हालांकि जून 1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई का
नागरिक अभिनंदन किया गया था। उसे भी शामिल कर लें तब भी आज तक चीन के किसी नेता का
भारत में ऐसा स्वागत नहीं हुआ जैसा राष्ट्रपति शी जिनपिंग का हुआ है। नेहरू युग
में गढ़े गए ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’
के नारे की हवा सन 1962 में निकल गई। उसके बाद से भारत के लोगों के मन में चीन को
लेकर गहरा संशय है। इसीलिए 70 करोड़ डॉलर के सालाना कारोबार के बावजूद दोनों देशों
के बीच सीमा पर जारी तनाव हमें सबसे बड़ी समस्या लगता है। हमारे संशय के वाजिब
कारण हैं और जब तक वे हैं हम चीन पर पूरा भरोसा नहीं करेंगे।
मोदी सरकार ने सीमा
पर फैली इस धुंध को ही दूर करने की कोशिश की है। सच यह है कि वैश्विक मंच पर चीन
हमारा प्रतिद्वंद्वी बना रहेगा, पर इसका मतलब दुश्मनी नहीं है। शी जिनपिंग के पहले
सन 2005 और 2010 में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्रा काफी नाटकीय
थी। जियाबाओ को दोनों देशों के रिश्तों को पटरी पर लाने का श्रेय जाता है। उनकी
2005 की यात्रा के बाद 2006 में राष्ट्रपति हू जिनताओ भी भारत आए थे,
पर रिश्तों को नाटकीय अंदाज में सरस बनाने का काम जियाबाओ
ने ही किया। संस्कृत-श्लोकों को उद्धृत करने से लेकर हजारों साल पुराने सांस्कृतिक
रिश्तों का उन्होंने उसी तरह इस्तेमाल किया था। इस बार मोदी ने उन्हें साबरमती की
यात्रा कराकर भारत की सॉफ्टपावर से रूबरू कराया। हमने भारत को अभी दुनिया में ठीक
से शोकेस नहीं किया है। उसका समय भी आ रहा है।
इस यात्रा मात्र से
चीन हमारा प्यारा दोस्त नहीं बन गया। व्यावहारिक राजनय का तकाज़ा है कि हम वक्त की
आवाज़ को सुनें। शी जिनपिंग की इस यात्रा से पहले उम्मीद जाहिर की जा रही थी कि वे
लगभग 100 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा करेंगे। मोदी की यात्रा के दौरान जापान ने 35
करोड़ डॉलर के निवेश की घोषणा की थी। पर चीन ने अगले पाँच साल में 20 करोड़ डॉलर
के निवेश की घोषणा की है। हाँ इस यात्रा की उपलब्धि है भारत-चीन रिश्तों पर जमी
बर्फ का टूटना। सीमा के मामले को मजबूती और सफाई के साथ रखने की जरूरत है। यदि
चीनी सेना मानती है कि वह अपने इलाके की चौकसी करती है तो उसे उन अपने नक्शों को
मुहैया कराना होगा।
नरेंद्र मोदी ने कहा,
‘मैंने सीमा के इर्द-गिर्द की
घटनाओं पर चिंता से चीनी राष्ट्रपति को अवगत कराया है। वास्तविक नियंत्रण रेखा
(एलएसी) पर स्पष्टता की जरूरत है। चीन की वीजा नीति के साथ ही पानी के मुद्दे पर
चिंता व्यक्त की। इनका समाधान संबंधों को और मजबूत बनाएगा।’
सीमा विवाद सुलझाने में समय लगेगा। अभी तो
लगता है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा भी परिभाषित नहीं है। दूसरी और हमें दक्षिण
एशिया के देशों के साथ अपने रिश्तों को सुधारना होगा। चीनी राष्ट्रपति भारत आने के
पहले श्रीलंका और मालदीव के साथ कुछ महत्वपूर्ण समझौते करके आए हैं, जिनके सामरिक
महत्व को हमें समझना होगा। चीनी राष्ट्रपति की यात्रा के ठीक पहले हमारे
राष्ट्रपति की वियतनाम यात्रा भी कुछ कहती है। हमें एक और कारोबारी रिश्ते चाहिए
तो दूसरी और राष्ट्रीय सुरक्षा भी। ताकतवर पड़ोसी से दोस्ती के लिए हमें भी उतना
ही ताकतवर बनना होगा।
चीन को लेकर भारत की
तीन बड़ी चिंताएं हैं। एक, सीमा विवाद, दो व्यापार असंतुलन और तीसरे पाकिस्तान के
साथ भारत के रिश्तों के बरक्स चीन की भूमिका। तीनों का समाधान हो जाए तो हमारे
रिश्ते आसमान छू सकते हैं। पर यह बात आसान नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सीमा
