Sunday, November 22, 2015

संसदीय भूमिका पर भी बहस होनी चाहिए

संसद का शीत सत्र इस हफ्ते शुरू होगा। हमारी राजनीति में चुनाव और संसदीय सत्र दो परिघटनाएं राजनीतिक सरगर्मियों से भरी रहती है। दोनों ही गतिविधियाँ देश के जीवन और स्वास्थ्य के साथ गहरा वास्ता रखती हैं। चुनाव और संसदीय कर्म ठीक रहे तो काया पलटते देर नहीं लगेगी। पर दुर्भाग्य से देश की जनता को दोनों मामलों में शिकायत रही है। चुनाव के दौरान सामाजिक अंतर्विरोध और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप चरम सीमा पर होते हैं और संसदीय सत्र के दौरान स्वस्थ बहस पर शोर-शराबा हावी रहता है।

पिछले मॉनसून सत्र में व्यापम घोटाला और ललित मोदी प्रसंग छाया रहा। इस वजह से अनेक सरकारी विधेयक पास नहीं हो पाए। दोनों प्रसंग महत्वपूर्ण थे, पर दोनों मसलों पर बहस नहीं हो पाई। उल्टे पूरे सत्र में संसद का काम ठप रहा। यह पहला मौका नहीं था, जब राजनीति के कारण संसदीय कर्म प्रभावित हुआ हो। अलबत्ता राजनीतिक दलों से उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें अपनी राजनीति के साथ-साथ राष्ट्रीय हितों का अंदाज भी होता होगा। इस हफ्ते शीत सत्र शुरू होने के पहले सर्वदलीय बैठक होगी। बेहतर हो कि सभी पार्टियाँ कुछ बुनियादी बातों पर एक राय कायम करें। कांग्रेस के नेता आनन्द शर्मा ने कहा है, ‘विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है। देश में जो हो रहा है उसे देखना हमारी प्राथमिकता है। संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता।’
आनन्द शर्मा की इस बात से नाइत्तफाकी रखना फिजूल है। पर इस बात की तरफ उनका ध्यान खींचा जाना चाहिए कि विधेयक भी उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि उनमें दोष है तो सरकार के साथ मिलकर उनमें सुधार कराएं। राष्ट्रीय राजनीति में आप शामिल हैं तो प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था को रास्ते पर लाना आपकी जिम्मेदारी भी है। केवल सत्तापक्ष ही सारी बातों के लिए जिम्मेदार नहीं है। पर उनमें केवल राजनीतिक कारणों से अड़ंगा लगाने का मतलब क्या है?

बहरहाल इस सत्र में कांग्रेस पर अपनी छवि को सकारात्मक बनाए रखने का दबाव भी है। जीएसटी पर कांग्रेस के रुख को लेकर भी देश में विपरीत प्रतिक्रिया हुई थी। संसद में जीएसटी, बैंकरप्सी कोड, रियल एस्टेट रेग्युलेशन, भूमि अधिग्रहण, फैक्ट्री संशोधन और आरबीआई एक्ट संशोधन जैसे कई महत्वपूर्ण विधेयक अटके पड़े हैं, जिनका अर्थव्यवस्था से सीधा रिश्ता है। जीएसटी से टैक्स का ढांचा आसान होने से लागत घटेगी। उसके टलने का मतलब है कि यह अप्रैल 2016 से लागू नहीं होगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि ‘दो नेता’ इसे रोककर विकास में अवरोध पैदा करना चाहते हैं। उनका बयान भी राजनीति से प्रेरित है। सच्ची बात यह है कि विधेयक को पास कराने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की है।

संसद के पिछले सत्र में एक बात यह भी सामने आई कि सत्तापक्ष को सन 2014 के लोकसभा चुनाव में भले ही स्पष्ट बहुमत मिल गया, पर राज्यसभा में वह अल्पमत में है। जीएसटी संविधान संशोधन विधेयक है। उसके लिए दोनों सदनों में विशेष बहुमत के अलावा राज्यों की विधानसभाओं के बहुमत से भी उसे पास कराना जरूरी है। इसका मतलब है कि सरकार को काफी व्यापक स्तर पर समर्थन की जरूरत भी होगी। इसमें समय भी लगेगा। यानी कानून उपयोगी भी हो तब भी उसका प्रक्रियात्मक मार्ग लम्बा होगा।
इस बीच एक बहस यह शुरू हुई है कि राज्यसभा प्रत्यक्ष रूप से चुना गया सदन नहीं है। क्या उसे निम्न सदन के ऊपर महत्व मिलना चाहिए। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पिछले दिनों एक साक्षात्कार में कहा कि जब एक चुने हुए सदन ने विधेयक पास कर दिए तो राज्यसभा क्यों अड़ंगे लगा रही है? उनके मुताबिक़, इस पर बहस होनी चाहिए कि संसद का ऊपरी सदन क्या सीधे चुने हुए निचले सदन से पारित विधेयकों को रोक सकता है?

