संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावती’
पहली फिल्म नहीं है, जो विवाद का विषय बनी हो. इस फिल्म का राजपूत संगठन विरोध कर
रहे हैं. उनका कहना है कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर फिल्म को बनाया गया है. फिल्मों,
साहित्यिक कृतियों, नाटकों और अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों का विरोध यदि शब्दों
और विचारों तक सीमित रहे तो उसे स्वीकार किया जा सकता है. पर यदि विरोध में हिंसा
का तत्व शामिल हो जाए, तो सोचना पड़ता है कि हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं या
पीछे जा रहे हैं. विरोध के इस तरीके के कारण फिल्म की ऐतिहासिकता का सवाल पीछे चला
गया है. चिंता का विषय यह है कि जैसे-जैसे हम आधुनिक होते जा रहे हैं, हमारे
तौर-तरीके मध्य युगीन होते जा रहे हैं. फ्रांस की कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' पर हमला गलत था, तो इस हमले की धमकी भी गलत है.
हाल के वर्षों में दिल्ली रेप कांड पर लेज़्ली
उडविन की डॉक्यूमेंट्री 'इंडियाज़ डॉटर' और ‘उड़ता पंजाब’ को लेकर कई तरह के सवाल
उठे. इधर गोवा में होने
वाले 48वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में दो भारतीय फिल्मों 'सेक्सी दुर्गा' और 'न्यूड' को लेकर एक विवाद
सामने आया है. दोनों फिल्मों के नाम-वैचित्र्य को छोड़ दें तो इनमें ऐसी कोई बात
नहीं, जो उनके प्रदर्शन से रोकती हो. सवाल कलात्मक अभिव्यक्ति की रक्षा का है.
सामाजिक प्रगतिशीलता का पता सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से ही लगता है. उसकी रक्षा होनी
चाहिए.
शालीन और मर्यादित विरोध से किसी को गुरेज नहीं.
विरोध भी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. उसके सहारे आप अपनी बात समाज के बड़े तबके
तक पहुँचा सकते हैं, पर ‘पद्मावती’ का विरोध हिंसक रूप धारण कर चुका है. कई जगह
तोड़-फोड़ हुई है. फिल्म के प्रदर्शन के खिलाफ जो धमकियाँ दी जा रहीं हैं, वे समझ
से बाहर हैं. करणी सेना के लोगों ने दीपिका पादुकोण की नाक काटने की धमकी दी है.
कुछ लोगों ने भंसाली और दीपिका का सिर काटकर लाने वाले को पांच करोड़ रुपए इनाम
में देने की बात कही है. एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान करणी सेना के एक प्रवक्ता
ने कैमरे के सामने ही अपनी तलवार निकाल ली. जब एंकर ने उनसे ऐसा करने से मना किया
तो उन्होंने दावा किया कि तलवार राजपूतों के मान-सम्मान को दर्शाती है, जिसे
भंसाली ने आहत किया है.
समुदाय या व्यक्ति की भावनाओं को आहत करने का
अधिकार किसी को नहीं है, पर क्या फिल्म बनाने मात्र से एक समुदाय की भावनाएं आहत
हो जाती हैं? जहाँ तक फिल्म की ऐतिहासिकता का सवाल है चित्तौड़ की
रानी पद्मिनी पर आधारित यह पहली फिल्म या साहित्यिक कृति नहीं है. सबसे पहले 1930
में देबकी बोस ने ‘कामोनार अगुन’ नाम से इस विषय पर
मूक फिल्म बनाई थी.
सन 1963 में तमिल में ‘चित्तूर रानी
पद्मिनी’ नाम से फिल्म बनी, जिसमें वैजयंती माला ने नायिका की
भूमिका निभाई. सन 1964 में महारानी पद्मिनी नाम से हिन्दी में फिल्म भी बनी,
जिसमें नायिका की भूमिका अनिता गुहा ने निभाई. इन फिल्मों के खिलाफ कोई आंदोलन
नहीं हुआ. सन 2009 में सोनी टीवी पर ‘चित्तौड़ की रानी पद्मिनी
का जौहर’ नाम से सीरियल चला तब भी ऐसा कोई विरोध
सामने नहीं आया.
