Sunday, March 15, 2015

‘आप’ का जादू भी हवा हो सकता है


आम आदमी पार्टी को लेकर फिलहाल सवाल यह नहीं है कि वह अपने नेताओं के मतभेदों को किस प्रकार सुलझाएगी। बल्कि यह है कि वह भविष्य में किस प्रकार की राजनीति करेगी। दिल्ली में उसकी सफलता का जो फॉर्मूला है क्या वही बाकी जगह लागू होगा? वह व्यक्ति आधारित पार्टी है या विचार आधारित राजनीति की प्रवर्तक? अरविन्द केजरीवाल व्यक्तिगत आचरण के कारण लोकप्रिय हुए हैं या उनके पास कोई राजनीतिक योजना है? बहरहाल देखना यह है कि पार्टी अपने वर्तमान संकट से किस प्रकार बाहर निकलेगी। सुनाई पड़ रहा है कि 28 मार्च को राष्ट्रीय परिषद की बैठक में ‘बागियों’ को पार्टी से निकाला जाएगा।

अभी तक पार्टी का विभाजन नहीं हुआ है। क्या विभाजन होगा? हुआ तो किस आधार पर? और टला तो उसका फॉर्मूला क्या होगा? और क्या भविष्य में फिर टकराव नहीं होगा? ‘आप’ के विफल होने पर बड़ा धक्का कई लोगों को लगेगा। उनको भी जिन्होंने उसमें नरेंद्र मोदी के उभार के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति की आहट सुनी थी। दूसरे राज्यों में उसके विस्तार की सम्भावनाओं को भी ठेस लगेगी। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि व्यावहारिक राजनीति के लिए ऐसे बहुत से काम करने पड़ते हैं, जो खुले में अटपटे लगते हैं। जैसे कि राष्ट्रपति शासन के दौरान दिल्ली में सरकार बनाने की कोशिश करना। या मुस्लिम सीटों के बारे में फैसले करना। आम आदमी पार्टी से लोग इन बातों की उम्मीद नहीं करते थे। इसलिए कि उसने अपनी बेहद पवित्र छवि बनाई थी। इन अंतर्विरोधों से पार्टी बाहर कैसे निकलेगी?

आम आदमी पार्टी क्या है? भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली राजनीति। पर भ्रष्टाचार विरोध एक सामान्य विचार है। वामपंथी या दक्षिणपंथी राजनीति दोनों के साथ उसकी पटरी बैठ सकती है। यह प्रशासनिक सुधार का मामला है किसी दीर्घकालिक राजनीति का सवाल नहीं है। दीर्घकालीन आर्थिक-राजनीतिक नीतियाँ एक सोच की जरूरत को रेखांकित करती हैं। इसमें शामिल नौजवान किसी जमाने में जय प्रकाश आंदोलन में शामिल नौजवानों से कुछ अलग हैं। उनमें आईटी क्रांति के नए ‘टेकी’ हैं, अमेरिका में काम करने वाले एनआरआई हैं, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद और मुम्बई के नए प्रोफेशनल। काम-काजी लड़कियाँ और गृहणियाँ भी। और गाँवों और कस्बों के अपवार्ड मूविंग नौजवान। सत्तर के दशक में भारत के नौजवानों के मन में समाजवाद का जो रोमांच था, वह आज नहीं है।

आम आदमी पार्टी की राजनीतिक अवधारणा क्या है? पार्टी का ‘स्वराज’ नाम का दस्तावेज विचारधारा के प्रति विश्वास नहीं जगाता। अरविंद केजरीवाल मोटे तौर पर मध्यवर्गीय शहरी समाज के सवालों को उठाते हैं। समय के साथ इसमें उन्होंने साम्प्रदायिकता से जुड़े सवालों को जोड़ लिया। पार्टी में तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं। एक हैं गांधीवादी, दूसरी समाजवादी और तीसरी पश्चिमी उदारवादी। पार्टी इन तीनों को जोड़ना चाहती है। व्यक्तिगत रूप से गांधी, जेपी और लोहिया के समर्थक इस पार्टी में शामिल हैं। संयोग से तीनों आंदोलनकारी नेता रहे। तीनों ने सत्ता में कभी हिस्सेदारी नहीं की।

