मोदी सरकार सोशल
मीडिया के मार्फत देश की जनता से जुड़ना चाहती है। और यह भी कि नरेन्द्र मोदी ने
हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संवाद की भाषा बना दिया। राजदीप सरदेसाई,
अर्णब गोस्वामी, सागरिका घोष से लेकर बरखा दत्त तक सब हिन्दी में बोलने लगे। महात्मा
गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक जो हिन्दी में बोला वह भारत से जुड़ा और जो नहीं
बोला वह कटा रहा। पर यह कैसी हिन्दी? कौन है जो इस हिन्दी का पालनहार है?
किसी भी भाषा की
जन-संचार, शिक्षा और विचार-विमर्श में जो भूमिका है वह उसके कद को भी निर्धारित
करती है। अंग्रेजी को विश्व-भाषा बनने में कई सदियाँ लगीं। इसमें दो राय नहीं कि
उसके आर्थिक महत्व ने उसके सामाजिक सम्मान को कायम किया। हम अपने देश में अंग्रेजी
का बोल-बाला सिर्फ इसलिए देख रहे हैं क्योंकि जो अंग्रेजी बोलता है उसका रसूख है। नौकरी
पानी है तो अंग्रेजी बोलो। हिन्दी जिनकी मातृ-भाषा है उनके मन में अपनी भाषा के
प्रति सम्मान है, पर वे जानते हैं कि इससे पेट नहीं भरता। बावजूद इसके उसका अपना
एक अलग प्रभाव-क्षेत्र है। खासतौर से मनोरंजन और राजनीति में। एक माने में हिन्दी
का असीम विस्तार हो रहा है, पर दूसरी और उसे लेकर हमारे मन में ग्लानि भाव भी है।
हिन्दी की दिलचस्पी ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, इतिहास, कला और विमर्श में नहीं है।
अखिल भारतीयता से
वैश्विक भाषा की ओर
हिन्दी की सबसे बड़ी
विशेषता है उसका अखिल भारतीय स्वरूप। महात्मा गांधी ने इसे राष्ट्रीय आंदोलन की
भाषा बनाया। वे खुद गुजराती भाषी थे। हिन्दी को बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का
आशीर्वाद मिला जो बांग्ला भाषी थे। बाबूराव विष्णु पराडकर से लेकर फादर कॉमिल
बुल्के तक हिन्दी सेवियों की एक लम्बी सूची है, जिनकी मातृ भाषा हिन्दी नहीं थी।
आज भी हिन्दी को सजाने सँवारने के काम में तमाम ऐसे लोग लगे हैं, जिनकी मातृ भाषा
हिन्दी नहीं है। गूगल जैसी कम्पनी हिन्दी की तकनीक विकसित कर रही है, क्योंकि
हिन्दी की भूमिका का विस्तार हो रहा है। वह वैश्वीकरण के साथ कदम मिला रही है। जैसे-जैसे
हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता का विस्तार होगा और हमारे बच्चे काम के लिए विदेश
जाने लगेंगे हिन्दी के विस्तार का एक र दौर शुरू होगा।
ब्रिटेन और अमेरिका की आबादी में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो हिन्दी के गीत सुनना चाहते हैं, हिन्दी फिल्में देखना चाहते हैं, हिन्दी खबरें पढ़ना चाहते हैं। पाकिस्तान के उर्दू भाषियों को हिन्दी की व्यापक परिभाषा में शामिल कर लें और गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र और काफी हद तक बंगाल, बांग्लादेश और नेपाल की उस आबादी को भी इसमें जोड़ लें जिनकी दूसरी या तीसरी भाषा हिन्दी है तो यह तादाद सौ करोड़ के ऊपर पहुँचेगी। यह हिन्दी की वैश्विक भूमिका है। हिन्दी का स्वरूप और कलेवर इस भूमिका के कारण बदल रहा है।
इस साल लाल किले से
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने डिजिटल इंडिया की बात की थी। मोदी के डिजिटल इंडिया
में हर गांव ब्रॉडबैंड से जोड़ा जाएगा। ब्रॉडबैंड यानी तेज गति का इंटरनेट
कनेक्शन। इस तेज इंटरनेट से स्कूल कॉलेजों में पढ़ाई,
टेलिमेडिसन यानी डॉक्टरी मदद, खबरें, बैंक खाते, सरकारी
सेवाएं वगैरह सब जुड़ेंगी। तमाम तरह के फॉर्म भरना और सरकारी काम इंटरनेट के जरिए
करना भी इसमें शामिल है। यह डिजिटल इंडिया आपके मोबाइल फोन में होगा। और आपकी भाषा
में होगा।
इंटरनेट की भाषा
अब आपके मोबाइल फोन
में हिंदी है। गूगल के कार्याधिकारी अध्यक्ष एरिक श्मिट ने कुछ साल पहले कहा था कि
आने वाले पाँच से दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाज़ार बन
जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ बरसों में इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा
होगा वे हैं- हिन्दी, मंडारिन और अंग्रेजी। भारत के संदर्भ में कहें तो आईटी के इस्तेमाल को हिंदी
और दूसरी भारतीय भाषाओं में ढलना चाहिए। क्या ऐसा होगा?
