हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून |
बहरहाल कोई हैरत नहीं कि किसी भी वक्त लेफ्टिनेंट
गवर्नर नजीब जंग भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने का न्योता दे दें। फिलहाल गतिरोध टूटना चाहिए और आम आदमी पार्टी को उसकी तार्किक परिणति की और जाना चाहिए। ताज़ा
खबर है कि भाजपा नेतृत्व की पेशकश को नरेंद्र मोदी ने हरी झंडी दे दी है। अब सरकार
बनी तो पहला सवाल यह होगा कि दिसम्बर में पार्टी ने हाथ क्यों खींच लिया था? और यह कि अब बहुमत जुटाने की कीमत वह क्या
देगी? नैतिक दृष्टि से भाजपा इस फैसले को सही नहीं ठहरा
पाएगी, पर व्यावहारिक रूप से इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता दिल्ली के असमंजस को
तोड़ने के लिए उपलब्ध नहीं है। भाजपा के कुछ पुराने हारे हुए नेताओं के अलावा कोई
नहीं चाहता कि दुबारा चुनाव हों।
हालांकि पार्टी कह रही है कि विधायकों की
खरीद-फरोख्त नहीं होगी, पर कहीं न कहीं से समर्थन तो हासिल करना ही होगा। निशाने
पर आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट विधायक हैं, जो सीक्रेट बैलेट होने पर आसानी से वोट
दे सकेंगे। एकबारगी सरकार बनने बाद सम्भव
है कि ‘आप’ में
टूट हो जाए और एक नई पार्टी उभर कर आए। ऐसा उत्तर प्रदेश पहले बसपा के साथ हो चुका
है। पिछले दो महीने से किसी न किसी रूप में भाजपा के विधायक और नेता सरकार बनाने
की सम्भावनाओं को खारिज नहीं कर रहे हैं। इससे लगता है कि उन्होंने इस फैसले के
नफा-नुकसान को अच्छी तरह तोल लिया है। दूसरी ओर आम आदमी पार्टी लगातार सरकार बनाने
की कोशिशों का विरोध कर रही है। इससे पार्टी अपने अस्तित्व को बचाए रखने की कोशिश
कर रही है, पर लगता है कि देश में हुआ एक महत्वपूर्ण प्रयोग चंद नेताओं की बचकानी
महत्वाकांक्षा का शिकार हो जाएगा। हाल में अरविंद केजरीवाल अपने साथ पार्टी के
विधायकों का जत्था लेकर राष्ट्रपति से मिलकर अपना विरोध व्यक्त भी कर आए हैं।
तकनीकी दृष्टि से देखें तो सरकार बनाने में कोई अड़चन नहीं है, पर राजनीतिक दृष्टि
से भाजपा को इसका फायदा भी है और नुकसान भी।
भाजपा या किसी भी दूसरी पार्टी के नज़रिए से
देखें तो चुना गया कोई भी विधायक नहीं चाहता कि दुबारा चुनाव हो। आम आदमी पार्टी
के विधायक खासतौर से दुबारा चुनाव नहीं चाहेंगे, क्योंकि सबसे ज्यादा संकट में यही
पार्टी है। पर उसे राजनीति में बने रहने के लिए दुबारा चुनाव की बात कहनी होगी।
यही वह कर रही है। कांग्रेस के लिए भी चुनाव में जाने से फिलहाल अच्छा है कि भाजपा
की सरकार बने। उसका अल्पसंख्यक वोट बैंक खिसक कर ‘आप’ के पाले में चला गया है। दिल्ली में
भाजपा सरकार होगी तो कांग्रेस इस वोट को वापस पाने की कोशिश करेगी। अगले सवा चार
साल तक वह भाजपा का विरोध करके अपनी स्थिति सुधार सकती है। पिछले पन्द्रह साल से
कांग्रेस दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ रही है। उसे यहाँ की पेचीदगियों की बेहतर
जानकारी है। भाजपा के पास भी दिल्ली के अनुभवी लोग अब नहीं हैं। दूसरे वह गुटबाजी
की शिकार है। इसका लाभ लेन की कोशिश कांग्रेस करेगी। शायद यही सब सोचकर शीला
दीक्षित केरल से राज्यपाल का पद जल्दी छोड़ने को राज़ी हो गईं।
किसी भी पार्टी के विधायक को फिर से चुनाव होने
पर पहले टिकट मिलने और फिर चुने जाने की कोई गारंटी नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था
के लिहाज से प्रदेश का शासन जन-प्रतिनिधियों के मार्फत चलना चाहिए। विडंबना है कि
विधायक खाली बैठे हैं और सरकार सरकारी नौकरशाही की चल रही है। एक विकल्प यह था कि