केजरीवाल और उनके समर्थकों ने जब सत्ता की राजनीति में शामिल होने का निश्चय किया था तब उन्हें इसके व्यावहारिक पक्ष के बारे में भी सोचना चाहिए था। ऐसा सोचा नहीं गया और दिसम्बर 2013 से फरवरी 2015 तक इस नासमझी को रेखांकित करने वाले मौके कई बार आए और अभी आएंगे। विधायकों का जोड़-तोड़ सत्ता की राजनीति के लिए नई बात नहीं है। पर जब ‘आप’ भी ऐसा जोड़-तोड़ करती है तब उसके समर्थक को यह विस्मयकारी लगता है। पार्टी ने अपनी अलौकिक छवि बनाई थी जिसे अब उसे ही ढोना है। उसके कर्ता-धर्ता सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। कैसे कहा जा सकता है कि वे परम्परागत लोभ-लालच के कारण राजनीति में नहीं आए हैं।

दिल्ली में सरकार बनाने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप लगने के बाद पार्टी की राजनीति पर बदनामी के छींटे पार्टी के परम्परागत विरोधियों ने नहीं भूतपूर्व सहयोगियों ने डाले हैं, जो कुछ दिन पहले तक दोस्त थे। आरोपों के इस दौर के बाद अब उन्हें ‘सहयोगी’ कहना अनुचित होगा। युद्ध के नगाड़े बज चुके हैं। पार्टी पर पिछले कुछ महीनों में कई तरह की तोहमतें लगीं हैं, पर बुधवार को लगी आरोपों की झड़ी अभूतपूर्व थी।

बुधवार को एक ऑडियो रिकॉर्डिंग जारी करके आरोप लगाया गया कि राष्ट्रपति शासन के दौरान सरकार बनाने के लिए केजरीवाल कांग्रेस में तोड़फोड़ करना चाहते थे। यह टेप ही काफी नहीं था। इसके बाद योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की चिट्ठी की चिट्ठी जारी हुआ, जिसमें सफाई कम आरोप ज्यादा थे। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को राजनीतिक समिति से जिस तरह निकाला गया और उसके बाद यह मसला खिंचकर जिस मोड़ पर आ गया है उससे नेताओं का जो भी बने इसके समर्थकों का मोहभंग ज़रूर होगा। दोनों तरफ के आरोपों ने पार्टी की कलई उतार दी है। लोकतांत्रिक मूल्य-मर्यादाओं की स्थापना का दावा करने वाली पार्टी संकीर्ण मसलों में उलझ गई। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने पार्टी की रीति-नीति को निशाना बनाया है, पर मामला इतना ही नहीं लगता। इसमें कहीं न कहीं व्यक्तिगत स्वार्थ और अहम का टकराव है।

यह तुर्की-ब-तुर्की बहस स्वस्थ आत्ममंथन नहीं है। इस झगड़े के बाद पार्टी में अरविंद केजरीवाल का वर्चस्व जरूर कायम हो जाएगा, पर गुणात्मक रूप से पार्टी को ठेस लग चुकी है। मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण के दिन ही पार्टी की धड़ेबाज़ी सामने आ गई थी। सिद्धांत और व्यवहार में ‘आप’ और उससे जुड़े लोगों का आचरण कांग्रेस और भाजपा की सियासत से किसी तरह से अलग नहीं लगता। पार्टी के सामने संरचना को लोकतांत्रिक बनाने का भी मौका था। उसने मौका खो दिया। यह पूरी राजनीति स्वांग साबित हुई।

वोटर ने दिल्ली में पार्टी की सरकार को बगैर किसी डर के पाँच साल तक काम करने का मौका दिया है। पर 70 में 67 का अभूतपूर्व बहुमत पार्टी के लिए खतरनाक है। राजनीति में ‘नए’ शामिल हुए इन जन-प्रतिनिधियों में कई किस्म की मनोकामनाएं हैं। सत्ता से जुड़ी मनोकामनाएं। इन विपरीत मनोकामनाओं को समझना और उन्हें पूरा करना बड़ी चुनौती है। अब सवाल यह है कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला यह जादू क्या इस विवाद के बाद भी देश के सिर पर चढ़कर बोलेगा? या उसी तेजी से छूमंतर हो जाएगा, जिस तेजी से जन्मा था?
हरिभूमि में प्रकाशित
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
                           