कलात्मक अभिव्यक्ति को
लेकर दो तरह की प्रवृत्तियाँ हाल के वर्षों में देखने में आईं हैं. सेंसर और सरकार
का मशीनी दृष्टिकोण और दूसरा भीड़ का विरोध. कुछ साल पहले कमलहासन की फिल्म
‘विश्वरूपम’ को दूसरे किस्म के विरोध का सामना करना पड़ा. ‘विश्वरूपम’ हॉलीवुड
जैसी एक्शनपैक्ड फिल्म थी. फिर भी साम्प्रदायिक आधार पर उसका विरोध हुआ. उसके
प्रदर्शन को रोकने में राज्य सरकार और न्यायपालिका भी शामिल हुई. फिल्म का लम्बे
समय तक दक्षिण भारत के तीन राज्यों में प्रदर्शन रुका रहा.
सन 2011 में प्रकाश झा
की फिल्म ‘आरक्षण’ के साथ ऐसा ही हुआ था. उसके पहले फिल्म ‘राजनीति’ को लेकर इसी
प्रकार की आपत्तियाँ थीं. दो दशक पहले फिल्म मणिरत्नम की फिल्म ‘बॉम्बे’ के
प्रदर्शन के समय भी ऐसा ही विरोध था. यह सामाजिक सहनशीलता का सवाल है. सन 2013 में
समाजशास्त्री आशीष नन्दी के एक बयान का प्रकरण तभी सामने आया, जब ‘विश्वरूपम’ पर
चर्चा चल रही थी. उन्होंने जयपुर लिटरेरी फोरम के मंच पर कुछ विचार व्यक्त किए.
इसके खिलाफ सीधे एफआईआर दर्ज हो गई.
फिल्मों, नाटकों, कहानियों-उपन्यासों और
अभिव्यक्ति के हर माध्यम में इस बात की गुंजाइश होती है कि किसी को उससे शिकायत हो, किसी भावना को ठेस
लगती हो या उस बात से उसका गहरा मतभेद हो. पर एक ‘उदार’ समाज अपने लेखकों, विचारकों, रंगकर्मियों और
कलाकारों को अपनी बात कहने का मौका देता है. फिल्मों के गीत अक्सर किसी समुदाय की
भावनाओं को ठेस पहुँचाते हैं. उनका विरोध होता है.
एक ओर उदार
अभिव्यक्तियों के सामने आवेशों में मुट्ठियाँ तन जाती हैं, वहीं निर्दोष और निर्मल अभिव्यक्तियाँ
आक्रामक दादागीरी की शिकार भी बनती हैं. सन 2005 में एक बहुभाषी पत्रिका के तमिल
संस्करण में तमिल फिल्मों की अभिनेत्री खुशबू का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ. उसमें
खुशबू ने कहा, विवाह-पूर्व
यौन सम्बन्ध अनुचित नहीं है. यह वक्तव्य ऐसा नहीं था कि तमिल नारी, समाज या संस्कृति को
ठेस लगती. बावज़ूद इसके एक राजनीतिक दल ने बखेड़ा खड़ा किया और खुशबू के खिलाफ
आंदोलन शुरू हो गया.
खुशबू को सार्वजनिक
रूप से माफी माँगनी पड़ी. पर इतना काफी नहीं था. खुशबू के खिलाफ अनेक अदालतों में
मुकदमे दायर कर दिए गए. खुशबू ने हाईकोर्ट में अपील की कि ये मामले मुझे परेशान
करने के लिए दायर किए गए हैं, इन्हें खारिज किया जाए. पर हाईकोर्ट ने उनकी नहीं सुनी.
अंत में उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा, जिसने अप्रेल 2010 में उनके खिलाफ दायर 22 आपराधिक
मुकदमों को खारिज किया. खुशबू को अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा में लगभग
साढ़े छह साल लगे. वह भी तब जब खुशबू आर्थिक रूप से समर्थ थीं और समाज-व्यवस्था
में उनका रसूख भी था. ऐसे में एक सामान्य व्यक्ति की दशा को समझा जा सकता है.
inext में प्रकाशित
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