से जुड़े तनाव के बावजूद भारत और चीन के बीच 70 अरब डॉलर का सालाना कारोबार हो रहा
है। यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है।
कश्मीर की नियंत्रण रेखा और चीनी सीमा पर
वास्तविक नियंत्रण रेखा में एक बुनियादी फर्क को भी हमें समझना चाहिए। चीनी
सैनिकों ने सीमा का उल्लंघन तमाम बार किया है, पर वहाँ लम्बे अरसे से खूंरेज़ी
नहीं हुई है। हमें इस बात की शिकायत नहीं है कि चीनी सीमा से आतंकवादी भारत में
प्रवेश कर रहे हैं। दोनों देशों ने आपसी व्यापार बढ़ाकर पाकिस्तान को भी यह संदेश
दिया है कि विवादास्पद मसलों को पीछे रखकर भी आपसी सहयोग बढ़ाया जा सकता है। सच यह
है कि तमाम दोस्ताना बातों के बावजूद चीन हमारा प्रतिद्वंद्वी है। उस
प्रतिद्वंदिता का सामना करने के लिए हमें अपनी ताकत बढ़ानी चाहिए।
नरेंद्र मोदी और शी
जिनपिंग के बीच शिखर वार्ता के दौरान कुल 12 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए और साझा घोषणापत्र
भी जारी किया गया। भारत और चीन ने असैन्य परमाणु सहयोग पर वार्ता शुरू करने का
फैसला किया है। चीन ने अगले पांच साल में भारत में 20 अरब डॉलर निवेश की
प्रतिबद्धता जाहिर की है। पाँच साल के लिए भारत और चीन के बीच व्यापारिक समझौता,
औषधि निर्माण और उनसे जुड़े मसलों पर समझौता,
भारत में रेल के विकास में चीनी मदद को लेकर समझौते भी हुए।
कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए नाथुला के जरिए नया रास्ता खुलेगा। अब कार से भी अब
मानसरोवर यात्रा संभव होगी। वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग, कस्टम और सांस्कृतिक
आदान-प्रदान के समझौते भी हुए।
व्यावहारिक राजनय में कुछ भी सम्भव है। इस वक्त चीन पर भी
हमारे साथ रिश्ते सुधारने का दबाव है। वह जापान से उलझा हुआ है। अमेरिका उसके
इर्द-गिर्द घेराबंदी कर रहा है। चीन नहीं चाहता कि भारत अमेरिकी रणनीति का हिस्सा
बने। ऐसा तभी सम्भव है जब वह भारत के हितों को समझेगा। हमें याद रखना चाहिए कि सन
1999 में करगिल संघर्ष के दौरान चीन ने तटस्थता बरती थी। पाकिस्तान उसका सबसे
अच्छा मित्र है। पर यह मित्रता केवल भारत का दुश्मन होने के कारण नहीं है। चीन को
आने वाले वर्षों में अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी रास्ते की
जरूरत है। कराकोरम हाइवे से होते हुए ग्वादर बंदरगाह तक जाने वाली सड़क भविष्य में
चीन का महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग बनेगी। चीन से हमारी 1962 की लड़ाई रिश्ता-बिगाड़
भर नहीं थी। उस लड़ाई ने पाकिस्तान को एक नया दोस्त दिया। वह आज उसका सबसे अच्छा
हर मौसम का साथी है।
बासठ की लड़ाई के एक साल बाद ही पाकिस्तान ने कश्मीर की
5,189 किमी जमीन चीन को सौंप दी। इस जमीन से होकर चीन के शेनजियांग स्वायत्त
क्षेत्र के काशगर शहर से लेकर पाकिस्तान के एबटाबाद तक एक सड़क बनाई गई, जिसे कराकोरम राजमार्ग कहा जाता है। कश्मीर अब सिर्फ भारत
और पाकिस्तान के बीच का मसला नहीं है। चीन इसमें तीसरी पार्टी है। पिछले दो साल से
भारत-चीन राजनयिक टकराव के पीछे अरुणाचल से ज्यादा कश्मीर का हाथ है। स्टैपल्ड
वीजा ही नहीं प्रकारांतर से चीन अब पूरे कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा मान रहा
है। हमें अपने राष्ट्रीय हितों के बारे में सोचना ही है। बहरहाल हमें चीनी माल का
बाज़ार बनने के साथ-साथ अपने माल का बाज़ार भी चीन में खोजना होगा। चीनी निवेश
हमें चाहिए, पर जापानी उच्च तकनीक भी हमें चाहिए।
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