3 comments:

  1. 'आप का मुलम्मा अब उतरने लगा है और सही रूप सामने आ रहा है , कुछ दिन में यह कलई बिलकुल उतर जाएगी और पीतल सामने आ जायेगा। केजरीवाल भी अन्य नेताओं के सदृश्य शातिर, घाघ , व बहरूपिये निकले अब उनका भी वास्तविक रूप स्वरुप निखर आया है जनता को किये वादे भी कुछ दिन में धूल धूसरित हो जायेंगे क्योंकि अब महीना भर हो चुका है व जनता बेसब्री से इन्तजार कर रही है 21 संसदीय सचिव बना जनता पर बोझ लाद दिया है , 67 में से 41 विधायक कुर्सी पा चुके हैं शेष 26 को भी कुछ और पद नवाज दिए जायेंगे तब योजनाबद्ध लूटपाट का सिलसिला शुरू होगा यह सरकार कितने दिन चलेगी पता नहीं लेकिन इसके बाद आने वाली सरकार को खजाने में कुछ नहीं मिलेगा यह बिलकुल केजरीवाल की आका कांग्रेस पार्टी की सरकार के पदचिन्हों का अनुसरण होगा ,देखते रहिये दिल्ली वालों फिल्म शुरू हो गयी है और इसका अंत भी आपको पता ही है

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  2. मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से बिलकुल साफ़ छवि के व्यक्ति हैं , लेकिन उनकी पार्टी ने चंदा ले जो कार्य करवाये वे उनके लिए सरदर्द बन जायेंगे वास्तव में मनमोहन सिंह को जिस प्रकार सोनिया व उनकी मंडली ने जिस प्रकार मोहरा बनाया उस से वे अनभिज्ञ रहे और वे सब तो एक और जा कर बैठ गए पर इनके गले में घंटी बंध गयी है। अब चाहे मोदी सरकार को कांग्रेस कितना ही कोसे लेकिन यह फांस एक बार तो बदनामी की वजह बन ही गयी भला कोयले की कालिख इतनी आसानी से साफ़ थोड़े ही न होती है यदि वे आरोप मुक्त हो भी गए तो भी एक बार की बदनामी पार्टी के लिए तो सबक होगी ही , देखो क्या होता है क्योंकि मनमोहन सिंह ने कम से कम व्यक्तिगत लाभ तो इस से नहीं पाया है यह निश्चित है , पर सोनिया या पार्टी ने कितना कमाया इसका अंदाज नहीं व पता चलेगा भी नहीं अमूमन इस प्रकार के मुकदमों में गबन राशि तो कभी वापिस मिलती नहीं सिवाय सजा के इसलिए देश को हुए नुक्सान की क्षतिपूर्ति कभी नहीं होती हां मुकदमेबाजी में समय धन व शक्ति का जरूर अपव्यय जरूर होता है

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  3. आप में अभी कुछ समझा बुझा कर एक बार तो इस ज्वार को ठंडा कर दिया जायेगा लेकिन यह तो हर पूर्णमासी पर खतरा मँडराता ही रहेगा योगेन्द्र यादव को तो केजरीवाल मन लेंगे लेकिन प्रशांत भूषण को मनाना व मनाये रखना ज्यादा सम्भव नहीं है अब आप की कार्य शैली व सफलताएं ही उसका भविष्य तय करेंगी,आखिर कब तक जनता को भुलावे में रख पाएंगे इधर पंजाब में सफलता का मुहं धोने वाली इस पार्टी को दिल्ली में कुछ विशेष ही करके दिखाना होगा। फूट पड़ने पर तो सफाया होना तय ही है क्योंकि केजरीवाल के अलावा कोई अन्य नेता दूसरे राज्यों में प्रभाव नहीं रखता अब केजरीवाल को हर कदम फूंक फूंक कर रखना होगा क्योकि स्वार्थ वश जुड़ा यह कुनबा कभी भी विघटित हो सकता है महत्वकाँक्षाएँ केवल केजरीवाल की अकेले की ही नहीं है आखिर दूसरे नेता भी अपने अपने राज्यों में सी एम का ख्वाब देख रहे हैं और केजरीवाल इसके खिलाफ हैं

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