Sunday, September 7, 2014

मोदी का बच्चों से संवाद

नरेन्द्र मोदी की हर बात पर दो किस्म की प्रतिक्रियाएं होती हैं। भारी समर्थन, घनघोर विरोध। शिक्षक दिवस पर उनके कार्यक्रम पर भी प्रतिक्रियाएं पूर्व-निर्धारित थीं। उनका भाषण जितने ध्यान से उनके समर्थक सुनते हैं उससे ज्यादा गौर से उनके विरोधी सुनते हैं। वे उसे खारिज करते हैं, पर अनदेखी नहीं करते। सोशल मीडिया पर लगी झटपट-टिप्पणियों की झड़ी से यह बात साबित होती है। मोदी जब बोलते हैं तब सारा देश सुनता है। भले ही नापसंद करे। उन्होंने नकारात्मक प्रचार को जिस तरह अपने पक्ष में किया है उसे देखना भी रोचक है।


उन्होंने अपनी बात कहने के परम्परागत तरीकों को छोड़कर सीधे जनता से सम्पर्क के तरीके खोज लिए हैं। मसलन वे मीडिया के सवालों और संसद में राजनेताओं के सवालों के जवाब देने के बजाय सीधे जनता को संबोधित करने में यकीन कर रहे हैं। पन्द्रह अगस्त के भाषण को इस बार मोदी ने नई शक्ल दी। सीधे नागरिक से सम्पर्क साधा। और अब सीधे बच्चों से संवाद किया। कहना मुश्किल है कि इसके पहले दुनिया में कहीं और ऐसा हुआ है या नहीं, पर शायद भारत में इतने बड़े श्रोता-समूह के साथ दोतरफा बातचीत इससे पहले कभी नहीं हुई है। वह भी बच्चों से।

नरेन्द्र मोदी का तकनीक पर जोर है। और यह कार्यक्रम तकनीक के कारण सम्भव हुआ। मोदी के विरोधियों ने इस कार्यक्रम पर हुए खर्च का ब्योरा पहले से ही तैयार कर लिया था। सम्भव है उतना ही खर्च हुआ हो, पर इस कार्यक्रम ने संवाद की महत्ता को स्थापित किया। विरोधी कहते हैं यह सब मोदी की प्रचार-कामना का अंग है। उन्होंने शिक्षक दिवस की पवित्रता को चुरा लिया। सारा ध्यान खुद पर कर लिया। पर यह बात किसी भी नेता के बारे में कही जा सकती है।

गांधी, नेहरू, सुभाष या इंदिरा गांधी जैसे नेताओं ने पहले अपने कद को इस लायक बनाया कि लोग उन्हें सुनें। प्रचार की कामना हर उस राजनेता के पास होती है, जो जनता से जुड़ना चाहता है। जुड़ाव की इच्छा ही प्रचार-कामना है। इसके अच्छे-बुरे परिणाम जनता को ही दिखाने हैं। बेशक इसके पीछे राजनीति है। सुनने वाले बच्चे भविष्य के वोटर हैं। क्या उन्हें यह भाषण सुनने के लिए मजबूर किया गया? क्या यह सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग था? इन बातों पर फैसला भी वही करेंगे जिन्होंने खुद को पीड़ित महसूस किया होगा। सच यह है कि अपने 100 मिनट के संवाद में मोदी ने देश की बेहद महत्वपूर्ण जन-संख्या का ध्यान अपनी और खींचा। यह काम हाल के वर्षों में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम ने किया था।

देखना और समझना यह होगा कि क्या मोदी के इन प्रयत्नों में किसी किस्म की गम्भीरता है या यह सिर्फ शोशेबाज़ी है। शुक्रवार को जब मोदी की पाठशाला लग रही थी दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद प्रेस को सम्बोधित करने वाले थे। पार्टी के प्रेस ब्रीफिंग कक्ष में प्रवेश करते ही खुर्शीद ने नोटिस किया कर लिया कि कमरे की ज्यादातर कुर्सियां खाली हैं। कुशल राजनेता के रूप में उन्होंने कहा कि लगता है बारिश की वजह से कम पत्रकार बंधु आ सके हैं। साथ ही यह भी जोड़ा कुछ अन्य कार्यक्रमों में भी वे व्यस्त लगते हैं।

