Saturday, November 28, 2015

अब गैर-भाजपा राजनीति का दौर

लोकसभा चुनाव के पहले तक देश में तीसरे या चौथे मोर्चे की अवधारणा गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चे के रूप में होती थी, पर पछले कुछ समय से गैर-भाजपा मोर्चा बनाने की कोशिशें तेज हो गई हैं। इनमें कांग्रेस भी शामिल है। इससे दो बातें साबित होती हैं। एक- भाजपा देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई है और दूसरे भाजपा का विकल्प कांग्रेस नहीं है। धर्म निरपेक्ष राजनीति के झंडे तले तमाम क्षेत्रीय ताकतों को एक करने की कोशिश हो रही है। प्रश्न है कि कांग्रेस इस ताकत का नेतृत्व करेगी या इनमें से एक होगी? सन 2016 के विधानसभा चुनावों में इसका जवाब मिलेगा। 

सन 1962 के आम चुनाव तक भारतीय राजनीति निर्विवाद रूप से एकदलीय थी। सन 1967 में गठबंधनों का एक नया दौर शुरू होने के बावजूद 1971 तक इस राजनीति का रूप एकदलीय रहा। जो कुछ भी था एकदलीय था और विपक्ष माने गैर-कांग्रेसवाद। गैर-कांग्रेसवाद 1967 के बाद प्रचलित नारा था। पर गैर-कांग्रेसवाद का अर्थ जनसंघवाद या कम्युनिस्ट पार्टी वाद नहीं था। कोई भी पार्टी ऐसी नहीं थी, जो कांग्रेस का विकल्प बनती। इसीलिए 1977 में जब देश की जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का मन बनाया तो विकल्प एक गठजोड़ के रूप में सामने आया, जिसके पास कोई साझा विरासत नहीं थी। यह गठजोड़ दो साल के भीतर बिखर गया।
सन 1980 और 1984 के चुनावों में कांग्रेस के मुकाबले कोई विकल्प नहीं था। अलबत्ता इस दौरान भारतीय समाज के अंतर्विरोध खुलकर राजनीतिक ताकतों के रूप में विकसित होने लगे। एक थी हिन्दू साम्प्रदायिक या राष्ट्रवादी ताकत और दूसरी हिन्दू समाज के जातीय अंतर्विरोधों से निकली ताकत। दोनों एक-दूसरे की काट में निकली थीं या हिन्दू राजनीति के ऐतिहासिक कालक्रम की देन थीं, इसे लेकर विशेषज्ञों की अपनी-अपनी राय है। अलबत्ता राजनीति में सोशल इंजीनियरी की नई अवधारणा उभर कर सामने आई। संयोग है कि 1989 की वीपी सिंह की सरकार में दोनों ताकतों ने मिलकर सरकार बनाई, पर वह समय टकरावों का था। मंदिर आंदोलन ने भारतीय जनता पार्टी को ताकत दी और मंडल आंदोलन ने जनता परिवार की राजनीति को।

हिन्दू समाज के अंतर्विरोध

इन दोनों ताकतों के टकराव के कारण वीपी सिंह की सरकार गिरी और मंदिर आंदोलन के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के विकल्प के रूप में भारतीय जनता पार्टी उभर कर सामने आई। उसी दौरान यह बात स्पष्ट हो गई थी कि भाजपा पूरे हिन्दू समाज की प्रतिनिधि पार्टी नहीं है। आजादी के दो दशक पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रूप में एक नया संगठन देश में खड़ा हो गया था, जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी थीं। इस संगठन से जुड़े लोगों के मन में एक राजनीतिक दल की परिकल्पना थी। यह दल कांग्रेस भी हो सकता था। शुरूआती दिनों में इसे कांग्रेस से जोड़ने सी कोशिश भी हुई थी, पर नेतृत्व के प्रभावशाली तबके ने ऐसा होने नहीं दिया। इनमें जवाहर लाल नेहरू की महत्वपूर्ण भूमिका थी। बहरहाल संघ की पहल पर जनसंघ का गठन हो गया।

