Saturday, March 28, 2015

कांग्रेस का ‘मेक-ओवर’ मंत्र

दो महीने बाद जब नरेंद्र मोदी सरकार एक साल पूरा करेगी तब कांग्रेस पार्टी की विपक्ष के रूप में भूमिका का एक साल भी पूरा होगा। उस वक्त दोनों भूमिकाओं की तुलना करने का मौका भी होगा। फिलहाल कांग्रेस मेक-ओवर मोड में है। वह अपनी शक्लो-सूरत बदल रही है। सबसे ताजा उदाहरण है उसके प्रवक्ताओं और मीडिया पैनलिस्ट की सूची, जिसमें भारी संख्या में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बाल-बच्चे शामिल हैं। युवा और वैल कनेक्टेड शहरी। साथ में राहुल गांधी के करीबी। पार्टी के मेक-ओवर का यह नया मंत्र है। और राजनीतिक दर्शन माने फॉर्मूला है किसान, गाँव और गरीब। देश की ज्यादातर पार्टियों का सक्सेस मंत्र यही है।
बीजेपी और कांग्रेस के रास्ते अलग-अलग हैं। नरेंद्र मोदी ने अपवार्ड मोबाइल जेनरेशन को विकास का सपना दिखाया है। साथ ही कहा है कि किसान का हित भी इसमें है कि वह अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचे। कांग्रेस इस अंतर्विरोध का तोड़ खोज पाती है या नहीं इसे देखने की जरूरत है। सवाल है कौन इस देश की मनोदशा को बेहतर तरीके से पढ़ पा रहा है।

संगठन, संसद और सड़क
कांग्रेस की भूमिका को समझने के लिए हमें तीन सतह पर उसकी परीक्षा करनी होगी। पहली है संगठन के स्तर पर, दूसरी राजनीतिक स्तर पर यानी कि संसद के बाहर और भीतर की भूमिका। और तीसरे चुनाव में सफलता या विफलता। अंततः उसके साथ जुड़ने वाला कार्यकर्ता निकट या सुदूर भविष्य में अपने हितों को देखकर ही उसके साथ जुड़ना चाहेगा। आज की राजनीति में कार्यकर्ता वैचारिक आधार पर नहीं इनाम-इकराम के आधार पर जुड़ता है। कांग्रेस का नेतृत्व पिछले कुछ दिन से खासा आक्रामक है। यह आक्रामकता संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह है। सबसे महत्वपूर्ण है सोनिया गांधी का सड़क पर उतरना। यह पहला मौका है जब सोनिया गांधी सड़क पर उतरी हैं। केवल सड़क पर ही नहीं सामने आकर नेतृत्व कर रही हैं। देखना है कि यह सड़क केवल दिल्ली में ही घूमकर रह जाती है या देश के गाँवों और कस्बों तक भी जाती है या नहीं।

आक्रामकता के स्वाभाविक कारण हैं। कांग्रेस को अब कुछ करना होगा। पिछले दिसम्बर में जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भी पराजय का सामना करने के बाद पार्टी के पास हताश होने के कारणों की सूची लम्बी हो गई है। अपने इतिहास में पार्टी सबसे ज्यादा संकट से घिरी नजर आती है। उसे किसी न किसी दिशा में आक्रामक होना है। पर सोनिया क्यों, राहुल क्यों नहीं? लगता है पार्टी ने संगठन के स्तर पर कोई प्लान बी तैयार किया है। इसका जवाब समय देगा। फिलहाल सोनिया गांधी के हाथों में ही कमान है। इसके कारण पुराने नेताओं की हताशा रुक गई है।

दबाव में भाजपा
संयोग है कि कांग्रेस की आक्रामकता के बरक्स भाजपा दबाव में हैं। भूमि अधिग्रहण बिल पर राज्यसभा में उसे मुँह की खानी पानी पड़ी है। संसद के बजट सत्र के पहले दौर में कांग्रेस ने सदन के भीतर भाजपा को मौका नहीं दिया है। दूसरी ओर आम आदमी पार्टी भी अपने अंतर्विरोधों से घिरी है। कांग्रेस की जमीन इन दोनों ने ही छीनी है। कुछ लोग मानते हैं कि कोयला मामले में मनमोहन सिंह के घिरने से सोनिया गांधी या कांग्रेस का नेतृत्व घिर गया है। बल्कि लगता यह है कि कोयला मामले में मनमोहन सिंह के घिरने से कांग्रेस को उबरने में मदद मिलेगी। लगभग उसी तरह जैसे शाह आयोग के कारण इंदिरा गांधी को उबरने का मौका मिला था।
जिस मामले में मनमोहन सिंह को अभियुक्त बनाया गया है, उसके लिए आग्रह सीबीआई का नहीं था। सरकार की इच्छा होती तो वह सीबीआई के मार्फत दबाव बनाती। पर मनमोहन सिंह को अदालत ने अभियुक्त बनाया है। अदालती समन जारी होने के बाद सोनिया गांधी ने 24 अकबर रोड से मनमोहन सिंह के मोती लाल नेहरू मार्ग तक जो मार्च निकाला वह कई मानों में अभूतपूर्व था।

