Monday, May 13, 2013

अब दलदल में हैं मनमोहन


कांग्रेस ने स्पष्ट किया है कि पवन बंसल और अश्विनी कुमार को पद से हटाने का फैसला पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संयुक्त निर्णय था केवल सोनिया गांधी का नहीं। इस स्पष्टीकरण की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि मीडिया में इस बात का चर्चा था कि सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से मंत्री हटे। आडवाणी जी ने अपने ब्लॉग में मनमोहन सिंह को उलाहना भी दिया कि अब पद पर बने रहने के क्या माने हैं? बहरहाल इतना ज़रूर स्पष्ट हो रहा है कि विपक्ष का निशाना अब सीधे मनमोहन सिंह बनेंगे।

पवन बंसल और अश्विनी कुमार की छुट्टी के बाद भी यूपीए-2 का संकट खत्म नहीं होगा। मंत्रियों के इस्तीफों के पीछे सोनिया गांधी का हाथ होने की बात मीडिया में आने के कारण जहाँ पार्टी अध्यक्ष की स्थिति बेहतर हुई है वहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति बिगड़ी है। 

कोल ब्लॉक आबंटन तब हुआ जब कोयला मंत्रालय का प्रभार भी प्रधानमंत्री के पास था। इसलिए कोयले की कालिख अब सीधे प्रधानमंत्री पर लगेगी। सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई की जो स्टेटस रिपोर्ट पेश हुई है उसके अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक आबंटनों के सिलसिले में अनाम अधिकारियों के खिलाफ 11 एफआईआर दायर की गई हैं।

कौन हैं वे अधिकारी? उनका नाम पता  लगाने के पहले यह बताना ज़रूरी होगा कि उस वक्त कोयला मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।

हाल के घटनाक्रम में दो व्यक्तियों का नाम खासतौर से उभर कर आया है। पहला नाम है सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा का और दूसरा सोनिया गांधी का। बताते हैं कि शुक्रवार की शाम सोनिया गांधी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मंत्रियों के इस्तीफे हो जाने चाहिए। वे खुद प्रधानमंत्री से मिलने आईं। 

इसके बाद उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल तब तक 7, रेसकोर्स में रुके रहे जबतक दोनों मंत्रियों के इस्तीफे नहीं हो गए। एक चर्चा यह भी है कि प्रधानमंत्री ने कहा, मैं भी इस्तीफा देना चाहता हूँ। और उन्हें समझाने सोनिया गांधी उनके घर गईं थीं। बहरहाल सच जो भी हो, इस दौरान मनमोहन सिंह की छवि पर धब्बा लगा है या नहीं लगा, पर मंत्रियों के इस्तीफों का श्रेय सोनिया गांधी को मिला।

सत्ता के गलियारों में चर्चा है कि कानून मंत्री के व्यवहार से क्षुब्ध सीबीआई ने इस खबर को लीक किया कि वह हलफनामे में क्या कहने वाली है। अभी तक लगता था कि सरकार अपने मंत्रियों को बचा रही है, मंत्री प्रधानमंत्री को और प्रधानमंत्री खानदानको। 

धीरे-धीरे अंतर्विरोध स्पष्ट हो रहे हैं। इसलिए कुछ बड़े खुलासे और हों तो विस्मय नहीं होना चाहिए। क्या कारण है कि राहुल गांधी लगातार आउटसाइडर की भूमिका में रहते हैं? पर इसमें दो राय नहीं कि यूपीए का ठीकरा किसी दिन फूटा तो मनमोहन सिंह के सिर पर ही फूटेगा।

हालांकि कानून मंत्री के रूप में कपिल सिब्बल को और रेलमंत्री के रूप में सीपी जोशी को प्रभार दे दिया गया है, पर अब कैबिनेट में फेर-बदल होगा। डीएमके के हट जाने के बाद यों भी कुछ जगहें खाली पड़ी हैं।

मनमोहन सिंह की राज्यसभा सदस्यता 15 जून को खत्म होने वाली है। उसके पहले ही 30 मई को वे फिर से चुने जाएंगे। असम से खाली होने वाली दो सीटों की अधिसूचना आज जारी होगी और 20 तक नामांकन होंगे। भविष्य में वे प्रधानमंत्री बनें या न बनें, राज्यसभा के सदस्य रहेंगे। 

उनके बारे में माना जाता है कि वे अर्थशास्त्री हैं, राजनीति नहीं जानते। हाल में भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने कहा कि मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री के रूप में वास्तविकता से ज्यादा और राजनीतिक नेता के रूप में वास्तविकता से कम आँके गए हैं। ऐसा लगता है कि उनका कम बोलना एक प्रकार की राजनीति है। वे खुद को विवादों से अलग रखने में कामयाब हुए हैं। पर लगता है कि विवाद उन्हें छोड़ेंगे नहीं।

फिलहाल कांग्रेस पार्टी को समझ में आने लगा है कि अब चुनावों को टाला नहीं जा सकता। अब वक्त नहीं रहा कि छवि सुधर जाएगी। बल्कि हालात यही रहे तो छवि और बिगड़ेगी। क्या यह सम्भव है कि इस बार राहुल गांधी सरकार की बागडोर सम्हाल लें? 

