सोनिया गांधी ‘सेक्युलर’ ताकतों को एक साथ लाने में कामयाब हुईं हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले इस किस्म का गठजोड़ बनाने की कोशिश हुई थी, पर उसका लाभ नहीं मिला. राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसकी कोशिश नहीं हुई. केवल उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उपचुनावों में इसका लाभ मिला. उसके बाद दिल्ली के विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में यह एकता दिखाई दी. निष्कर्ष यह है कि जहाँ मुकाबला सीधा है वहाँ यदि एकता कायम हुई तो मोदी मैजिक नहीं चलेगा.
क्या इस कांग्रेस भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करेगी? पिछले हफ्ते की गतिविधियों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मानों में प्रभावशाली था, पर इसमें विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियाँ शामिल नहीं थीं. संयोग है कि तीनों विपक्ष की सबसे ताकतवर पार्टियाँ हैं. अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और बसपा की अनुपस्थिति को भी समझने की जरूरत है. कह सकते हैं कि मोदी-रथ ढलान पर उतरने लगा है, पर अभी इस बात की परीक्षा होनी है. और अगला परीक्षण स्थल है बिहार.
इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस के दिन फिरने वाले हैं. उसके लिए यह महत्वपूर्ण समय है. उसके नेतृत्व में बदलाव का समय है. वह अभी संशय में है. सबसे ज्यादा संशय राहुल गांधी को लेकर है. पिछले साल मई में पराजय के बाद पार्टी सकते में आ गई थी. उसके पास न तो फौरी रणनीति थी और न दीर्घकालीन दिशा. कार्यसमिति की बैठक में कहा गया कि पार्टी के सामने इससे पहले भी चुनौतियाँ आईं हैं और उसका पुनरोदय हुआ है. इस बार भी वह ‘बाउंसबैक’ करेगी. सन 1977, 1989 और 1996 में भी पार्टी ने ऐसा वक्त देखा और वह उबरी.
फिलहाल पार्टी पर परिवार का पूरा प्रभाव है और सोनिया गांधी उसका संचालन कर रहीं हैं, पर आगे क्या? सोनिया गांधी का यकीन कि मोदी सरकार फेल होगी और कांग्रेस की वापसी होगी. पर इसमें कांग्रेस की क्या भूमिका होगी यह स्पष्ट नहीं है. अभी तक वह विपक्षी दलों के साथ मिलकर काम कर रही है. इसकी धुरी है मोदी-विरोध.
सोनिया गांधी कांग्रेस को आक्रामक बनाने की कोशिश कर रहीं हैं. पिछले नवम्बर में जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के मार्फत उन्होंने मोदी विरोधी ताकतों को एकजुट होने का संकेत दिया. बिहार के उपचुनाव में मोदी विरोधियों का साथ दिया. दबे-छिपे कहा जा रहा है कि हाल में हुए दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे भी कांग्रेस का परोक्ष हाथ है. इसी तरह सन 2003 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में पराजय का सामना करने के बाद सोनिया गांधी ने भाजपा-विरोधी ताकतों को एक साथ लाने का महत्वपूर्ण काम किया और सन 2004 में यूपीए बनाकर केंद्र में वापसी की. क्या वे इस बार भी ऐसा ही करने वाली हैं?
मंगलवार की शाम को सोनिया के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक 14 पार्टियों का मार्च कई मानों में ऐतिहासिक है और आने वाले समय की रणनीति की ओर इशारा कर रहा है. मनमोहन सिंह को कोयला मामले में अभियुक्त बनाए जाने के विरोध में भी 24, अकबर रोड से मोती लाल नेहरू मार्ग स्थित मनमोहन सिंह के आवास तक भी ऐसा ही मार्च किया था. वे सोमवार को जंतर मंतर में हुए प्रदर्शन में भी शामिल होना चाहती थीं, पर पुलिस ने इसकी अनुमति नहीं दी.
इन घटनाओं से कांग्रेसी कार्यकर्ता के मन में उत्साह का संचार हुआ है. हाल में दिल्ली पुलिस ने राहुल गांधी के बारे में जो पूछताछ की उसे लेकर भी पार्टी का रुख आक्रामक है. पार्टी की महिला शाखा से लेकर छात्र शाखा तक सक्रिय हो गई है. पार्टी ने संसद से सड़क तक आक्रामक रुख अपनाने का फैसला किया है. सवाल है कि क्या इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा?
राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर पार्टी ने विपक्ष को एक साथ लाने में सफलता हासिल कर ली है. मोदी सरकार अपने काम-काज का पहला साल पूरा होने के पहले ही घिरती नजर रही है. दूसरी ओर क्षीण संख्याबल के बावजूद कांग्रेस उत्साहित लगती है. पर सोनिया गांधी के इस उत्साह से पार्टी की विसंगतियाँ भी उभरी हैं. ऐसे मौके पर जब संसद का महत्वपूर्ण सत्र चल रहा है राहुल गांधी मौजूद नहीं है. कार्यकर्ताओं का उत्साहित होना पार्टी के लिए अच्छी खबर है, पर राहुल गांधी का अनुपस्थित होना अच्छी खबर नहीं है. इस वक्त उनकी जरूरत थी. सब ठीक रहा तो अगले महीने पार्टी वे पार्टी के अध्यक्ष बनने वाले हैं. जिस भूमि अधिग्रहण कानून का श्रेय उन्हें दिया जाता है उसे लेकर पार्टी आंदोलन चला रही है. वे खुद मौजूद नहीं हैं.
सोनिया गांधी के सामने आने से पार्टी में फिर से जान आई है. साथ ही पुराने नेताओं की हैसियत भी बेहतर हुई है. राहुल गांधी के आगे आने से ये नेता पृष्ठभूमि में चले गए थे. राहुल की गैर-मौजूदगी ने मामले को रहस्यमय बना दिया है. पार्टी की आंतरिक दशा-दिशा साफ नहीं है. पार्टी के पास अभी राज्यसभा में 68 सदस्य हैं. उसके सहारे वह सरकार पर अंकुश रख सकती है, पर उसके पास जनता से कहने के लिए क्या है? राज्यसभा के कुल 245 सदस्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों का बहुमत नहीं है. जबकि कांग्रेस के पास प्रभावशाली संख्या है. 2015 के अंत तक राज्यसभा की केवल 23 सीटें खाली होने वाली हैं, इसलिए कांग्रेस की स्थिति में अभी ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. हाँ अगले दो साल में होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी की शक्लो-सूरत नजर आने लगेगी.
बिहार में इस साल और असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में अगले साल चुनाव होने हैं. इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर की बारी है. यहाँ तक आते-आते कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक धारा का रुख साफ होने लगेगा. सन 2014 के लोकसभा चुनाव के दो साल पहले से कांग्रेस ने हारना शुरू कर दिया था. उसे महत्वपूर्ण सफलता केवल कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड में मिली थी. पर इस बीच वह महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान और आंध्र प्रदेश में हारी है. इस जमीन को फिर से हासिल करने का रास्ता आसान नहीं है.
प्रभात खबर में प्रकाशित
क्या इस कांग्रेस भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करेगी? पिछले हफ्ते की गतिविधियों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मानों में प्रभावशाली था, पर इसमें विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियाँ शामिल नहीं थीं. संयोग है कि तीनों विपक्ष की सबसे ताकतवर पार्टियाँ हैं. अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और बसपा की अनुपस्थिति को भी समझने की जरूरत है. कह सकते हैं कि मोदी-रथ ढलान पर उतरने लगा है, पर अभी इस बात की परीक्षा होनी है. और अगला परीक्षण स्थल है बिहार.
इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस के दिन फिरने वाले हैं. उसके लिए यह महत्वपूर्ण समय है. उसके नेतृत्व में बदलाव का समय है. वह अभी संशय में है. सबसे ज्यादा संशय राहुल गांधी को लेकर है. पिछले साल मई में पराजय के बाद पार्टी सकते में आ गई थी. उसके पास न तो फौरी रणनीति थी और न दीर्घकालीन दिशा. कार्यसमिति की बैठक में कहा गया कि पार्टी के सामने इससे पहले भी चुनौतियाँ आईं हैं और उसका पुनरोदय हुआ है. इस बार भी वह ‘बाउंसबैक’ करेगी. सन 1977, 1989 और 1996 में भी पार्टी ने ऐसा वक्त देखा और वह उबरी.
फिलहाल पार्टी पर परिवार का पूरा प्रभाव है और सोनिया गांधी उसका संचालन कर रहीं हैं, पर आगे क्या? सोनिया गांधी का यकीन कि मोदी सरकार फेल होगी और कांग्रेस की वापसी होगी. पर इसमें कांग्रेस की क्या भूमिका होगी यह स्पष्ट नहीं है. अभी तक वह विपक्षी दलों के साथ मिलकर काम कर रही है. इसकी धुरी है मोदी-विरोध.
