Saturday, November 21, 2015

गठबंधन-चातुर्य और राजनीति का महा-मंथन

इस साल संसद का मॉनसून सत्र सूखा रहा। पूरे सत्र में सकारात्मक संसदीय कर्म ठप रहा। अब शीत सत्र सामने है। इसमें क्या होने वाला है? सरकार क्या अपने विधेयकों को पास करा पाएगी? क्या वह भारतीय राजनीति के ज्वलंत सवालों का ठीक से जवाब देगी? दूसरी ओर सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष एक होकर किसी नई राष्ट्रीय ताकत को तैयार करेगा? बिहार विधान सभा के चुनाव परिणामों से उत्साहित विपक्ष क्या अपनी एकता को संसद में भी साबित करेगा? भाजपा-विरोधी इस राजनीति का नेतृत्व कौन करेगा? यह एकता क्या भविष्य के विधान सभा चुनावों में भी देखने को मिलेगी? 

बिहार-परिणाम के विश्लेषक अब भी इस गुत्थी से उलझे पड़े हैं कि भाजपा की पराजय के पीछे महागठबंधन का जातीय-साम्प्रदायिक गणित था या उसकी असहिष्णु राजनीति। भविष्य की राजनीति का रिश्ता इस सवाल से जुड़ा है। और पूरे देश की राजनीति सोशल इंजीनियरी से जुड़ी है। इस जातीय गणित की अगली महा-परीक्षा अब 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में होगी। महागठबंधन बिहार की परिस्थितियों से मेल खाता था। देखना होगा कि दूसरे राज्यों में वह किस रूप में बनेगा। और यह भी कि उसका नेतृत्व कौन करेगा?   

बिहार में एनडीए की विफलता और महागठबंधन की सफलता से कांग्रेस प्रफुल्लित जरूर है, पर आने वाले समय में उसके सामने नेतृत्व की चुनौती खड़ी होगी। अब वह जमाना नहीं रहा जब शेर के नेतृत्व में जंगल के सारे जानवर लाइन लगाकर चलते थे। अब सबकी महत्वाकांक्षाएं हैं। जेडीयू का नेतृत्व नीतीश कुमार को नए राष्ट्रीय नेता के रूप में खड़ा करना चाहता है। नीतीश कुमार का शपथ ग्रहण समारोह इसीलिए विपक्ष की एकता के महा-सम्मेलन जैसा बन गया। पर उसके अंतर्विरोध भी छिपे हैं। महागठबंधन के आलोचकों को लालू-नीतीश दोस्ती की दीर्घायु को अब भी लेकर संदेह है।
बिहार में महागठबंधन बनाने में नीतीश कुमार की कोशिशों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पर जेडीयू की निगाह गैर-कांग्रेस विपक्ष पर है। पार्टी के महासचिव केसी त्यागी ने हाल में कहा है कि जदयू, तृणमूल और आम आदमी पार्टी कई मुद्दों पर समान विचारों वाले हैं और देश में सहयोगात्मक संघवाद को मजबूत करने का समय आ गया है। इस संघवाद को जोड़ने लायक लम्बा धागा कांग्रेस या भाजपा के पास ही है। अतीत में इसमें वाम मोर्चा की भूमिका रही है, जो अभी पृष्ठभूमि में है। वामपंथी सामने आए तो इस मोर्चे के अंतर्विरोध मुखर होंगे।


कांग्रेस के साथ जनता परिवार के अंतर्विरोधी रिश्ते हैं। यह अलग बात है कि अब गैर-कांग्रेसवाद की जगह गैर-भाजपावाद ने ले ली है। कांग्रेस के नेतृत्व में रहना उनकी राजनीति से मेल नहीं खाता। जबकि भविष्य की साम्प्रदायिकता-विरोधी राजनीति इसे सम्भव बना रही है। भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन को लीड करने के लिए अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी भी उत्सुक हैं। इस गठबंधन में बीजू जनता दल को शामिल करने की कोशिशें भी होंगी। पर फिलहाल बीजद इसके लिए तैयार नजर नहीं आता।

अप्रैल-मई 2016 में तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और असम में चुनाव होंगे। इन चार में से असम और बंगाल में कांग्रेस किसी गठबंधन में शामिल हो सकती है। जेडीयू और राजद की वहाँ कोई भूमिका जरूर नहीं है, पर मुस्लिम वोट की भूमिका है। असम में भाजपा भी गठबंधन बनाने की कोशिश कर रही है। तमिलनाडु और केरल में सरकारें बदलने की परम्परा है। वहाँ कांग्रेस का डीएमके के साथ गठबंधन सम्भव है। केरल में उसका परम्परागत गठबंधन है।

गठबंधन के लिहाज से सन 2017 भी बहुत महत्वपूर्ण वर्ष होगा। उस साल उत्तर प्रदेश में चुनाव है। पिछले कुछ दिनों से बसपा-सपा गठबंधन की चर्चा चल रही है। यह अविश्वसनीय गठबंधन है, पर असम्भव नहीं। सन 1993 में दोनों दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा था। यदि यह गठबंधन भाजपा के विरोध में होगा तो उसमें कांग्रेस को भी शामिल होना चाहिए। पर तीनों को साथ आने के लिए अपने-अपने हितों का त्याग करना होगा।

