Friday, May 10, 2013

एक माँ का अचानक खो जाना


प्रमोद जोशी
 साहित्य, संगीत, चित्रकला और रंगमंच पर माँ विषय सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला विषय है। निराशा में आशा जगाती, निस्वार्थ प्रेम की सबसे बड़ी प्रतीक है माँ। जितना वह हमें जानती है हम उसे नहीं जानते। दक्षिण कोरिया की लेखिका क्युंग-सुक शिन ने अपनी अंतर्राष्ट्रीय बेस्ट सेलर प्लीज लुक आफ्टर मॉममें यही बताने की कोशिश की है कि जब माँ हमारे बीच नहीं होती है तब पता लगता है कि हम उसे कितना कम जानते थे। सन 2011 के मैन एशियन पुरस्कार से अलंकृत इस उपन्यास का 19 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। और अब यह हिन्दी में माँ का ध्यान रखना नाम से उपलब्ध है।
इसकी कहानी 69 साल की महिला पार्क सो-न्यो के बारे में है, जो दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल के मेट्रो स्टेशन पर भीड़ के बीच उसका हाथ पति के हाथ से छूटा और वह बिछुड़ गई। उसका झोला भी उसके पति के पास रह गया। वह खाली हाथ थी। वे दोनों अपने बड़े बेटे ह्योंग चोल के पास आ रहे थे। पूरे उपन्यास में माँ की गुजरे वक्त की कहानी है। पाँच बच्चों की माँ। इनमें तीसरे नम्बर की बेटी लेखिका है। वह ह्योंग चोल को वकील बनाना चाहती थी, पर वह कारोबारी बना। माँ के बिछुड़ जाने पर ह्योंग चोल को अफसोस है। माँ की कहानी त्याग की कहानी है। उसने अपना जन्मदिन भी पिता के जन्मदिन के साथ मनाना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे खामोशी से माँ का असली जन्मदिन नज़रन्दाज कर दिया गया। जब वह खो गई तो इश्तहार देने के लिए किसी के पास उसकी फोटो नहीं थे। फोटो खिंचाते वक्त वह गायब हो जाती थी। बड़े बेटे को जब शहर में हाईस्कूल के सर्टिफिकेट की ज़रूरत हुई तो उसने पिता को फोन किया कि किसी के हाथ बस से भेज दो, मैं ले लूँगा। उस ठंडी रात में माँ वह कागज लेकर खुद शहर जा पहुँची।
 
माँ अनपढ़ थी। बचपन में जब बड़े बेटे की शहर से चिट्ठी आती तब वह अपनी बेटी से उसे पढ़वाती। वही बेटी जो लेखिका बनी। भाई का पत्र सुनते समय माँ पीछे के आँगन में टैरो की कोपलों को एकटक देखती। उसके कान खरगोश की तरह खड़े होते ताकि एक शब्द भी न छूटे। माँ ने अपनी बेटी को स्कूल भेजा। उसकी उँगलियों में सोने की अँगूठी होती थी, जो बेटी को स्कूल भेजने के काम आ गई। अपने बच्चों के प्रति समर्पित माँ रसोईघर थी और रसोईघर माँ था। यह सब बातें तब याद आ रहीं थीं जब माँ खो गई थी। लेखिका ने इस कहानी को अलग-अलग पात्रों को संबोधित करके लिखा है।
कोरिया का समाज भारत की तरह विकसित हो रहा है। उसका शहरीकरण हो रहा है। बदलाव नाटकीय और बेहद तेज है। आधुनिक से उत्तर आधुनिक होता समाज अपने परम्परागत मूल्यों को याद कर रहा है। बिछुड़ी माँ एक रूपक है नए ग्लानिभूत बच्चों का मनोदशा का। वे याद कर रहे हैं कि उन्हें किसने इस काबिल बनाया। वे खुद क्यों नहीं पहुँचे मेट्रो स्टेशन उसे लेने? उसे लेने टैक्सी क्यों नहीं भेजी? पर बेटी बीजिंग के पुस्तक मेले में थी। बेटा किसी नए अपार्टमेंट की मार्केटिंग में व्यस्त था। उन्होंने तलाश की तो पता लगा कि हाँ एक बूढ़ी महिला देखी गई थी। किसी ने उसे कहीं बैठे तो किसी ने धीरे-धीरे कहीं जाते देखा। नीली प्लास्टिक की चप्पलें पहने बूढ़ी महिला के बारे में भी कुछ लोगों ने बताया जिसके पैरों में घाव हो गए थे। जो कूड़े में से खाना निकाल कर खा रही थी। यह सब को महसूस हो रहा था कि हमें बनाने के लिए माँ खुद को खोती गई। खत्म होती गई।

क्युंग-सुक शिन कोरिया के उन लेखकों में से हैं, जिनसे पश्चिम का परिचय है। उन्हें जब मैन एशियन लिटरेरी प्राइज़ दिया गया तब उनके अलावा हारुकी मुराकामी, अमिताभ घोष, राहुल भट्टाचार्य, बनाना योशीमोतो समेत अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों की रचनाएं भी सामने थीं। उनकी रचना में उस नई पीढ़ी के लिए नयापन था, जो अपनी व्यावसायिक व्यस्तता में अपने से पिछली पीढ़ी की अनदेखी कर बैठी है। पर जिसे इस बात की ग्लानि है। ऐसा लगता है कि यह क्युंग-सुक शिन की आत्मकथा है। वे अपनी रचना की चर्चा कहीं कर रहीं थी तो किसी ने पूछा, क्या आपकी माँ मिल गईं थीं? पूछने वाले को लगता था कि कहानी पूरी तरह सच्ची है। क्युंग-सुक शिन ने कहा, उपन्यास की माँ मेरी माँ जैसी है, पर मेरी माँ उससे फर्क हैं। आखिर वह एक काल्पनिक पात्र है। मेरी भी उपन्यास में वर्णित माँ की तरह सरसों के पत्तों की किमची, भाप में पकाया तोफू, भुनी हुई समुद्री घास और लोबिए का सूप बनाती है। पर वह अनपढ़ नहीं है। पर कहानी माँ के खोने की है। किसी भी माँ को खोने की। एक परम्परागत समाज से आधुनिक समाज में आते-आते हमारी तमाम कीमती चीजें खो गईं हैं। पर क्या हम अपनी माँ के खो जाने को स्वीकार कर लेगें? उसे खोजने की कोशिश नहीं करेंगे? यह उपन्यास माँ को याद करता है। उसके महत्व को स्वीकार करता है। और यह माँ सिर्फ कोरिया की माँ नहीं लगती। उपन्यास अपने कथानक और शिल्प के कारण बाँधे रखता है और महसूस नहीं होने देता कि यह किसी दूसरे समाज की कथा है। इसका अनुवाद अंग्रेजी से हुआ है। बेहतर होता कि कई जगह अंग्रेजी के वाक्य विन्यास को भुला दिया जाता।

माँ का ध्यान रखना
लेखिका : क्युंग-सुक शिन
अनुवाद : नीलाभ
मूल्य : 225 रु
प्रकाशक : राजपाल एंड सन्ज़,
1590 मदरसा रोड, कश्मीरी गेट,
दिल्ली-110006

दैनिक भास्कर में प्रकाशित

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