इस पार्टी के अपने अंतर्विरोध हैं। सामान्य धारणा है कि यह संघ का अनुषंगी संगठन है। यह बात काफी हद तक सही है, पर गठन के समय से ही इसके गैर-संघ तत्व भी नजर आए थे। आज भी इस पार्टी के केन्द्र पर संघ प्रभावी है, पर इसमें गैर-संघ पृष्ठभूमि के नेता भी हैं। पिछले एक साल से इसे मास बेस पार्टी बनाने की कोशिशें शुरू हुईं हैं। इसके कारण इसके अंतर्विरोध आने वाले समय में और मुखर होंगे। सन 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय होने और फिर टूट हो जाने के बाद पार्टी का नाम बदल कर भारतीय जनता पार्टी हो गया, पर बाकी बातें वही रहीं।

मंडल और कमंडल
भाजपा के समांतर हिन्दू मझोली जातियों की राजनीति मंडल आंदोलन के सहारे विकसित हुई। भाजपा की राजनीति के पीछे संघ परिवार और एक सार्वदेशिक संगठन था, वहीं जनता परिवार के पीछे क्षेत्रीय क्षत्रप थे। जनता परिवार देश के अलग-अलग इलाकों में क्षेत्रीय दलों के रूप में देखा जा सकता है। इनमें से ज्यादातर के पास राम मनोहर लोहिया और उनके साथ जुड़े नेताओं की राजनीतिक विचारधारा की विरासत है। पर संरचना में वे जातीय समूह के रूप में ही विकसित हो पाए हैं। ये संगठन किसी एक नेता के इर्द-गिर्द विकसित हुए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इन्हें एक साथ लाने की तीन बड़ी कोशिशें हुईं हैं। इनके नेतृत्व में सन 1977, 1989 और 1996 से 1998 के बीच दो सरकारें बन चुकी हैं। सन 1996 के बाद से इसे तीसरे मोर्चे के रूप में प्रचारित किया जाता है क्योंकि ये गठबंधन कांग्रेस और भाजपा से अलग थे।

भारतीय जनता पार्टी ने खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर लिया है। हालांकि उसकी उपस्थिति अखिल भारतीय नहीं है। सन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से यह पार्टी दक्षिण और पूर्वोत्तर में अपनी उपस्थिति बनाने की कोशिश कर रही है। पिछले लोकसभा चुनाव ने कांग्रेस और मंडल राजनीति के कर्णधारों को चौंकाया है। भारतीय जनता पार्टी ने दोनों के राजनीतिक स्पेस पर कब्जा किया है। लोकसभा चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जीत ने खासतौर से नई चुनौती पेश कर दी। बिहार में नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी के बीच व्यक्तिगत सामंजस्य नहीं बैठ पाया। वहाँ से महागठबंधन की अवधारणा ने जन्म लिया है। सवाल है कि क्या अब देश दो दलीय राजनीति की और बढ़ रहा है? क्या भाजपा का विकल्प महागठबंधन है? यदि है तो उसका नेतृत्व कौन करेगा? क्या कांग्रेस की छतरी के नीचे मंडल राजनीति के ध्वजवाहक चलेंगे?

भाजपा की हार माने कांग्रेस की जीत?

जिन दिनों अन्ना हजारे आंदोलन चल रहा था कांग्रेस के नेता कहते थे कि यह आंदोलन भाजपा प्रेरित है। आशय यह था कि कांग्रेस हारी तो फायदा भाजपा को मिलेगा। और अब जब भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ असहिष्णुता वगैरह के आरोप लग रहे हैं तब कहा जा रहा है कि इसके पीछे कांग्रेस है। पर महागठबंधन में शामिल काफी ताकतें परम्परा से कांग्रेस विरोधी हैं। दूसरे वे सब एक साथ हैं भी नहीं। मसलन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती क्या एक साथ आ सकते हैं? वह भी कांग्रेस के झंडे तले? उड़ीसा, असम, बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे राज्यों में महागठबंधन की परिकल्पना करने में दिक्कतें हैं। अगले कुछ महीनों में कुछ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं। देखना होगा कि बिहार में स्थापित एकता वहाँ भी दिखाई पड़ती है या नहीं। और यह भी देखना होगा कि बिहार में यह एकता चल पाती है या नहीं।