उत्तर प्रदेश के अलावा उस साल हिमाचल, गुजरात, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव होंगे। इन सभी राज्यों में कांग्रेस का बेहतर आधार है और उसे गठबंधन की जरूरत नहीं है। पंजाब में आम आदमी पार्टी नई ताकत के रूप में उभर रही है। सवाल है कि क्या कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन होगा? ऐसा हुआ तो पंजाब का चुनाव दिलचस्प हो जाएगा। इससे आम आदमी पार्टी की ताकत बढ़ेगी और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का क्षय भी होगा।

सन 2017 में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे। विपक्षी गठबंधन की सबसे बड़ी परीक्षा उस चुनाव में होगी। उसी साल राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव भी होंगे। इन सभी मौकों पर भारतीय राजनीति के गठबंधन-चातुर्य की परीक्षा होगी। फिलहाल संसद का शीत सत्र उसी समझदारी की झलक पेश करेगा। महागठबंधन कायम रहेगा तो उसके नेतृत्व पर अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश भी होगी।

महागठबंधन में शामिल दलों में केवल कांग्रेस की राष्ट्रीय उपस्थिति है। अपनी स्थिति को बेहतर बनाए रखने के लिए वह अपने पुराने सहयोगी एनसीपी के साथ रिश्तों को फिर से सुधारने की कोशिश कर रही है। संसद के सत्र के साथ ही दिसम्बर के पहले हफ्ते में महाराष्ट्र में विधान सभा का सत्र भी शुरू होगा। कांग्रेस वहाँ भी एनसीपी के साथ बेहतर समन्वय की कोशिश कर रही है, जबकि इसके विपरीत भाजपा और शिवसेना के रिश्ते खराब हो रहे हैं। महागठबंधन बनेगा तो राजनीति का मंथन दूसरी दिशा में भी होगा। इसकी झलक संसद के आने वाले सत्र में देखने को मिलेगी।

मॉनसून सत्र में व्यापम घोटाला और ललित मोदी प्रसंग छाया रहा और लगता है कि इस बार सत्र पर असहिष्णुता का सवाल हावी रहेगा। सरकार के सामने महत्वपूर्ण विधेयकों को पास कराने की चुनौती है। पर कांग्रेस के नेता आनन्द शर्मा ने कहा है, विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है। देश में जो हो रहा है उसे देखना हमारी प्राथमिकता है। संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर हाल में हुए सरकारी फैसलों को लेकर भी कांग्रेस हमले करने वाली है।

कांग्रेसी नेतृत्व तय नहीं कर पाया है कि इस सत्र को सकारात्मक रूप से चलने दिया जाए या नहीं। पिछला सत्र शुरू होते वक्त कांग्रेस की रणनीति गतिरोध पैदा करने की नहीं थी। वह व्यापम और ललित मोदी को लेकर सरकार पर दबाव बनाना चाहती थी। पर बाद में उसका इरादा बदल गया और उसकी जगह छापामार राजनीति ने ले ली। पर वह काम भी पूरा नहीं हुआ। जब पूरा सत्र धुल गया तो अचानक अंतिम दिन उसका इरादा बदल गया। परिणाम यह हुआ कि सुषमा स्वराज ने कांग्रेस को धो दिया।

कांग्रेस पर अपनी छवि को सकारात्मक बनाए रखने का दबाव भी है। जीएसटी पर कांग्रेस के रुख को लेकर भी देश में विपरीत प्रतिक्रिया हुई थी। संसद में जीएसटी, बैंकरप्सी कोड, रियल एस्टेट रेग्युलेशन, भूमि अधिग्रहण, फैक्ट्री संशोधन और आरबीआई एक्ट संशोधन जैसे कई महत्वपूर्ण विधेयक अटके पड़े हैं, जिनका अर्थव्यवस्था से सीधा रिश्ता है। जीएसटी से टैक्स का ढांचा आसान होने से लागत घटेगी। उसके टलने का मतलब है कि यह अप्रैल 2016 से लागू नहीं होगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि ‘दो नेता’ इसे रोककर विकास में अवरोध पैदा करना चाहते हैं।  

लगता है कि कांग्रेस अब इस मसले पर सरकार के साथ बात करने को तैयार हो जाएगी। बताया जाता है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की राष्ट्रपति से 3 नवम्बर की मुलाकात के दौरान संसदीय कर्म को लेकर भी चर्चा हुई थी। पार्टी ने अब संकेत दिया है कि अगर हमारी चिंताओं पर ध्यान दिया गया तो विधेयक पास कराने में मदद कर सकते हैं। कांग्रेस को अब यदि गठबंधन की राजनीति करना है तो उसे अपने सहयोगी दलों को भी भरोसे में रखना होगा। इस सत्र में उसकी विश्वसनीयता की परीक्षा भी होगी।


राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

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