हमारे पास संख्या बल है। पर क्या हम अपनी भाषा को अहमियत
देते हैं?
अंतरराष्ट्रीय
एनालिटिक्स फर्म कॉमस्कोर के अनुसार इस साल के शुरू में भारत में तकरीबन साढ़े सात
करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे। हालांकि भारत के ट्राई का अनुसार हमारे
यहाँ इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद 31 मार्च 2013 को 17.4 करोड़ थी।
कॉमस्कोर की सूचना इसके मुकाबले काफी कम है। इसका कारण है कि वह जानकारी बुनियादी
तौर पर पीसी के मार्फत इंटरनेट सर्फिंग की है। भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने
वाले आठ में से सात लोग अपने मोबाइल फोन से इंटरनेट सर्फ करते हैं।
भारत ने पिछले साल
इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में जापान को पीछे छोड़ते हुए चीन और
अमेरिका के बाद तीसरा स्थान बना लिया है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत के
इंटरनेट उपभोक्ताओं में तीन चौथाई की उम्र 35 साल से कम है। वैश्विक उपभोक्ताओं
में तकरीबन आधे इस उम्र के हैं। यानी भारत की इंटरनेट शक्ति को हमें उसकी भावी
शक्ल के नजरिए से भी देखना होगा। भारत में मोबाइल फोन धारकों की संख्या इस वक्त 55
करोड़ से ज्यादा है। इनमें से तकरीबन 30 करोड़ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं।
गूगल के वैश्विक एरिक
श्मिट पिछले साल मार्च के महीने में भारत आए थे। उनका कहना था कि सन 2020 तक भारत
में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 60 करोड़ से ऊपर होगी। इनमें से 30
करोड़ लोग हिन्दी तथा दूसरी भाषाओं में नेट सर्फ करेंगे। भारतीय भाषाओं के लिए
गूगल खासतौर से अनुसंधान कर रहा है। गूगल ट्रांस्क्रिप्शन,
ट्रांसलेशन तथा इसी प्रकार के काम। इंटरनेट एंड मोबाइल
एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमआई) तथा मार्केटिंग रिसर्च से जुड़ी संस्था आईएमआरबी ने
पिछले कुछ साल से भारतीय भाषाओं में नेट सर्फिंग की स्थिति पर डेटा बनाना शुरू
किया है। इस साल जनवरी में जारी इनकी रपट के अनुसार भारत में तकरीबन साढ़े चार
करोड़ लोग भारतीय भाषाओं में नेट की सैर करते हैं। शहरों में तकरीबन 25 फीसदी और
गाँवों में लगभग 64 फीसदी लोग भारतीय भाषाओं में नेट पर जाते हैं।
धीमी प्रगति से तेज
गति तक
चार दशक पहले जब हम
लोगों ने हिन्दी पत्रकार के रूप में काम शुरू किया तब हम तकनीकी विस्तार के एक नए
दौर में थे। पचास के दशक में हिन्दी के टेलीप्रिंटर का की-बोर्ड विकसित हो गया था।
हिन्दुस्तान टेलीप्रिंटर्स ने हिन्दी टेलीप्रिंटर बना दिया था। हिन्दी की टाइप
मशीन बन चुकी थी। हिन्दी की मोनोटाइप और लाइनोटाइप मशीनें बन चुकीं थीं। दो दशक और
आगे जाकर हिन्दी की फोटो टाइपसेटिंग मशीनें आ गईं। कुछ समय बीता कि फोटो
टाइपसेटिंग अतीत की बात हो गई। पीसी के आविष्कार के बाद डेस्कटॉप कम्प्यूटिंग का
उपहार हिन्दी को भी मिला। ज्यादातर तकनीक विदेशी थी। इस लिहाज से हिन्दी का
ज्यादातर शुरूआती काम विदेशी मदद से हुआ था। पर वह उतना ही सम्भव था, जितना
कारोबार था। हिन्दी या भारतीय भाषाओं में प्रकाशन, मुद्रण और समाचार प्रेषण का काम
इतना ज्यादा नहीं था कि उसके लिए तकनीकी अनुसंधान पर कोई कम्पनी पैसा लगाती।