मोदी की कोशिशें सिर्फ शोशेबाज़ी होंगी तो यह भी वक्त के साथ सामने आ जाएगा। सच यह है कि मनमोहन सिंह के समय की लम्बी संवाद-हीनता ने एक बड़ा गैप बना दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के पीछे एक बड़ा कारण वह युवा वर्ग था जो नए सपने लेकर बड़ा हो रहा है। मोदी की पाठशाला में उस युवा के बाद की पीढ़ी बैठी थी। मोदी ने उनसे कहा, पाठ्यक्रम से बाहर की बातें भी पढ़ो, स्कूल की सफाई का काम खुद करो, पानी और बिजली बचाओ। ये बातें पोस्टर लगाकर या अखबारों में विज्ञापन देकर भी कही जा सकती थीं। पर जब बच्चों को लगे कि उनसे कोई बात कर रहा है, तब बात कुछ और हो जाती है।

एक बच्चे ने पूछा कि क्या मैं प्रधानमंत्री बन सकता हूँ। मोदी ने कहा कि 2024 के चुनाव की तैयारी करो। मीडिया विश्लेषकों की समझ कहती है कि उन्होंने अगले दस साल अपने नाम मुकर्रर कर लिए हैं। इस दौरान वे अपने हिन्दुत्व को लागू करेंगे। पता नहीं मोदी ने इस बाबत कुछ सोचा था या नहीं, पर बच्चे की उम्र देखते हुए उससे 2019 के चुनाव की तैयारी करने के लिए नहीं कहा जा सकता था। उसे कम से कम 25 साल का होना होगा।

कांग्रेस की प्रतिक्रिया है कि इस संवाद का इस्तेमाल शिक्षकों की महत्ता रेखांकित करने के लिए नहीं किया जा सका। सलमान खुर्शीद ने कहा, ' शिक्षक दिवस पर किसी एक व्यक्ति पर फोकस करने के बजाए अगर शिक्षकों और शिक्षा नीति के लिए कोई ठोस घोषणा सरकार की ओर से की जाती तो बेहतर होता। प्रधानमंत्री के नाते मोदी अगर छात्रों और शिक्षकों से सीधा संवाद कायम कर रहे थे तो इससे किसी को क्या एतराज हो सकता है, लेकिन ऐसे संवाद औपचारिकताओं तक सीमित नहीं रहने चाहिए।' मोदी ने इस बात को रेखांकित करने की कोशिश जरूर की कि आज बच्चे शिक्षक बनना नहीं चाहते, क्योंकि उसमें आकर्षण नहीं है। साथ ही उम्मीद जाहिर की एक रोज़ हम दुनियाभर को शिक्षक देंगे।   

इस कार्यक्रम में शामिल बच्चों के सवालों में से ज्यादातर सवाल औपचारिक थे। बाल-सुलभ, सरल और शरारती नहीं थे। शायद बच्चों को उनके सवालों के साथ तैयार किया गया था। शायद यह ऐसे विशाल कार्यक्रम की जरूरत भी थी, क्योंकि अनियंत्रित वातावरण में ऐसे सवाल होने का खतरा भी था, जो माहौल को बिगाड़ सकता था। पर बच्चों की सरलता तो होनी ही चाहिए। मोदी ने खुद इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि बहुत तेजी से बच्चों का बचपना मर रहा है। उनका इशारा इस ओर था कि बच्चों ने उनसे सीधे संवाद करने की बजाय रटे रटाए सवाल पूछे। उनमें पूरी मस्ती और शरारत होनी चाहिए। बच्चों को चाहिए कि वे इतना खेलें कि दिन में चार बार पसीना बहे। वे टेलीविजन और कंप्यूटर से ज्यादा जुड़ गए हैं और इसीलिए उनमें खेलकूद और बचपन की मस्ती कम हो गई है।

मोदी ने बच्चों को सुझाव दिया कि अपने अध्यापक से जुड़ें। जो ज्ञान अध्यापक देंगे वह गूगल से नहीं मिलेगा। इस संवाद में शिक्षा से जुड़े कुछ बुनियादी सवाल भी उभर कर सामने आए। उन्होंने जापानी बच्चों के साइंटिफिक टेम्परामेंट का जिक्र किया, जिसपर हमने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। राजनीति जिन भावनात्मक सवालों की और हमें ठेल रही है उसका इलाज वैज्ञानिकता के प्रसार में हैं। टीवी के पर्दे पर हो या नहीं, संवाद होना चाहिए।

1 comment:

  1. बहुत ही सार्थक , सामयिक व सटीक टिप्पणी , इस नई पहल के निश्चय ही सुखद परिणाम सामने आएंगे ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए

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