Thursday, September 25, 2014

मंगलयान माने रास्ता इधर से है

संयोग से मंगलयान की सफलता और 'मेक इन इंडिया' अभियान की खबरें एक साथ आ रहीं हैं. पिछले साल नवम्बर में जब मंगलयान अपनी यात्रा पर निकला था, तब काफी लोगों को उसकी सफलता पर संशय था. व्यावहारिक दिक्कतों के कारण भारत ने इस यान को पीएसएलवी के मार्फत छोड़ा था. इस वजह से इसने अमेरिकी यान के मुकाबले ज्यादा वक्त लगाया और अनेक जोखिमों का सामना किया. हालांकि यह बात कहने वाले आज भी काफी हैं कि भारत जैसे गरीब देश को इतने महंगे अंतरिक्ष अभियानों की जरूरत नहीं है, पर वे इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि अंतरिक्ष तकनीक के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा और संचार की तमाम तकनीकें जुड़ी हैं, जो अंततः हमारे जन-जीवन को बेहतर बनाने में मददगार होंगी. फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की अंतरिक्ष तकनीक के लिए विकासशील देशों का बहुत बड़ा बाज़ार तैयार है. हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश और नेपाल तक अपने उपग्रह भजना चाहते हैं. चूंकि उनके पास यह तकनीक नहीं है, इसलिए ज्यादातर देश चीन की ओर देख रहे हैं. मंगलयान की सफलता ने भारत की एक नई तकनीकी खिड़की खोली है.



इसे हमें कल से शुरू होने वाले मेक इन इंडिया अभियान के साथ जोड़कर देखना चाहिए. इस महीने भारत की वैश्विक भूमिका जिस शिद्दत के साथ उजागर हुई है, इसके पहले शायद ही कभी हुई होगी. इस हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका जा रहे हैं. दुनिया के तीन महत्वपूर्ण देशों के साथ सम्पर्क का उनका अभियान पूरा हो जाएगा. फिलहाल इतना साफ है कि मोदी सरकार की दिलचस्पी देश की आर्थिक-संवृद्धि की गति को तेज करने में सबसे ज्यादा है. मोदी सरकार भारत को वैश्विक विनिर्माण क्षेत्र का हब बनाने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री ने अपने 15 अगस्त के कारण में ‘मेड इन इंडिया’ को बढ़ावा देने के अलावा दुनिया से ‘मेक इन इंडिया’ का आह्वान किया था। यानी दुनिया भर के उद्योगपतियों आओ, भारत में बनाओ। इस मुहिम की शुरुआत 25 सितंबर से होने वाली है। दिल्ली आने वालों में यूरोप की विमान बनाने वाली कम्पनी एयरबस, कार बनाने वाली जर्मन कम्पनी मर्सिडीज़, कोरिया की उपभोक्ता सामग्री बनाने वाली कम्पनी सैमसंग और जापानी कार कम्पनी होंडा के सीईओ दिल्ली आ रहे हैं. दुनिया की तमाम कम्पनियों के सर्वोच्च अधिकारियों का इतना बड़ा जमावड़ा पहली बार हो रहा है.

इस अभियान को एक आंदोलन के रूप में शुरू किया जा रहा है. यानी यह केवल विज्ञान भवन का कार्यक्रम नहीं है, बल्कि इसे एक साथ मुंबई, चेन्नई और बेंगलुरु समेत विभिन्न राज्यों की राजधानियों में भी चलाया जाएगा। खासतौर से उन राजधानियों में जिनका ताना-बाना औद्योगिक गतिविधियों के लिए अपेक्षाकृत बेहतर है. इस अभियान को उन देशों में भी शुरू किया जाएगा, जिनका राष्ट्रीय मानक समय भारत से मिलता है. देश में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा करने के अलावा व्यापार तथा आर्थिक संवृद्धि को गति देना इसका मकसद है. योजना के अनुसार विदेशों में भारतीय दूतावास भी मोदी के भाषण का प्रसारण करते हुए निवेशकों एवं कंसल्टेंट कम्पनियों के समक्ष सामने प्रजेंटेशन देंगे.

वैश्विक व्यापार कंसल्टेंसी फर्म बैन एंड कम्पनी ने इस साल फरवरी में जारी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सन 2017 में दुनिया का इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश चार ट्रिलियन (यानी चार हजार) डॉलर होगा. हमारी 2012 से 2017 की बारहवीं पंचवर्षीय योजना में इंफ्रास्ट्रक्चर पर हजार डॉलर के निवेश का अनुमान है. कहना मुश्किल है कि इतना निवेश हो पाएगा या नहीं, पर फिलहाल भारत निर्माण की तेज गतिविधियों के दरवाजे पर खड़ा है. वैसा ही निर्माण जैसा चीन ने अस्सी-नब्बे के दशक में देखा था. सरकार ने निर्माण कार्यों पर विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह के अड़ंगों को हटाने का फैसला कर लिया है. खासतौर से स्मार्ट सिटीज़ के नाम से शुरू होने वाली योजना के तहत छोटे शहरों में भारी निवेश की तैयारी है. इससे बड़े शहरों की ओर होने वाला पलायन भी रुकेगा. इस निर्माण के इर्द-गिर्द नई आर्थिक गतिविधियाँ खड़ी की जाएंगी.