चार राज्यों के विधान सभा चुनावों के साथ दिल्ली के चुनाव भी करा लिए जाएं। वोटर
के पास पिछले चुनाव का असमंजस दूर करने का विकल्प होगा। करीबन दो महीने पहले
दिल्ली भाजपा में नए अध्यक्ष सतीश उपाध्याय की नियुक्ति के बाद सरकार बनाने की
सुगबुगाहट शुरू हुई है। भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली संगठन जबर्दस्त गुटबाजी का
शिकार रहा है।
पिछले साल अक्तूबर-नवम्बर में हुए विधानसभा
चुनाव में देश के अन्य राज्यों में भाजपा को जैसी सफलता मिली वैसी दिल्ली में नहीं
मिल पाई। इसका पहला कारण भाजपा की गुटबाजी का था। दूसरा कारण आम आदमी पार्टी का
उदय था, जिसने दिल्ली में आश्चर्यजनक रूप से सफलता हासिल की थी। आम आदमी पार्टी की
49 दिन की सरकार धरने-प्रदर्शनों में लगी रही और एक बेहद मामूली से कारण को लेकर
उसने इस्तीफा दे दिया। इससे ‘आप’ की साख में भारी गिरावट आई। आज यदि चुनाव हो तो
शायद भाजपा को साफ बहुमत हासिल हो जाए और ‘आप’ की राजनीति काफी लम्बे समय के लिए ठंडी पड़ जाए। फिर भी भाजपा सरकार
बनाने की कोशिश कर रही है तो इसके क्या कारण हैं?
पिछले साल विधानसभा चुनाव में भाजपा को 70 के
सदन में 32 सीटें मिली थीं। तीन विधायकों के इस्तीफे के
बाद अब उसके पास सिर्फ 29 ही विधायक रह गए है। सवाल है कि दिसम्बर में
भाजपा ने 32 विधायकों के होते हुए सरकार बनाने से हाथ खींच लिया तो वह 29 विधायकों
की मदद से सरकार कैसे चलाएगी? तकनीकी दृष्टि से उप-राज्यपाल सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए बुलाते
और तो उसमें गलत कुछ नहीं है। बहुमत का फैसला सदन को करना है, उप-राज्यपाल को
नहीं। बहुमत साबित करने के तमाम तरीके हैं। सम्भवतः बहुमत का फैसला सीक्रेट वोट से
होगा। इसके कारण आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट विधायकों पर से अनुशासन की तलवार हट
जाएगी। दल-बदल कानून के तहत दूसरे दलों के
विधायकों पर अनुशासन की तलवार लटकती रहती है, पर राजनीति में इसके रास्ते
भी निकाले जाते हैं। आम आदमी पार्टी
अंदरूनी अंतर्विरोधों की शिकार है। हाल में राष्ट्रपति से मिलने गए पार्टी
के शिष्टमंडल में उसके पाँच विधायक शामिल नहीं थे। समय निकलने पर ‘आप’ का प्रभा मंडल धूमिल पड़ता जाएगा।
मोटे तौर पर आज चुनाव हों तो भारतीय जनता
पार्टी को जीत जाना चाहिए। पर उसके विधायक शारीरिक, मानसिक और वित्तीय रूप से थके हुए हैं। दोबारा चुनाव होने पर
उन पर बड़ा बोझ पड़ेगा। उन्होंने पिछले साल अक्तूबर में चुनाव लड़ा और फिर
अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव में मेहनत की थी। वे नहीं चाहते कि उन्हें पुरस्कार के
बजाय सज़ा मिले। उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेताओं से एक और चुनाव से बचने का
निवेदन किया है। नरेंद्र मोदी को भी यह बात समझ में आ गई है। बिना चुनाव लड़े
सरकार बनाने पर सवा चार साल तक सत्ता का उपभोग किया जाएगा और इस दौरान दिल्ली में
पार्टी संगठन मजबूत किया जा सकता है।
दूसरी और पार्टी के पास दिल्ली में कोई करिश्माई नेता नहीं है। डॉ हर्ष
वर्धन की छवि अच्छी थी पर वे लोकसभा में चले गए हैं और केंद्रीय मंत्रिमंडल में
शामिल हो चुके हैं। इस बीच किरण बेदी जैसे नेताओं का नाम भी चला, पर पार्टी के
सीनियर नेताओं के विरोध को देखते हुए इसकी कल्पना नहीं करनी चाहिए।
सच बहुत हो चुका.... जितनी देर होगी उतनी खरीद फरोख्त का व्वसाय जोर पकड़ेगा .....जो भी सरकार बने कम से कम सही तरीके से ५ साल टिकी रहे यही अच्छा होता प्रजातंत्र के लिए
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