सोनिया गांधी कांग्रेस को आक्रामक बनाने की कोशिश कर रहीं हैं. पिछले नवम्बर में जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के मार्फत उन्होंने मोदी विरोधी ताकतों को एकजुट होने का संकेत दिया. बिहार के उपचुनाव में मोदी विरोधियों का साथ दिया. दबे-छिपे कहा जा रहा है कि हाल में हुए दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे भी कांग्रेस का परोक्ष हाथ है. इसी तरह सन 2003 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में पराजय का सामना करने के बाद सोनिया गांधी ने भाजपा-विरोधी ताकतों को एक साथ लाने का महत्वपूर्ण काम किया और सन 2004 में यूपीए बनाकर केंद्र में वापसी की. क्या वे इस बार भी ऐसा ही करने वाली हैं?
मंगलवार की शाम को सोनिया के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक 14 पार्टियों का मार्च कई मानों में ऐतिहासिक है और आने वाले समय की रणनीति की ओर इशारा कर रहा है. मनमोहन सिंह को कोयला मामले में अभियुक्त बनाए जाने के विरोध में भी 24, अकबर रोड से मोती लाल नेहरू मार्ग स्थित मनमोहन सिंह के आवास तक भी ऐसा ही मार्च किया था. वे सोमवार को जंतर मंतर में हुए प्रदर्शन में भी शामिल होना चाहती थीं, पर पुलिस ने इसकी अनुमति नहीं दी.
इन घटनाओं से कांग्रेसी कार्यकर्ता के मन में उत्साह का संचार हुआ है. हाल में दिल्ली पुलिस ने राहुल गांधी के बारे में जो पूछताछ की उसे लेकर भी पार्टी का रुख आक्रामक है. पार्टी की महिला शाखा से लेकर छात्र शाखा तक सक्रिय हो गई है. पार्टी ने संसद से सड़क तक आक्रामक रुख अपनाने का फैसला किया है. सवाल है कि क्या इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा?
राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर पार्टी ने विपक्ष को एक साथ लाने में सफलता हासिल कर ली है. मोदी सरकार अपने काम-काज का पहला साल पूरा होने के पहले ही घिरती नजर रही है. दूसरी ओर क्षीण संख्याबल के बावजूद कांग्रेस उत्साहित लगती है. पर सोनिया गांधी के इस उत्साह से पार्टी की विसंगतियाँ भी उभरी हैं. ऐसे मौके पर जब संसद का महत्वपूर्ण सत्र चल रहा है राहुल गांधी मौजूद नहीं है. कार्यकर्ताओं का उत्साहित होना पार्टी के लिए अच्छी खबर है, पर राहुल गांधी का अनुपस्थित होना अच्छी खबर नहीं है. इस वक्त उनकी जरूरत थी. सब ठीक रहा तो अगले महीने पार्टी वे पार्टी के अध्यक्ष बनने वाले हैं. जिस भूमि अधिग्रहण कानून का श्रेय उन्हें दिया जाता है उसे लेकर पार्टी आंदोलन चला रही है. वे खुद मौजूद नहीं हैं.
सोनिया गांधी के सामने आने से पार्टी में फिर से जान आई है. साथ ही पुराने नेताओं की हैसियत भी बेहतर हुई है. राहुल गांधी के आगे आने से ये नेता पृष्ठभूमि में चले गए थे. राहुल की गैर-मौजूदगी ने मामले को रहस्यमय बना दिया है. पार्टी की आंतरिक दशा-दिशा साफ नहीं है. पार्टी के पास अभी राज्यसभा में 68 सदस्य हैं. उसके सहारे वह सरकार पर अंकुश रख सकती है, पर उसके पास जनता से कहने के लिए क्या है? राज्यसभा के कुल 245 सदस्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों का बहुमत नहीं है. जबकि कांग्रेस के पास प्रभावशाली संख्या है. 2015 के अंत तक राज्यसभा की केवल 23 सीटें खाली होने वाली हैं, इसलिए कांग्रेस की स्थिति में अभी ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. हाँ अगले दो साल में होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी की शक्लो-सूरत नजर आने लगेगी.
बिहार में इस साल और असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में अगले साल चुनाव होने हैं. इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर की बारी है. यहाँ तक आते-आते कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक धारा का रुख साफ होने लगेगा. सन 2014 के लोकसभा चुनाव के दो साल पहले से कांग्रेस ने हारना शुरू कर दिया था. उसे महत्वपूर्ण सफलता केवल कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड में मिली थी. पर इस बीच वह महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान और आंध्र प्रदेश में हारी है. इस जमीन को फिर से हासिल करने का रास्ता आसान नहीं है.
प्रभात खबर में प्रकाशित
आज के तारीख में मोदी की समस्या उसके अपने लोग हैं कांग्रेस नहीं.
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