चीन ने सत्तर-अस्सी के दशक में अपनी अर्थ व्यवस्था को खोलने के पहले इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया था. उसका विस्तार अब भी हो रहा है और वहाँ होने वाला विदेशी निवेश आज भी भारत के मुकाबले कई गुना है. इंफ्रास्ट्रक्चर के बुनियादी क्षेत्र यानी बिजली, तेल, गैस, पेट्रोल, परिवहन और अन्य निर्माण के अलावा सामाजिक क्षेत्र यानी पेयजल, स्वास्थ्य और शिक्षा पर भी हमें भारी निवेश की जरूरत है. भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था है यहाँ की निर्णय प्रक्रिया समय लेती है. पर अब शायद हम बड़े निर्णय करने की स्थिति में आ गए हैं. सितम्बर के महीने में जापान-चीन और अमेरिका के साथ हमारे संवाद को आने वाले वक्त की कहानी के साथ जोड़कर देखना चाहिए.

आर्थिक दृष्टि से देखें तो जापान ने भारत में अगले पाँच साल में तकरीबन 35 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया है. जबकि चीन ने तकरीबन 30 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है. चीन के साथ हमारा तकरीबन 70 अरब डॉलर का सालाना कारोबार है. व्यापारिक रिश्तों में अमेरिका हमारा सबसे बड़ा साझीदार है, जिसके साथ हमारा तकरीबन 100 अरब डॉलर का सालाना व्यापार है. पिछले कुछ समय से दोनों देशों के बीच रिश्ते उतने खुशनुमा नहीं हैं, जितने होते थे. पर वैश्विक आर्थिक गतिविधियों पर नजर रखने वाले घोषणाएं कर रहे हैं कि भारत में अगले पाँच साल में तकरीबन 500 अरब डॉलर का निवेश अकेले अमेरिका से आएगा.

सरकारी योजना लगभग दो दर्जन सेक्टरों में निवेश बढ़ाने की है. ऑटो मोबाइल, नागरिक उड्डयन, रक्षा उद्योग, रेलवे, पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी इनमें सबसे आगे हैं. सवाल है कि क्या हमारी व्यवस्था बड़े स्तर पर निवेश के लिए तैयार है? भारत की गिनती उन देशों में होती है, जहाँ कारोबार करना मुश्किल होता है. ऐसा तब हुआ जब देश के प्रधानमंत्री पद पर मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री थे. इसका कारण देश की गठबंधन राजनीति थी और राज-व्यवस्था की जकड़बंदी भी. इसके कारण नए रोज़गारों का सृजन काफी धीमा हो गया था.

बहरहाल औद्योगिक नीति एवं प्रमोशन विभाग ने अब शिकायत निवारण और प्रश्नों के जवाब देने के लिए आठ सदस्यों की विशेषज्ञ समिति गठित की है. यह टीम 48 घंटे में मुद्दे को सुलझाने का प्रयास करेगी. ऐसा न करने की स्थिति में संबंधित विभाग के एक मनोनीत अधिकारी के पास भेजा जाएगा. जो 72 घंटों में प्रत्युत्तर देगा. मेक इन रणनीति के लिए तीन योजना बनाई जा रही है. लाइसेंसिंग में ढिलाई देने. भूमि अधिग्रहण कानून में ढील देने और शायद श्रम कानूनों में बदलाव की योजनाएं भी तैयार हैं. कुछ गैर-जरूरी पुराने कानूनों को खत्म करने की शुरुआत हो गई है. आयात शुल्क और उत्पाद शुल्क की संरचना में भी बड़े बदलाव होने जा रहे हैं. मोदी सरकार ने योजना आयोग समाप्त करने की घोषणा कर दी थी. अब खबर है कि रेलवे बोर्ड का पुनर्गठन किया जा रहा है. इसके लिए एक समिति बनाई गई है जिसमें अर्थशास्त्री अरविन्द पनगढ़िया भी शामिल हैं.
मेक इन इंडिया अभियान में केवल विदेशी कम्पनियाँ ही शामिल नहीं हो रही हैं, बल्कि भारतीय कम्पनियों की भागीदारी भी इसमें होंगी. मेक इन इंडिया अभियान इन कम्पनियों के लिए भी अच्छा संदेश लेकर आया है. सन 2013 में भारत के विनिर्माण क्षेत्र की समूची अर्थ-व्यवस्था में केवल 13 फीसदी की हिस्सेदारी थी. विनिर्माण क्षेत्र कमज़ोर होगा तो रोज़गार नहीं होंगे. एक ज़माने में हमारा वस्त्र उद्योग दुनियाभर से सबसे आगे था. आज कानपुर, मुम्बई और अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में सन्नाटा है. कारण क्या है? शायद कम उत्पादकता भी एक बड़ा कारण है. मिलों का समय से आधुनिकीकरण नहीं हुआ. हमें उच्च तकनीक भी चाहिए. मंगलयान इशारा कर रहा है कि हम इसमें पीछे नहीं हैं. बेशक इसमें भी हमें उचित विदेशी सहयोग चाहिए. आगे बढ़ने का रास्ता यही है.
प्रभात खबर में प्रकाशित

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