Sunday, November 1, 2015

हाशिए पर जाने वाली है कांग्रेस

बिहार में चुनाव अब अंतिम दौर में है। परिणाम चाहे जो हो, उसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी के भीतर नेतृत्व को लेकर असमंजस और भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन की सम्भावनाएं इस पार या उस पार लगेंगी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सामने आ रहे हैं। ममता बनर्जी ने समर्थन किया ही है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। महागठबंधन जीता तो श्रेय किसे मिलेगा? कांग्रेस को, राहुल गांधी को या लालू और नीतीश को? बिहार से आश्चर्यजनक खबरें मिल रहीं हैं कि कांग्रेसी प्रत्याशी लालू-नीतीश की मदद चाहते हैं सोनिया-राहुल की नहीं। परिणाम आने के बाद लालू-नीतीश को अफसोस होगा कि कांग्रेस को इतनी सीटें दी ही क्यों थीं। इस परिणाम की गूँज संसद के शीत सत्र में भी सुनाई पड़ेगी।  जीएसटी, भूमि अधिग्रहण तथा आर्थिक उदारीकरण से जुड़े कानूनों की दिशा का पता भी इससे लगेगा। जब तक राज्यसभा में कांग्रेस की उपस्थिति है वह खबरों में रहेगी, पर उसके बाद?


पिछले कुछ दिनों से लगातार नरेंद्र मोदी, अमित शाह और सुशील मोदी की रैलियों की खबरें हैं। दूसरी ओर नीतीश कुमार और लालू यादव के भाषण हैं। इस जवाबी कव्वाली में कांग्रेस कहाँ है? सोनिया और राहुल कहाँ हैं? इस चुनाव अभियान के लम्बे दौर में आधे से ज्यादा समय तक राहुल गांधी अनुपस्थित रहे। उनकी रैलियाँ हुईं भी तो बेदम। जिस चुनाव को मोदी सरकार के पराभव और भाजपा-विरोधी गठबंधन की शुरूआत के रूप में देखा जा रहा है उससे कांग्रेस लगभग अनुपस्थित है। यानी गठबंधन की जीत हो भी गई तो यह कांग्रेस की जीत नहीं होगी।

अगला सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर भी कोई महागठबंधन बनेगा? ममता, नवीन पटनायक, केजरीवाल, लालू-नीतीश और मायावती या मुलायम सिंह या दोनों किसी गठबंधन में शामिल होंगे। ऐसा हुआ भी उसका नेतृत्व कौन करेगा? कांग्रेस की इसमें भूमिका नेता के रूप में होगी या जूनियर सहयोगी के रूप में? क्या संगठन के स्तर पर कांग्रेस इसके लिए तैयार है? पार्टी ने सोनिया गांधी को एक साल के लिए अध्यक्ष पद पर जारी रखने का फैसला किया है। क्या अब राहुल गांधी पार्टी का नेतृत्व करेंगे? बिहार में राहुल गांधी के साथ लालू-नीतीश मंच शेयर नहीं कर रहे हैं। ऐसे में वे भावी महागठबंधन के नेता कैसे बनेंगे?

बिहार के चुनाव के बाद अप्रैल-मई 2016 में तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और असम में चुनाव होंगे। इन चार में से केवल केरल और असम में कांग्रेस मुकाबले में है। तमिलनाडु और बंगाल के मुकाबले ये छोटे राज्य हैं। केरल में हरेक चुनाव में सरकार बदलते की परम्परा है। इस वक्त वहाँ कांग्रेसी नेतृत्व की सरकार है। अब वाम मोर्चे का नम्बर है। असम में लगातार तीन बार से कांग्रेसी सरकार है। इस बार बीजेपी मुकाबले में आना चाहती है। फिर 2017 में हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव होंगे। पंजाब में कांग्रेस कुछ उम्मीद कर सकती है। वहाँ आम आदमी पार्टी ने अच्छी पहलकदमी की है। कांग्रेस और आप क्या एक साथ आ सकते हैं? ऐसा हुआ तो क्या वहाँ भी कांग्रेस बिहार की तरह दोयम दर्जे की पार्टी नहीं रह जाएगी?

राजनीतिक प्रभाव के लिहाज से उत्तर प्रदेश और गुजरात के चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण होंगे। 2017 में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे। कांग्रेस अपने प्रत्याशी खड़े करेगी या अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर कोई रणनीति बनाएगी? यह बहुत कुछ विधानसभा चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा। उस साल राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव भी होंगे। अनुमान है कि उसके बाद राज्यसभा में कांग्रेस की बढ़त कायम नहीं रहेगी, क्योंकि इस बीच विधानसभाओं के सदस्यों की संख्या में बदलाव आ चुका है और यह जारी रहेगा। संसदीय कार्यों में राज्यसभा की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती जा रही है. इस लिहाज से वे चुनाव महत्वपूर्ण होंगे।