पहली निगाह में यह सुझाव बेतुका लगता है, पर राहुल के प्रवेश के लिए इससे बेहतर मौका कौन सा होगा? संसद के मॉनसून सत्र में सरकार भूमि अधिग्रहण, खाद्य सुरक्षा और दूसरे ज़रूरी विधेयकों को पास करा सकती है। दोनों मंत्रियों के इस्तीफे के बाद भाजपा के पास अब सदन को ठप करने का कोई कारण नहीं बचा।

सम्भव है वह प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग करे। लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा भी है कि प्रधानमंत्री का अपने पद पर बने रहना अनुचित है। प्रधानमंत्री उपहास का विषय बनते जा रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस इस माँग की पेशबंदी में राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में लाकर एक तीर से कई शिकार कर सकती है। राहुल नहीं माने तो कोई और वरिष्ठ नेता कुछ समय के लिए कुर्सी पर बैठ सकता है।

बहरहाल जो भी हो सरकार और पार्टी के अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं। पार्टी एक नैतिक दृष्टिकोण लेकर चल रही है और लोक लुभावन कार्यक्रमों पर ज़ोर दे रही है। भूमि अधिग्रहण कानून में कम से कम 80 फीसदी लोगों की सहमति का प्रावधान सोनिया गांधी के दबाव में शामिल हुआ है। 

ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने 60 फीसदी का सुझाव दिया था। अगर 80 फीसदी परिवारों का कोई भी एक सदस्य अगर खिलाफ हुआ तो काम लटक जाएगा। भारत में इस समय ज़मीन के दाम दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। शहरों में प्रॉपर्टी की कीमत असाधारण रूप से बहुत ज्यादा है। ज़मीन के दाम बढ़ने से भूस्वामियों को तो लाभ होगा, पर गाँवों में आधी से ज्यादा आबादी भूमिहीनों की है। खाद्य सुरक्षा कानून के पक्ष में भी पार्टी है सरकार नहीं।

राष्ट्रीय राजनीति अब चुनाव के मोड में हैं, इसलिए लोक-लुभावन कार्यक्रमों का विरोध करने की ताकत किसी में नहीं है। सरकार यों भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है। उदारीकरण से जुड़े बैंकिंग और इंश्योरेंस विधेयक लगता है अब पास नहीं हो पाएंगे। जीएसटी और इनकम टैक्स कानून में दीर्घकालीन बदलाव भी लगता है अब अगली संसद में होंगे।

पेट्रोलियम पर सब्सिडी खत्म करने का काम सरकार ने पिछले साल के अंत में शुरू कर दिया था। डीज़ल की कीमतें अब हर महीने बढ़ती रहेंगी। उधर सरकार को अपने कंडीशनल कैश ट्रांसफर कार्यक्रम पर भरोसा है। वह इसे गेम चेंजर मानती है।

इस साल जनवरी में हुए इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे के अनुसार देश में आज चुनाव हों तो भाजपा की अगुआई वाला एनडीए कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ यूपीए-2 पर भारी पड़ेगा। हालांकि एनडीए की स्थिति पहले से बेहतर होगी, पर बहुमत से वह भी दूर रहेगा। 

पोल के मुताबिक कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के 7.7 फीसदी वोट खिसक जाएंगे। पर ये सारे वोट भाजपा की अगुआई वाले एनडीए को नहीं मिलेंगे। इस किस्म के कुछ और सर्वे भी हुए हैं और कुछ होंगे।

चुनाव में फैसला जो भी हो, कांग्रेस पार्टी इस वक्त अलोकप्रियता के दलदल में फँसी है। फिर भी कर्नाटक के चुनाव में उसे उममीद से ज्यादा सफलता मिली है। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री का चुनाव करते वक्त पार्टी ने सीक्रेट बैलट का सहारा लिया। ऐसा लगता है कि यह फैसला राहुल गांधी का था। 

इस फैसले से एक ओर हाईकमानवाद को धक्का लगा है और स्थानीय कार्यकर्ताओं के पास अच्छा संदेश गया है। कांग्रेस अब अपने स्थानीय संगठनों को पुष्ट करने की कोशिश करेगी। लोक-लुभावन कार्यक्रमों और कार्यकर्ता के बेहतर उत्साह का लाभ वह उठाना चाहेगी।

कर्नाटक की पराजय के बाद भाजपा अस्त-व्यस्त है। नरेन्द्र मोदी के नाम को लेकर संगठन यों भी बिखर गया है। पिछले दो साल में पार्टी ने यूपीए की अलोकप्रियता तो बढ़ाई, पर अपने आधार को नहीं बढ़ाया। उसने न तो अपनी सकारात्मक राजनीतिक अवधारणा को जनता के सामने रखा है और न ऐसी कोई इच्छा शक्ति प्रकट की है कि वह दिल्ली की कुर्सी पर कब्जा करना चाहती है। 

अभी समय है और सम्भव है कि हालात पलटा खा जाएं। फिलहाल नज़रें यूपीए पर हैं, क्योंकि उसे कुछ बड़े फैसले करने हैं। 

सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
जो नहीं कहा वह यह था, थैंक यू येदियुरप्पा जी। हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

2 comments:

  1. यह तो सोनिया और उनके दरबारियों की सोची समझी चाल थी,ताकि पहले की तरह त्याग,देश भक्त की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित किया जा सके,मनमोहनसिंह को लापरवाह,और कोयला घोटाले का अप्रत्यक्ष जिम्मेदार ठहरा कर,असफल पी एम जताते हुए राहुल की ताजपोशी कर दी जाये.धोया,पोंछा और फेंका की निति अपना कर,चमचे अपना अस्तित्व भी बचा लेंगे,और राहुल की चोकड़ी में शामिल हो देश का पीछे से शाशन चलाएंगे,जैसा राजीव गाँधी के समय हुआ था.

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    1. बिल्कुल सही. बेचारे मनमोहन सिंह जी बीच में जाने कैसे जा फंसे.

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