देश की राजभाषा होने
के नाते हिन्दी की संवृद्धि का काम संविधान ने सरकार को सौंपा था। पर सरकारी काम
अनिच्छा से होते रहे। सरकार भी कोटा, लाइसेंस की मनोदशा से बाहर निकल कर सोच नहीं
पाती थी। तकनीकी शिक्षा में भारतीय भाषाओं को जगह शुरू से ही नहीं मिली। भाषाओं के
लिए एक छोटा सा कोना हमने सुरक्षित कर लिया। हिन्दी सेवा माने हिन्दी साहित्य की
सेवा मानकर जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली। पर पिछले दो दशक ने हिन्दी और भारतीय
भाषाओं में एक नई क्रांति आसान नहीं। पर इसमें दो राय नहीं कि नई तकनीक ने भारतीय
भाषाओं को एक नया आकाश दिया है।
मोबाइल क्रांति
विश्व बैंक ने मोबाइल
फोन को इतिहास की सबसे बड़ी मशीन बताया है। सबसे बड़ी आकार में नहीं गुण में।
विकसित देशों में मोबाइल फोन शत-प्रतिशत नागरिकों के पास है, पर भारत में जिस तेजी
से उसका विस्तार हो रहा है वह असाधारण है। मोबाइल ने हमारे भीतर जबर्दस्त सामाजिक
परिवर्तन किया है। खासतौर से कमजोर वर्गों को ताकतवर बनाने में मोबाइल फोन की
भूमिका है। टेलीफोन रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अनुसार इस साल मई में भारत
में मोबाइल कनेक्शनों की संख्या 93 करोड़ 30 लाख के ऊपर थी। इनमें से 30 फीसदी
कनेक्शनों को निष्क्रिय या डुप्लीकेट मान लें तब भी 60 करोड़ से ज्यादा कनेक्शन
हैं यानी कि हर दूसरे भारतीय के पास फोन है।
अब फोन केवल सुनने का
काम ही नहीं करते। लिखने और पढ़ने का काम भी करते हैं। अब स्मार्ट फोनों के
विज्ञापनों में इस बात को अलग से लिखा जाता है कि वे कितनी भारतीय भाषाओं में काम
करते हैं। ज़ाहिर है हिन्दी के लिए अब प्रायः सभी फोनों में जगह है। मोबाइल फोनों
पर भारतीय भाषाओं को जगह दिलाने के लिए आईटी फ्रोफेशनल लगे हुए हैं। और इनमें
लगातार सुधार हो रहा है क्योंकि मोबाइल फोन की तकनीक आने वाले समय की तकनीक है। मोबाइल
फोनों और टेबलेट पर हिन्दी लिखने वाले सॉफ्टवेयर विकसित हो गए हैं। इन्हें विकसित
करने वाले लोगों को अब हम हिन्दी के असली सिपाही कह सकते हैं।
नब्बे के दशक में
भारतीय गीत संगीत के प्रेमी युवा एक गूगल ग्रुप पर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर
रहे थे। उस दौरान हिन्दी फिल्मों के गीतों के बोलों को लिखना और उन्हें पढ़ना खासा
मुश्किल होता था। देखते ही देखते इटरैंस (इंडियन लैंग्वेज ट्रांसलिटरेशन) की अवधारणा
ने जन्म लिया। यह ट्रांसलिटरेशन यूनीकोड में न होकर एएससीआईआई में था। बाद में एक
आईटी प्रोफेशनल अविनाश चोपड़े ने इसे परिष्कृत किया। इसके बाद बाकायदा इटरैंस सांग
बुक विकसित की गई। यह एक शुरूआत थी। हिन्दी और देवनागरी के विकास में इस किस्म के
जुनूनी लोगों का जो योगदान है उसे भी याद रखा जाना चाहिए।
इटरैंस के बारे में
ज्यादा जानकारी आप विकीपीडिया (http://en.wikipedia.org/wiki/ITRANS) पर जाकर प्राप्त कर सकते हैं। तकनीकी दृष्टि से अंग्रेजी को उसके
वैश्विक समर्थन के कारण आसानी होती है। वह समर्थन भारतीय भाषाओं को प्राप्त नहीं
है। पर हालात जैसे भी बने उनमें हिन्दी की भूमिका बढ़ती गई। अस्सी के दशक में
