Sunday, March 8, 2015

अनुचित है फिल्म पर रोक लगाना

दिल्ली रेप कांड पर लेज़्ली उडविन की डॉक्यूमेंट्री 'इंडियाज़ डॉटर' में दिखाई गई सामग्री, उसकी उपयोगिता, निरर्थकता और दुष्प्रभाव को लेकर तमाम तरह की धारणाएं हैं। उनपर विमर्श किया जाना चाहिए, पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या इसके प्रदर्शन पर रोक लगनी चाहिए? वह भी इस जमाने में जब इंटरनेट पर किसी चीज के वायरल होने में सेकंड भी नहीं लगते हैं। इस फिल्म के साथ भी यह हुआ। सरकारी पाबंदी के बावजूद बीबीसी ने इस फिल्म को जारी कर दिया और देखते ही देखते यह फिल्म इंटरनेट पर जारी हो गई और लाखों लोगों ने इसे देख लिया। लोग अब पूछ रहे हैं कि इसमें ऐसा क्या था जिसके कारण इसपर पाबंदी लगाई गई। बहरहाल सरकार अपने रुख पर कायम है और यूट्यूब के प्रमुख यूजर्स के एकाउंट से फिल्म को हटवा दिया गया है। पर न जाने कितने लोगों ने इस फिल्म को डाउनलोड कर लिया है और वे यूट्यूब और इसी किस्म की दूसरी साइट्स पर इस फिल्म को अपलोड कर रहे हैं।
फिल्म को लेकर कई सवाल एक साथ उठे हैं जो इस प्रकार हैं:-
· क्या यह फिल्म भारत की छवि को खराब करती है?
· क्या इसे तैयार करते वक्त भारतीय जेल नियमों का पालन किया गया?· क्या बलात्कार के दोषी मुकेश सिंह को मंच देना उचित था? यह मामला अभी न्यायालय के विचाराधीन है। ऐसे में इसका प्रदर्शन अदालती निर्णय को प्रभावित कर सकता है।
· इस फिल्म में पीड़िता की पहचान की गई है। नियमानुसार और नैतिकता के तकाजे से भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए था।· यह फिल्म व्यावसायिक लाभ के लिए नहीं बनाई गई थी, पर इसका व्यावसायिक लाभ लिया जा रहा है।
· यह भी लगता है कि इस फिल्म के प्रदर्शन के विरोध के पीछे दो मीडिया हाउसों की प्रतिस्पर्धा है। एक मीडिया हाउस इसका प्रसारण करने जा रहा था कि दूसरे ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया और सरकार उसके दबाव में आ गई। कुछ मीडिया हाउसों की भूमिका विस्मयकारी है। वेअभिव्यक्ति पर रोक वाले पक्ष को देख ही नहीं पा रहे हैं।




फिल्म की काफी लोगों ने तारीफ की है। पर कुछ प्रबुद्ध लोगों ने यह भी माना है कि यह फिल्म बलात्कार के मूल में छिपी मनोदशा पर रोशनी नहीं डाल पाई है। केवल निर्भया मामले से उपजी सनसनी का फायदा इसमें उठाया गया है। इसके विपरीत बहुत से लोगों का मानना है कि यह बलात्कारियों के प्रति दर्शक के मन में नाराजगी पैदा करती है। यह भी पता लगता है कि केवल बलात्कारी के विचार ही नहीं उनके वकीलों के विचार भी कुत्सित हैं। इस तरह से यह स्त्रियों के प्रति हमदर्दी पैदा करने और अपराधियों के प्रति नफरत पैदा करने का काम करती है। साथ ही हमारी न्याय-व्यवस्था की प्रभाव हीनता पर रोशनी डालती है।