सन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले 2018 में जिन राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे, उन सब में कांग्रेस की परीक्षा है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक इन चारों राज्यों से में बीजेपी और कांग्रेस दोनों की इज्जत दाँव पर होगी। क्या पार्टी इसके लिए तैयार है? यह तैयारी तभी सफल होगी जब विधानसभा चुनावों में वह सफलता हासिल करे। क्या पार्टी इसके लिए तैयार है? ऐसा लगता है कि पार्टी का वरिष्ठ नेतृत्व राहुल के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य और इंदिरा गांधी के करीबी नेता माखन लाल फोतेदार की नजर में राहुल गांधी की राजनीतिक परवरिश ठीक से नहीं हुई है।

कांग्रेस को उम्मीद है कि जिस तरह से सन 1980 में इंदिरा और संजय गांधी ने कांग्रेस की राजनीति में वापसी की थी या 1984 में राजीव गांधी को जिस तरह से भारी विजय मिली थी वैसा ही अब होगा। पर फोतेदार को शक है। वे  कहते हैं, "सोनिया इंदिरा नहीं हैं और राहुल संजय नहीं।" राहुल गांधी सैद्धांतिक बातें करते हैं, पार्टी में आमूल बदलाव की उम्मीद रखते हैं, पर व्यावहारिक रूप से वे अभी तक सफल नहीं हैं। वे खास मौकों पर गायब हो जाते हैं जैसाकि इस बार बिहार के चुनाव में हुआ।

बिहार में भाजपा जीतने में सफल रही तो नरेंद्र मोदी का नेतृत्व आसानी से पूरे देश में अपनी जड़ें जमा लेगा। पर यदि सफल नहीं हुई तब नीतीश कुमार और लालू यादव राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोध की धुरी बनेंगे, राहुल-सोनिया नहीं। इसमें अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी भी शामिल होना चाहेंगे। यह एकता कब तक कायम रहेगी यह दीगर सवाल है। पर कांग्रेस का ह्रास जारी रहेगा और शायद अब उसे क्षेत्रीय पार्टियों के नेतृत्व में जाना पड़ेगा जैसाकि बिहार में हुआ।

बिहार के चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस के लिए जो भयावह स्थिति बनने वाली है उसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता देख पा रहे हैं। माखन लाल फोतेदार ने राहुल की कमजोरियों का जिक्र करके उसकी शुरूआत कर दी है। वस्तुतः कांग्रेस के पराभव का प्रस्थान बिन्दु सन 2009 के लोकसभा चुनाव में मिली सफलता थी। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उसे मनमोहन सिंह सरकार की जीत मानने के बजाय उसे राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत मान लिया। उसके बाद पार्टी ने जो भी किया वह गलत साबित होता गया। कोई जीते, कोई हारे बिहार में कांग्रेस को कुछ नहीं मिलने वाला।

हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. आप का विश्लेषण बहुत ही सटीक है , पूर्व अनुमानों से तो लग रहा था कि भा ज पा गठबंधन शायद बढ़त बना लेगा लेकिन भागवत के बयान ने भा ज पा को बैकफुट पर ला दिया है , और मोदी व शाह के भरसक प्रयासों के बावजूद भा ज पा क्षति पूर्ति कर सकेगी इसमें संदेह है। भागवत के बयान का लालू व नितीश ने बहुत प्रचार कर जनमत का रुख अपनी और मोड़ने में सफलता हासिल की है। कांग्रेस तो कहीं भी कुछ हासिल कर सकेगी इसमें संदेह है , उसे तो अपने पारम्परिक वोट मिलने हैं , लेकिन उनकी संख्या अब काफी कम रह गयी है,भा ज पा को वहां ही लाभ मिल सकता है वरना तो लालू व नीतीश अंदर ही अंदर राहुल को साथ ले कर पछता ही रहे हैं ,
    यदि भा ज पा बिहार का चुनाव हार गयी तो केंद्र में एक बार फिर कांग्रेस इन क्षेत्रीय दलों को साथ ले कर हंगामा करने के लिए मैदान में आ जाएगी व मोदी के लिए शेष कार्यकाल में परेशानियां और भी बढ़ जाएँगी। राहुल का खोता सिक्का एक बार फिर डेढ़ दो साल चलाने की अंतिम कोशिश की जाएगी ,लेकिन न चलने पर किसी नए विकल्प की तलाश होगी वह सोनिया खुद हो सकती है या फिर प्रियंका क्यंकि अन्य विकल्प की तो बेचारे कांग्रेसी सोच भी नहीं सकते
    यह भी निश्चित है कि मोदी नहीं तो नेतृत्व का संकट दोनों ही तरफ रहेगा , ममता,मुलायम, केजरीवाल नीतीश किसी पर भी दांव खेलना देश की जनता को भारी पड़ जायेगा क्योंकि सत्ता के बाहर जाने पर भा ज पा भी आज की कांग्रेस की तरह शान्त नहीं बैठेगी

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