अमेरिका से सुपर कम्प्यूटर हासिल करने में विफल भारत सरकार ने 1988 में सेंटर फॉर
डेवलपमेंट ऑफ एडवांस कम्प्यूटिंग (सी-डैक) की स्थापना की। इस संस्था ने सन 1990
में अपने सुपर कम्प्यूटर का प्रोटोटाइप तैयार करके अपने इरादों को जाहिर कर दिया
था। भारतीय भाषाओं के लिए प्रौद्योगिकी विकास (टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट ऑफ इंडियन
लैंग्वेजेस यानी टीडीआईएल) दूसरी महत्वपूर्ण संस्था है जो भारतीय भाषाओं पर काम कर
रही है। इस संस्था ने भारतीय भाषाओं के आपसी अनुवाद के लिए सम्पर्क नाम से
सॉफ्टवेयर तैयार किया है। इसी तरह ट्रिपल आईटी, हैदराबाद के भाषा तकनीकी अनुसंधान
केन्द्र में इस दिशा में काफी काम हो रहा है। पर जो व्यवहारिक सफलता गूगल
ट्रांसलिटरेशन को मिली वह दूसरे तमाम कामों को नहीं मिली। आज तमाम मल्टीनेशनल
कम्पनियाँ हिन्दी के प्लेटफॉर्मों को विकसित करने के काम में जुटी हैं।
मोबाइल फोन और फेसबुक
ने हिन्दी को एक नई लिपि दी है। संता-बंता जोक्स, शुभकामना संदेश, शेरो-शायरी और
सद्विचारों के लिए रोमन का सहारा नई पीढ़ी ने लिया है। इसे नई लिपि कहना एकदम सही
नहीं है, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सुभाष चन्द्र बोस ने इस लिपि में
लिखी हिन्दुस्तानी को आजाद हिन्द फौज की भाषा बनाया था। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन
के दौरान इस बात पर बहस थी कि क्या स्वतंत्रता के बाद क्या सभी भारतीय भाषाओं के
लिए या कम से कम भारोपीय परिवार की भाषाओं के लिए एक लिपि का इस्तेमाल किया जा
सकता है। तीन लिपियाँ इस काम के लिए गिनाई गईं थीं। रोमन, देवनागरी और अरबी। विभाजन
की सम्भावनाओं को देखते हुए अरबी की सम्भावना खत्म होती गई। बांग्ला, गुजराती,
पंजाबी, असमिया और ओडिया विद्वान रोमन तो छोड़ देवनागरी के लिए भी तैयार नहीं थे,
जबकि वह उनकी लिपियों से काफी मिलती थी। सन 1935 में भाषा शस्त्री सुनीत कुमार
चाटुर्ज्या ने कलकत्ता विवि के डिपार्टमेंट ऑफ लेटर्स के जरनल में एक लिखा जिसमें
रोमन लिपि को भारतीय भाषाओं के लिए उपयुक्त बताया। उन्होंने भारतीय ध्वनियों के
लिए रोमन में कुछ बिन्दियों और टोपियों का सुझाव दिया। उस सुझाव को स्वीकार नहीं
किया गया।
भाषा और लिपि के साथ
सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता भी जुड़ी होती है इसलिए उसे छोड़ना सरल नहीं है। उन
भाषाओं के लिए प्रयोग करना सरल होता है जिनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सुदीर्घ नहीं है।
भारत में हिन्दी की स्थिति कई मानों में रोचक है। राजनीति और मनोरंजन के लिए हिन्दी
देश की लगभग सर्व-स्वीकार्य भाषा है। ज्ञान-विज्ञान के लिए नहीं। हिन्दी समाज ही
उसे बिसरा रहा है। हिन्दी के साहित्यकारों ने इसपर अपना पूर्ण अधिकार मान लिया है।
भाषा से जुड़ी संस्थाओं, सम्मेलनों में उनका ही वर्चस्व है। पर हिन्दी की भूमिका
कुछ एकदम नए ठिकानों पर बढ़ी है। बॉलीवुड हिन्दी सिनेमा का गढ़ है, पर हमारे
कलाकारों की भाषा हिन्दी नहीं है। दीपिका पादुकोण, कैटरीना कैफ, सुष्मिता सेन,
रणबीर कपूर या करीना कपूर देवनागरी में लिखे संवाद नहीं पढ़ते। उन्हें रोमन हिन्दी
चाहिए। हमारे सबसे लोकप्रिय विज्ञापन रोमन हिन्दी में लिखे जाते हैं। हिन्दी
