की परेशानी का कारण भी थी।
27 मई 1964 को नेहरू का निधन हो गया। वह वक्त पार्टी के लिए दिक्कतों से भरा था। के कामराज को अध्यक्ष बने चार महीने ही हुए थे। सवाल था प्रधानमंत्री कौन बने? गुजरात के धाकड़ नेता मोरारजी देसाई भी मैदान में आ गए। काफी विमर्श के बाद लालबहादुर शास्त्री के नाम पर सहमति हुई। उधर पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे के लिए ऑपरेशन जिब्राल्टर छेड़ दिया। कश्मीर बचा लिया गया, पर शास्त्री वापस नहीं लौटे।
इसके बाद फिर टकराव हुआ। इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के बीच प्रधानमंत्री पद के लिए सीधा मुकाबला हो गया। इस चुनाव में इंदिरा गांधी जीत गईं। उस जीत ने ज्यादा बड़े टकराव की बुनियाद तैयार कर दी, जिसके कारण पार्टी का विभाजन हुआ। सन 1969 के बाद जब पार्टी टूटी तब भी पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद अलग-अलग व्यक्तियों को देने की परम्परा रही।
सन 1967 के बाद इंदिरा गांधी का एक अलग खेमा नजर आने लगा था। उस वक्त पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा थे, जो इंदिरा विरोधी खेमे से ताल्लुक रखते थे। पचास के दशक के नेहरू-टंडन मतभेदों की तरह पार्टी के भीतर टकराव फिर नजर आने लगा। अगस्त 1969 में राष्ट्रपति पद के चुनाव में इंदिरा गांधी ने पार्टी के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी का विरोध करके बगावत का बिगुल बजा दिया। इंदिरा गांधी ने भी पार्टी पर नियंत्रण बनाकर रखा।
दिसम्बर 1969 में मुम्बई के समांतर कांग्रेस महाधिवेशन में जगजीवन राम पार्टी अध्यक्ष चुने गए। उनके बाद शंकर दयाल शर्मा और फिर देवकांत बरुआ पार्टी अध्यक्ष बने। दोनों इंदिरा गांधी के विश्वस्त थे। पर 1977 का चुनाव हारने के बाद 1978 में इंदिरा गांधी ने जब पार्टी अध्यक्ष का दायित्व संभाला तो वह परम्परा समाप्त हो गई। उनके बाद राजीव गांधी ने भी दोनों पदों को संभाला। पीवी नरसिंह राव ने भी उस परम्परा को जारी रखा। उनके वक्त में एकबारगी लगा कि पार्टी परिवार के दायरे से बाहर आ गई है।
नरसिंह राव के सामने अर्जुन सिंह, शरद पवार और नारायण दत्त तिवारी जैसे बड़े नेता थे। राव के विरोधियों ने 10, जनपथ का सहारा लेने की कोशिश की। बाद में अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी ने मिलकर एक नई पार्टी भी बनाई। पर 1996 का चुनाव हारने के बाद नरसिंह राव का पराभव हो गया। उनके बाद आए सीताराम केसरी। कांग्रेस के भीतर फिर से सिर-फुटौवल शुरू होने लगी।
दिसम्बर 1997 में सोनिया गांधी ने घोषणा की कि 1998 के चुनाव-प्रचार में मैं भी हिस्सा लूँगी। पार्टी के भीतर यह मान लिया गया था कि परिवार ही पार्टी को बचा सकता है। देखते ही देखते केसरी जी कुर्सी से हटा दिए गए और सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष बन गईं। सन 1998 में सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद से व्यावहारिक राजनीति में पार्टी अध्यक्ष की भूमिका काफी बढ़ गई। खासतौर से 2004 में सत्ता प्राप्ति के बाद से। फिलहाल पार्टी केन्द्रीय सत्ता से बाहर है। कहना मुश्किल है कि भविष्य में उसका स्वरूप क्या होगा।

स्वतंत्रता के बाद के कांग्रेस अध्यक्ष

नाम
वर्ष
1
जेबी कृपालानी
1947
2
पट्टाभि सीतारमैया
1948-49
3
पुरुषोत्तम दास टंडन
1950
4
जवाहर लाल नेहरू
1951-54
5
यूएन ढेबर
1955-59
6
इंदिरा गांधी
1959
7
नीलम संजीव रेड्डी
1960-63
8
के कामराज
1964-67
9
एस निजलिंगप्पा
1968-69
10
सी सुब्रमण्यम (अंतरिम)
1969
11
जगजीवन राम
1970-71
12
शंकर दयाल शर्मा
1972-74
13
देवकांत बरुआ
1975-77
14
इंदिरा गांधी
1978-84
15
राजीव गांधी
1985-91
16
पीवी नरसिंह राव
1992-96
17
सीताराम केसरी
1997-98
18
सोनिया गांधी
1998-2017




नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

Economist: The Rahul Problem

Vinod Mehta: The Rahul Problem

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