इतना साफ है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का मूल तत्व है। क्षेत्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के दर्शन भी इसी के मार्फत होते हैं. हाँ, इन गठबंधनों में विचारधारा कम, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या गुटबाजी हावी रहती हैं। गठबंधनों के तफसील में जाएंगे तो यही बात उजागर होगी। कांग्रेस पार्टी खुद में एक गठबंधन है। उसकी धड़ेबाज़ी ही पहली गैर-कांग्रेसी सरकारें बनाने में मददगार हुई थी।

क्षेत्रीय क्षत्रपवाद

ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियाँ सैद्धांतिक आधार पर नहीं बनी हैं। हम इन्हें व्यक्तियों के नाम से जानते हैं। बसपा माने मायावती। ममता बनर्जी,मुलायम सिंह, चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन रेड्डी, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, लालू यादव, राम विलास पासवान, मौलाना बद्रुद्दीन अजमल, नवीन पटनायक,कुलदीप बिश्नोई और नीतीश कुमार नेताओं के नाम हैं जो पार्टी के समानार्थी हैं। इनकी संरचना में फर्क है। मायावती जितनी आसानी से फैसले कर सकती हैं उतनी आसानी से नीतीश कुमार नहीं कर सकते, पर महत्व क्षत्रप होने का है।

कांग्रेस पार्टी की विफलता का एक बड़ा कारण है नेतृत्व की अत्यधिक केन्द्रीय होना। वहाँ जो कुछ है वह सोनिया और राहुल तक सीमित है। एक जमाने तक इस पार्टी के पास दिग्गज क्षेत्रीय नेता थे। आज भारतीय जनता पार्टी के पास कांग्रेस से बेहतर क्षेत्रीय नेता हैं। उसकी सफलता का एक कारण यह भी है। भाजपा के पास मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा जैसे राज्यों में बड़े नेता हैं जो क्षेत्रीय क्षत्रपों से टक्कर लेते हैं। अब यदि कांग्रेस क्षेत्रीय क्षत्रपों की मदद से खुद को खड़ा करने की कोशिश कर रही है तो इसकी वजह यही है कि स्थानीय स्तर पर उसका संगठन कमजोर हो गया है। विडंबना है कि उसने स्थानीय स्तर पर अपने नेता तैयार करने के बजाय उन नेताओं का सहारा लेने की कोशिश की है जो उसके विरोध के सहारे पनपे थे। जाहिर है कि यह उसका बड़ा अंतर्विरोध है।
नए नेता, नए हौसले

कांग्रेस का पराभव यहां तक पहुँच गया है कि अब गैर-कांग्रेसवाद की जगह गैर-भाजपावाद ने ले ली है। पर अब भाजपा की पराजय का मतलब कांग्रेस की विजय नहीं है। भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन को लीड करने के लिए नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी उत्सुक हैं। हालांकि मुलायम सिंह इसमें अभी शामिल नहीं हैं, पर वे शामिल हुए तो कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं होंगे। इस गठबंधन में बीजू जनता दल को शामिल करने की कोशिशें भी होंगी। फिलहाल संसद के शीत सत्र पर भी नजर रखनी होगी। देखना होगा कि क्या वहाँ कोई भाजपा विरोधी मोर्चा जन्म ले रहा है। सन 2017 में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे। विपक्षी गठबंधन की बड़ी परीक्षा उस चुनाव में होगी। अभी तमाम मौके आएंगे गठबंधन बनाने और तोड़ने के।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित



1 comment:

  1. बहुत अच्छी बात कही है, अपने। मगर काँग्रेस को अभी इतनी अासानी से हाशिये पर नहीं डाला जा सकता है।

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