दो सदनों वाले काफी देशों में यह समस्या खड़ी होती है। अमेरिका में भी यह खड़ी होती है। पर अमेरिका और भारत की व्यवस्था में बुनियादी अंतर है। भारत में संसदीय लोकतंत्र है, जिसमें प्रत्यक्ष चुने गए सदन का प्रभुत्व होता है। देखना होगा कि अड़ंगे राजनीतिक हैं या नीतिगत। इसका फैसला खुली बहस से भी हो सकता है। बात से जुड़े सभी पहलू जनता के सामने आने चाहिए। पर हमारे यहाँ सदन में विचार-विमर्श को शुरू ही नहीं होने देने की परम्परा स्थापित होती जा रही है। संसदीय बहस का ही नहीं हो पाना चिंता का विषय है।

भारत में दूसरे सदन की उपयोगिता को लेकर संविधान सभा में काफी बहस हुई थी। दो सदन वाली विधायिका का फैसला इसलिए किया गया क्योंकि इतने बड़े और विविधता वाले देश के लिए संघीय प्रणाली में ऐसा सदन जरूरी था। यह पूरी तरह प्रत्यक्ष चुनाव के सहारे गठित सदन भले ही नहीं है, पर चुना हुआ तो है। इसके चुनाव का तरीका अलग है। यह संतुलन बनाने वाला या विधेयकों पर फिर से ग़ौर करने वाला पुनरीक्षण सदन है। राज्यसभा सरकार को बना या गिरा नहीं सकती, पर लगाम रख सकती है। पर उसकी इस भूमिका में असंतुलन भी हो सकता है।

क्या हमें संसदीय व्यवस्था के लिए सांविधानिक सुधार की जरूरत है? यह बहस शीत सत्र के बाद और मुखर होगी। यह सांविधानिक समस्या जरूर है, पर लगता है कि उससे ज्यादा यह राजनीतिक अहम की समस्या बन चुकी है। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच संवाद न रहने पर कोई भी सांविधानिक व्यवस्था कारगर नहीं रहेगी। प्रतिनिधि सदनों की भूमिका व्यावहारिक राजनीति पर निर्भर करती है। हमें उसपर ध्यान देना चाहिए। दूसरे राज्यसभा यदि राज्यों का प्रतिनिधि सदन है तो यह भी देखना होगा कि उसकी सदस्यता किस प्रकार तय होती है।

राज्यसभा बड़ी संख्या में उन राजनेताओं का सदन बन गया है जो प्रत्यक्ष चुनाव नहीं जीत पाते हैं। इसमें भी कोई खामी नहीं। अक्सर संजीदा राजनेता सड़क की राजनीति में कुशल नहीं होते। सवाल है कि क्या राज्यसभा वास्तव में राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रही है? दूसरे क्या यह पैसे की ताकत से सदस्यता हासिल करने वाला सदन है? कुछ साल पहले हरियाणा के एक राजनेता ने एक कार्यक्रम में कहा, “ मुझे एक व्यक्ति ने बताया कि राज्य सभा की सीट 100 करोड़ रुपए में मिलती है। उसने बताया कि यह सीट उसे खुद 80 करोड़ रुपए में मिल गई। 20 करोड़ बच गए।”

इस बात को अतिरेक में दिया गया बयान मान भी लें, पर क्या यह तथ्य नहीं है कि इस सदन में बड़ी संख्या में उद्योगपति, व्यापारी, बिल्डर वगैरह शामिल हो रहे हैं। कुछ साल पहले दावा किया गया था कि इसके 245 में से 128 सदस्यों की पृष्ठभूमि कारोबारी थी। कारोबारी पृष्ठभूमि कोई अपराध नहीं है, पर यह तो देखना ही होगा कि इस सदन की संरचना क्या संघीय भावना को बचाए रखने में कारगर है। तमाम जरूरी बातों को कालीन के नीचे छिपाने से असलियत छिप नहीं जाएगी। यह बहस आगे बढ़ेगी।
हरिभूमि में प्रकाशित

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