जिस वक्त इस फिल्म को लेकर चर्चा चल ही रही थी तभी नगालैंड से खबर आई कि दीमापुर में भीड़ ने दीमापुर सेंट्रल जेल से दुष्कर्म के एक आरोपी को ज़बरदस्ती बाहर निकाला और पीट-पीट कर मार डाला। हिंसक भीड़ ने दस वाहनों को भी फूंक दिया। इसके कारण शहर में कर्फ़्यू लगा दिया गया। इस खबर का इशारा इस बात पर है कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है। दो साल पहले नागपुर में भीड़ ने लड़कियों को छेड़ने वाले तीन लोगों को पीट-पीटकर मार डाला था। उसके कई साल पहले नागपुर में ही कुछ वर्ष पूर्व नागपुर में एक बलात्कारी को महिलाओं के दल ने ही पीट-पीटकर मार डाला था। इस तरह की खबरें कई जगह से मिल रहीं हैं। भीड़तंत्र का खतरा भयावह रूप से हमारे सिर पर मंडरा रहा है। क्या यह मीडिया की अतिशय नकारात्मक कवरेज का परिणाम है? भीड़ की इस कार्रवाई का समर्थन नहीं किया जा सकता। इस स्थिति के लिए व्यवस्था की सुस्ती जिम्मेदार है वहीं हमारी यह समझ भी जिम्मेदार है कि सब चोर हैं। कोई कुछ नहीं कर रहा है।

यह पहला मौका नहीं है जब किसी अपराधी का इंटरव्यू किया गया हो। उनकी मनोदशा का अध्ययन करने के लिए भी ऐसे इंटरव्यू की जरूरत होती है। बीबीसी के पत्रकार जुबैर अहमद ने लिखा है कि किरण बेदी जब तिहाड़ की जेलर थीं तब उन्होंने मुझे खुद जेल बुलाकर कई कैदियों से मिलवाया था। उन्होंने लिखा है कि नब्बे के दशक में बॉर्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स प्रमुख के अनंतचारी से इजाज़त लेकर कश्मीर की वादी के क़ैदख़ानों में कई कश्मीरी अभियुक्तों के इंटरव्यू किए थे। अफ़ज़ल गुरु ने 2006 में कारवां पत्रिका को तिहाड़ जेल में एक घंटे का इंटरव्यू दिया था। कारवां मैगज़ीन ने ही समझौता एक्सप्रेस और मक्का मस्जिद बम विस्फोट मामलों के अभियुक्त स्वामी असीमानंद का अम्बाला सेंट्रल जेल में दो साल में चार बार इंटरव्यू किया था। वे केवल अभियुक्त थे, इसके बावजूद अधिकारियों ने इस मैगज़ीन को चार बार स्वामी असीमानंद का इंटरव्यू करने की इजाज़त दी।

30 जनवरी 1982 को रंगा और बिल्ला को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी। उसके पहले पत्रकार प्रभा दत्त ने सुप्रीम कोर्ट से दोनों दोषियों का इंटरव्यू करने की इजाज़त मांगी थी। चीफ जस्टिस वाई चंद्रचूड़ ने इसकी इजाज़त दे दी थी। तमिलनाडु में ऑटो शंकर को रेप और हत्या के कई मामलों में मौत की सजा सुनाई गई थी। जेल में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी थी। उनकी आत्मकथा को तमिल साप्ताहिक पत्रिका 'नक्कीरन' छापना चाहती थी लेकिन प्रशासन इसे रोक रहा था। पत्रिका ने सुप्रीम कोर्ट से इजाज़त लेकर इसे छापा। अदालत ने कहा कि इसके प्रकाशन को रोकना 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' पर प्रहार है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को समझना होगा। हमारा काम जनता को जानकारी देना, सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा करना और व्यवस्था को आसन्न खतरों के प्रति सजग करना भी है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने कहा है कि 'इंडियाज़ डॉटर' पर लगी रोक पूरी तरह से ग़लत है। यह कहना भी ग़लत है कि यह विषय अदालत के पास विचाराधीन है और दोषी करार दिए गए लोग इस फ़िल्म का इस्तेमाल अपने हित में कर लेंगे या पीड़िता के माता-पिता की संवेदनशीलता पर चोट कर सकता है। क्या वजह है कि हम अपने यहाँ बात-बात पर किताबों, फिल्मों और सृजनात्मकता पर पाबंदियाँ लगते देखते हैं? यह खतरनाक बात है। एक ओर हम अपने आप को आधुनिक, संवेदनशील और सहिष्णु समाज मानते हैं वहीं एक अभिव्यक्ति को सामने आने से रोकने का समर्थन करते हैं। यह गलत है।हरिभूमि में प्रकाशित

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