अरुण जेटली के बजट को आर्थिक उदारीकरण और टैक्स प्रणाली के
सुधार और राजकोषीय घाटे को काबू में लाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए। इसका
उद्देश्य अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाना है। इस बार की आर्थिक
समीक्षा में आशा व्यक्त की गई है कि अगले कुछ वर्ष में विकास दर 10 फीसदी के स्तर
से ऊपर भी जा सकती है। यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह दुनिया की सबसे तेज
अर्थ-व्यवस्था बन जाएगी। उस स्तर पर आने के पहले हमारी आंतरिक व्यवस्थाएं इतनी
पुख्ता होनी चाहिए कि वे किसी वैश्विक दुर्घटना की स्थिति में बड़े से बड़े झटके को बर्दाश्त कर सके।
हमें केवल इनकम टैक्स और उपभोक्ता सामग्री के सस्ता या
महंगा होने पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए। आम बजट केवल इतने भर के लिए नहीं होता। वह
देश की वृहत आर्थिक तस्वीर (मैक्रो इकोनॉमिक पिक्चर) को भी पेश करता है। इस बार का
बजट इसी लिहाज से देखा जाना चाहिए। महत्वपूर्ण है उदारीकरण की दिशा को समझना जो
रोजगार पैदा करने, आधार ढाँचे को बनाने और आर्थिक संरचना को परिभाषित करने का काम करेगी।
कुछ लोग इसे कॉरपोरेट सेक्टर को फायदा पहुँचाने वाला बजट मान रहे हैं, जबकि बजट
घोषणाओं के बाद शेयर बाजार में गिरावट आने लगी। दिन में कई उतार-चढ़ाव देखने के बाद शेयर बाजार मामूली बढ़त के साथ बंद हुआ। इससे समझ में आता है कि कॉरपोरेट सेक्टर भी
इसका मतलब समझने की कोशिश कर रहा है। बहरहाल यह बजट देशी-विदेशी निवेशकों को स्थिर, विश्वसनीय और
निष्पक्ष टैक्स प्रणाली मुहैया कराने की कोशिश करता नजर आता है।
इस साल जनवरी में दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में वित्त
मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि सुधार प्रक्रिया और अन्य नीतिगत पहलों का कुल असर
बिग-बैंग से भी बढ़कर होगा। उनके बजट से बिग बैंग सुधारों की आशा थी, पर ऐसा हुआ
नहीं। बजट के एक दिन पहले पेश किए गए आर्थिक सर्वे के अनुसार भारत में फिलहाल बड़े
आर्थिक सुधारों के लिए न तो माहौल है और न ही जरूरत। फिलहाल अर्थ-व्यवस्था में
सरलीकरण की प्रक्रिया चल रही है।
सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स 30 से घटाकर 25 फीसदी करने की
घोषणा की है। पर वास्तव में यह घटा नहीं बढ़ा है। पिछली सरकारों ने 30 फीसदी
कॉरपोरेट टैक्स में कई किस्म की छूटें दी थीं। इससे व्यावहारिक रूप से बड़ी
कम्पनियाँ 19 से 22 फीसदी टैक्स दे रहीं थीं। अब अगले चार साल में ये छूट खत्म हो
जाएंगी, जिसके बाद वे 25 फीसदी टैक्स देंगी। इसी तरह वैल्थ टैक्स तो खत्म किया
गया, पर एक करोड़ रुपए से ऊपर की आय वाले व्यक्तियों पर दो फीसदी सरचार्ज बढ़ा
दिया है। इसी तरह काले धन को रोकने के लिए नकद लेन देन को हतोत्साहित किया जाएगा। डैबिट कार्ड और क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल
बढ़ाया जाएगा।
वित्तमंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र के बीमार उद्योगों को
बेचने की घोषणा करके दो काम एक साथ किए हैं। इससे सरकार के पास कुछ पैसा आएगा साथ
ही जो उद्योग चलाए जा सकते हैं उनके माध्यम से आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ाई जा सकेंगी।
एक तरह से इन उद्योगों में पूँजी और मशीनरी फँसी हुई है। उनमें कुछ और रकम लगाकर
और उच्चतर तकनीक का सहारा लेकर उद्योग का उद्धार किया जा सके तो भला होगा। इस काम
के लिए देनदारियों की जिम्मेदारी सरकार को लेनी होगी, जो काफी बड़ी हो चुकी है। इसी
तरह दिवालिया घोषित करने का कानून बैंकों की फँसी पूँजी को बाहर निकालने में मदद
करेगा। राष्ट्रीय निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर फंड की घोषणा करके अर्थ-व्यवस्था के