सिनेमा के गीत, शेरो-शायरी लोकप्रिय है। पर नई पीढ़ी उसे रोमन में लिख रही है।
गूगल करो, सब जान जाओ
सच यह है कि हिन्दी
की भूमिका बढ़ रही है। इंटरनेट ने तो इसका विस्तार किया है। पाकिस्तानियों के साथ
हमारी बहस सीधे होती है रोमन हिन्दी या उर्दू में। आप कम्प्यूटर पर बैठें और गूगल
पर हिन्दी में कुछ भी टाइप कर दें तो सैकड़ों पेज खुल जाएंगे। आप कम्प्यूटर के
किसी प्रोग्राम को चलाना हिन्दी में सीखना चाहते हैं तो यूट्यूब पर जाएं वहाँ कई
वीडियो मिलेंगे जो आपकी मदद करेंगे। आपको अंग्रेजी भाषा की बारीकियाँ सीखनी हैं तो
वैबसाइटें मिलेंगी। बांग्ला, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, गुजराती, मराठी सीखिए
हिन्दी माध्यम से। आपको दम आलू बनाना नहीं आता। कम्प्यूटर पर आइए तमाम वैबसाइटें
तैयार हैं। आपको किसी बीमारी के इलाज के लिए सही होम्योपैथी दवा की जानकारी चाहिए
वह भी हिन्दी में तो हाजिर है। जीवन के तमाम क्षेत्रों से जुड़े विवरण अब
कम्प्यूटर पर उपलब्ध हैं वह भी हिन्दी में। हिन्दी के तकनीकी विकास की जानकारी
देने वाली वैबसाइटें और ब्लॉग अब सैकड़ों की तादाद में उपलब्ध हैं। पर लिखित
हिन्दी और बोलने वाली हिन्दी में फर्क है।
इंटरनेट पर एक साइट
है http://www.garbagebinstudios.com/ इसकी कार्टून स्ट्रिप बड़े रोचक तरीके से रोमन हिन्दी का
इस्तेमाल करके बनाई जाती हैं। अमूल के अटरली बटरली विज्ञापनों में शायद कोई दिन
ऐसा हो जब रोमन हिन्दी का इस्तेमाल न होता हो। विज्ञापनों की भाषा अब आधी हिन्दी
आधी अंग्रेजी है। कार से लेकर साबुन तक का सूत्र वाक्य रोमन हिन्दी में होता है।
यह वह हिन्दी है जो मध्य वर्ग समझता है। यह हिन्दी अब अपने गढ़ इलाहाबाद, बनारस,
लखनऊ, कानपुर, पटना, भोपाल से उतरकर बेंगलुरु, हैदराबाद और कोच्चि की र बढ़ रही
है। यह पैन इंडियन हिन्दी है।
गम्भीर विमर्श कहाँ
है?
हिन्दी के दो रूप
सामने आ रहे हैं। एक है मनोरंजन, मस्ती और मामूली जानकारियाँ देने वाली हिन्दी। और
दूसरी गम्भीर बौद्धिक विमर्श वाली हिन्दी। दूसरी हिन्दी को रोमन में लिखने में
दिक्कत है और समझने में भी। पर पहली हिन्दी में वर्तनी और व्याकरण का दोष अब दोष
नहीं माना जाता। इसके साथ व्याकरण विहीन अंग्रेजी भी जुड़ गई है। इसे हिंग्लिश नाम
मिला है। अंततः भाषा क्या शक्ल लेगी इसे समझने में कुछ दशक लगेंगे, पर भाषा के
सेवक और उपभोक्ता अब वही नहीं हैं, जो कुछ समय पहले तक होते थे। वक्त आ रहा है
नरेन्द्र मोदी के डिजिटल इंडिया का। इस डिजिटल इंडिया में भाषा का प्रयोग सरकारी
दफ्तरों में शिकायत लिखाने, अर्जी देने, टैक्स जमा करने, अस्पताल में डॉक्टर को
दिखाने वगैरह-वगैरह में होगा। यह भाषा आमतौर पर टिक करने, हाँ या ना लिखने. नाम,
पता और उम्र लिखने जैसे कामों तक सीमित होगी। लिखित भाषा में अब अक्षरों के साथ
तस्वीरें शामिल होने वाली हैं। स्माइली एक नई चित्र लिपि है। कहना मुश्किल है कि
यह क्या रूप लेती है। संचार के माध्यम अब लिखित की जगह ऑडियो के चलन को भी बढ़ा
रहे हैं। सम्भव है आपको कुछ लिखना ही न पड़े। बोलने से काम चल जाए।
महामीडिया में प्रकाशित
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