कांग्रेस ने इसका दो तरह से फायदा उठाने की कोशिश की है। एक तो उन्हें आशा है कि मनमोहन सिंह साफ बच निकलेंगे और पार्टी को इसका फायदा मिलेगा। दूसरे इसे लेकर सरकार को घेरा जा सकता है। पार्टी ने सरकार पर ‘जानबूझकर खामोशी’ बरतने का आरोप लगाया। अंततः फैसला अदालत को करना है, पर यदि मनमोहन सिंह आरोप मुक्त हुए तो कांग्रेस को घोटालों से जुड़े दूसरे मामलों से भी सांकेतिक मुक्ति मिल जाएगी। एक तरह से कांग्रेस को यह बेहतरीन मौका मिला है जिसका पूरा लाभ वह उठाना चाहती है। सोनिया गांधी की आक्रामकता के पीछे बड़ा कारण यही नजर आता है। 

सेक्युलर ताकतों का नेतृत्व
सोनिया गांधी किसी योजना के साथ सामने आईं हैं। वे ‘सेक्युलर’ ताकतों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहीं हैं। भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर विरोधी एकता कायम करने में वे सफल भी हुईं हैं। पर यह एकता उतनी तन्दुरुस्त नहीं है जैसी पहली नजर में दिखाई पड़ी थी। संसद में खान और उर्वरक विधेयक पर राज्यसभा में कांग्रेसी रणनीति काम नहीं कर पाई, क्योंकि राज्य सरकारों को कानून पास करने में फायदा दिखाई पड़ा। इसी तरह चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्य सरकारों के पास संसाधन बढ़ने वाले हैं जिसके कारण राज्य सरकारें उत्साहित हैं।
भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मानों में प्रभावशाली था, पर इसमें विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियाँ शामिल नहीं थीं। तीनों विपक्ष की सबसे ताकतवर पार्टियाँ हैं। अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और बसपा की अनुपस्थिति को भी समझने की जरूरत है।

सवाल राहुल का?
संगठनात्मक स्तर पर पार्टी के लिए यह महत्वपूर्ण समय है। घोषित कार्यक्रम के अनुसार अप्रैल में नेतृत्व में बदलाव होना है। क्या सोनिया गांधी की जगह राहुल गांधी अध्यक्ष बनेंगे? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर मिलने का समय करीब आता जा रहा है। पर सबसे बड़ा सवाल राहुल की अनुपस्थिति का है। वे कहाँ हैं? जिस वक्त संसद में पार्टी ने सरकार को अर्दब में पहुँचा दिया है वे गायब क्यों हैं? इसमें दो राय नहीं कि नेता राहुल ही रहेंगे, पर किसी नए फॉर्मूले के साथ। इसके अलावा पार्टी अपनी छवि को बेहतर बनाए रखना चाहती है ताकि कार्यकर्ता साथ में बना रहे। पर सच यह है कि पार्टी की नई सदस्यता के लिए उत्साह नहीं है।

असली चुनौती है चुनाव में सफल होना। बिहार में इस साल और असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में अगले साल चुनाव होने हैं। इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर की बारी है। अभी तक तो कांग्रेस का भविष्य उज्ज्वल नहीं लगता। भाजपा को केंद्र से सन 2019 में हटाना है तो उसके पहले पार्टी को सफलता हासिल करनी होगी। क्या वह गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पाँसा पलट सकती है? सन 2014 के लोकसभा चुनाव के दो साल पहले से कांग्रेस ने हारना शुरू कर दिया था। उसे यदि वापसी करनी है तो 2017 के चुनावों से उसे सफल होना होगा। संसद के बजट अधिवेशन का आधा समय अभी बाकी है। सम्भव है पार्टी इस दौरान अपनी आक्रामक छवि को और बढ़ाकर पेश करे, पर इससे क्या होगा? वोटर देखना चाहेगा कि पार्टी हमारे लिए क्या करने जा रही है। असली जरूरत है संगठन को बचाना और भविष्य में चुनाव जीतना।


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