आधार ढाँचे के विकास से अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है। सड़क और रेल परियोजनाओं के
लिए कर मुक्त इंफ्रास्ट्रक्चर बांड पेश किया जाएगा। इस क्षेत्र में भारी पूँजी
निवेश की जरूरत है।
अर्थव्यवस्था के दो और क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ अनुशासन और
सरलीकरण की जरूरत है। एक है राजकोषीय घाटे को काबू में करना। और दूसरा है कर
प्रणाली को सरल और प्रभावशाली बनाना। आयकर के दायरे में अब भी काफी बड़ी संख्या
में लोग नहीं आ पाए हैं। इसी तरह हमारा कर राजस्व आज भी जीडीपी की तुलना में काफी
कम है। भारत में जीडीपी का दस फीसदी से कुछ ज्यादा कर राजस्व मिलता है, जो बढ़ाया जा सकता
है। इसे 20 फीसदी के आसपास होना चाहिए। भारत सरकार दुनिया में सबसे कम टैक्स वसूल
पाने वाले देशों में है। इसका कारण यह भी है कि हम टैक्स देने वालों को पूरी तरह
कर ढाँचे के भीतर नहीं ला पाए हैं। इसके लिए प्रशासनिक कुशलता के साथ-साथ कुछ
कानूनी सुधारों की जरूरत भी है।
वित्तमंत्री ने सन 2016 में गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी)
लागू करने का इरादा जाहिर किया है। जीएसटी लागू होने के बाद कंपनियों को मिलने
वाली कई किस्म की छूटें खत्म हो जाएंगी। सभी कंपनियों के बीच समान प्रतिस्पर्धा होगी।
यह काम आर्थिक उदारीकरण का हिस्सा है। इसी तरह डायरेक्ट टैक्स कोड बनना और लागू
होना भी जरूरी है। यह कोड अब तक लागू हो जाना चाहिए था। राजनीतिक कारणों से यह काम
अभी तक नहीं हो पाया है।
वित्तमंत्री ने चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को
जीडीपी के 4.1 फीसदी के स्तर पर रखने की घोषणा की है। यह पूर्व निर्धारित लक्ष्य है
जो पिछले बजट में तय किया गया था, पर उसे अव्यावहारिक माना जा रहा था। अब यह सम्भव
लगता है। वित्तमंत्री ने माध्यमिक अवधि के लिए पहले से निर्धारित 3.00 फीसदी के
स्तर को भी हासिल करने की घोषणा की है। पर उसके लिए बजाय दो के तीन साल लगेंगे।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि देश को अगले एक-दो साल की
मध्यम अवधि में तीन प्रतिशत घाटे के लक्ष्य का अवश्य अनुसरण करना चाहिए। ऐसा होने
पर घरेलू अर्थव्यवस्था को भविष्य के झटकों में संभालने और दूसरी उभरती
अर्थव्यवस्थाओं के वित्तीय प्रदर्शन के करीब पहुंचने में मदद मिलेगी। भारतीय
अर्थव्यवस्था अब सुस्ती, लगातार ऊंची
मुद्रास्फीति, ऊंचे राजकोषीय
घाटे, कमजोर पड़ती
घरेलू मांग, विदेशी मुद्रा
खाते में असंतुलन और रुपए की गिरती साख जैसी समस्याओं पर पार चुकी है। अब हमें तेज
आर्थिक विकास की और बढ़ना चाहिए। इस बजट को भी इसी लिहाज से देखा जाना चाहिए।
यह भी माना जा रहा है कि निजी निवेश में कमी को देखते हुए
फिलहाल सरकार को निवेश बढ़ाना चाहिए ताकि रोजगार भी पैदा हों। सरकारी निवेश बढ़ने
पर राजकोषीय घाटा बढ़ने का जोखिम है, पर अर्थ-व्यवस्था को जगाने के लिए यह जरूरी
माना जा रहा है। इसी तरह जन-स्वास्थ्य, शिक्षा और सार्वजनिक परिवहन आदि के लिए
सरकारी निवेश को बढ़ाने की जरूरत भी है। चालू वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर 7.4
प्रतिशत और 2015-16 में 8 से 8.5 प्रतिशत रहने का अनुमान है। यह बड़ी खबर है। इसी
तरह खुदरा मुद्रास्फीति की दर वर्ष के अंत तक 5 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जो
राहत देता है। एक दिन पहले पेश किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में 8 से अधिक जीडीपी वृद्धि
दर का अनुमान पेश किया गया है। यह उम्मीद भी जाहिर की गई है कि यह आंकड़ा आने वाले
वर्षों में दहाई में भी पहुंच सकता है। यह वह समय होगा जब हम गरीबी के फंदे में
फँसी आबादी को बाहर निकालने में सफल हो सकते हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
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